Saturday, October 10, 2020

अशोक, तुम्हारे हत्यारे हम हैं...

अशोक से खरीदा गया वो आखिरी पेन आज हाथ में है, लेकिन उससे कुछ लिखने का मन नहीं है। अशोक... जिसे कोई शोक न हो। यही सोच कर नामकरण किया होगा उसके माता-पिता ने। अशोक की किस्मत भी सम्राट अशोक जैसी थी, पूरी न सही कुछ तो थी ही। सम्राट अशोक को कलिंग युद्ध के बाद शोक हुआ और इस अशोक को एफडीआई एवं मॉल संस्कृति आने के बाद। 
आज अशोक रह-रह कर याद आ रहा है। नजरें तो उसे पिछले आठ-दस दिन से तलाश रही थी, लेकिन उसका ठीहा या कहें दुकान बंद थी। सोचा हमेशा की तरह कोई काम होगा या हमारी दिनचर्या में बदलाव के कारण उस खास समय दुकान बंद मिलती है। हकीकत कुछ और थी। ऐसी कि दिल में नश्तर की तरह चुभ गई। ये नश्तर मोहल्ले के हर घर में कुछ मिनट का सन्नाटा खींच गया। जवान होती दो बेटियों का पिता अशोक, जो न जाने कितने दर्द सहन कर रहा था, दिल का दौरा नहीं झेल पाया। अशोक गया नहीं उसकी हत्या हुई है और हत्यारे हैं हम..! जी हां हम। अशोक मरा नहीं उसे मारा गया है। उसे दिल का दौरा पड़ा नहीं। उसके दिल को इतना कमजोर कर दिया गया कि वो उसका शोक नहीं सह सका। भगवान शंकर की तरह अकेले हलाहल पी रहा अशोक चला गया... बिना किसी प्रतिवाद और बिना कोई शोर-शराबे।  
25 साल से जाने पहचाने अशोक की कहानी कुछ यूं है। जब हम उस नई कॉलोनी में निवास करने पहुंचे थे, तब घर से थोड़े फासले पर एक गुमटीनुमा दुकान में अशोक ने अपना शंकर किराना स्टोर खोला था। वक्त और जरुरत के मुताबिक उसमें प्रॉविजन स्टोर, फोटोकॉपी और आइसक्रीम पार्लर भी जुड़ता गया। कारोबार बढ़ने के साथ छोटी सी छह-बाई-छह फीट की तिकोनी दुकान एक से दो हुईं और फिर अचानक दुकान में सामान कम और खालीपन ज्यादा हो गया। 
जिस शंकर की दुकान (अशोक का मोहल्ले में प्रचिलित नाम) से घर का पूरा राशन आता था, कॉलोनी आबाद होने पर उससे धीरे-धीरे कब किनारा कर लिया गया, पता ही नहीं चला। वजह थी वॉलमार्ट का बेस्ट प्राइज, रिलायंस, बिग बाजार और ऑनडोर जैसे सस्ता सामान बेचने वाले बड़े स्टोर्स का मकड़जाल। इसका खुलासा भी एक शाम अशोक से बात करने पर ही हुआ। कभी रोज सुबह और शाम शंकर की दुकान पर कुछ न कुछ खरीदने की आदत इन मॉल्स ने खत्म कर दी। आलम यह हो गया कि घर से डिमांड आई अनिक का घी ले आओ... दुकान पर पूछा तो अशोक ने कहा- अमूल और सांची वाला घी है, लेकिन चाहिए अनिक था सो आगे बढ़ गए। कुछ इसीतरह हम सब लोगों ने मिलकर मोहल्ले की दुकान को उजाड़ कर दिया। 
दुकान में खालीपन बढ़ा तो फोटोकॉपी और आइसक्रीम जैसे टोटकों के बाद अशोक की पत्नी ने एक हिस्से में लेडीज टेलरिंग का काम शुरु कर लिया कि कुछ तो आमदनी में इजाफा हो। पाप अशोक ने भी किया था। वक्त के साथ बदलते ग्राहकों की मानसिकता न भांप पाने का पाप! कभी इसी दुकान के दम पर उसने कॉलोनी में मकान खरीदा था। वक्त ने करवट ली तो उसे बेच कर दूर सस्ता मकान लेने किसी बिल्डर के फेर में पड़ गया। नया मकान सालों देरी से मिला और रकम जाम होती गई। पुराने मकान का मुनाफा परिवार की जरुरतों और दुकान को संभालने में लग गया। चिंता और अवसाद से उपजता है मधुमेह। सो अशोक भी डायबिटीज और हाई ब्लडप्रेशर की बीमारी का शिकार हो गया। उसका चेहरा चुगली करता था कि शारीरिक बीमारी से ज्यादा धंधा मंदा होने और उधारी चुकाने की बीमारी बढ़ चुकी है, लेकिन शंकर की तरह वो अकेले विषपान करता रहा... कभी इनका जिक्र नहीं किया। 
कभी बातचीत में उसे खोलने की कोशिश भी की तो सिर्फ इतना ही कहा कि अब लोग थोक के भाव घरेलू सामान लेने लगे हैं इसलिए दुकान में सामान कम कर दिया। जवानी जिस काम में लगा दी उसे छोड़कर दूसरा काम करना अब संभव भी नहीं था इसलिए ग्राहकों को लुभाने के लिए प्रयोगों का दौर चलता रहा। जिस शंकर की दुकान पर मोहल्ले की महिलाएं कभी रात के अंधेरे में भी सामान लेने सहज चली जाती थीं, अब दिन में भी कोई नहीं जाता। वो अशोक ही था, जिसने महिलाओं को देखते हुए सिगरेट, गुटखा जैसी चीजों को बेचना बंद कर दिया था। वक्त बदला तो चार लोगों को दुकान पर खड़ा करने का सहारा यही चीजें बनीं। 
कई बार सोचा, घर में बात भी की, लेकिन जमी नहीं कि कम से कम छोटा सामान अशोक की दुकान से ही लिया जाए। कोरोना की महामारी ने जरुर कुछ दिन की रौनक लौटाई, जब लॉकडाउन में बाजार बंद थे। कुछ दिन बाद ही बिग बाजार जैसों की होम डिलेवरी ने फिर शंकर की उम्मीदों पर तुषारापात कर दिया... और अशोक ने अचानक बिना बताए अलविदा कह दिया। 
अशोक तब गया जब दिल्ली में “बाबा का ढाबा” बेजार होने का वीडियो देख सैकड़ों लोग ढाबा चलाने वाले बुजुर्ग कांताप्रसाद की सहायता को जुट गए और महज 12 घंटे में ढाई लाख रुपयों की आर्थिक मदद खड़ी हो गई। हमारा अशोक वैसा खुशकिस्मत नहीं था। वो मारा गया हमारे कारण। वो मारा गया एफडीआई के तहत आए वॉलमार्ट के कारण। उसकी जान गई बिग बाजार से सस्ता माल खरीदने की हमारी लोलुपता से। सवाल गूंज रहा है कि लोकल फॉर वोकल के नारे के बीच बड़े किराना कारोबारियों की सस्ती दुकान ने गली-मोहल्लों के और कितने अशोक को हमसे दूर किया? गुनहगार वे नहीं जो लोकल की बात कर कैपिटलाइजेशन को तरजीह देते हैं। गुनहगार हैं हम लोग, जो मॉल में तो तिगुने दाम पर एक शर्ट पर एक मुफ्त शर्ट बिना मोल-भाव खरीद लेते हैं, लेकिन सब्जी वाले से एक किलो आलू का भी भाव-ताव करते हैं। 
ऐसे तमाम अशोक को श्रद्धांजलि के साथ यह उम्मीद कि फूड ब्लॉगर गौरव वासन की तरह कोई तो सामने आए और गली-मोहल्ले के इन दुकानदारों की तकलीफ उजागर करे। कोई तो वसुंधरा तन्खा शर्मा उस दर्द को ट्वीट करे और लक्स साबुन की बट्टी अथवा गोल मिठाई पर सिर्फ 10-15 पैसे के मुनाफे पर परचून और किराना दुकान चलाने वाले, गली के मोची और दर्जी की किस्मत बाबा के ढाबा की तरह फिर चमकने लगे।

Sunday, May 17, 2020

मध्यप्रदेश में कोरोना पर्यटन क्यों नहीं...?


आपदा पर्यटन प्रेमी सरकार से आरामतलब कमलनाथ के सवाल पूछने के मायने


- प्रभु पटैरिया 
देश में लॉक डाउन को 53 दिन  पूरे हो गए हैं। अब 18 मई से इसका चौथा चरण आने को है, लेकिन अभी तक सियासी कोरोना पर्यटन शुरु नहीं हुआ। क्यों नहीं हुआ?  इस सवाल का जवाब घर में भी घोषित-अघोषित मास्क लगाए बैठे लोग जानते हैं। नहीं जानते हैं तो सिर्फ कमलनाथ। 
मध्यप्रदेश में 15 महीने मुख्यमंत्री रहे कमलनाथ ने आम जनता के ह्रदय में चुभ रहा सवाल पूछा है कि कोरोना संकट से मध्यप्रदेश को उबारने के लिए बने मंत्रिमंडल का कोई सदस्य अब तक किसी भी कोरोना प्रभावित जिले अथवा प्रभावितों के बीच (कोरोना पर्यटन पर) क्यों नहीं पहुंचा? लॉकडाउन में जनता को हो रही तकलीफ को देखने का साहस क्यों मुख्यमंत्री या उनका कोई मंत्री नहीं जुटा पाया? 
पहली नजर तो क्या किसी भी नजर में कमलनाथ का सवाल जायज लगता है, लेकिन क्या करें, दूसरे की जान से ज्यादा अपनी जान की फिक्र सभी को होती है। सो सेनिटाइज बंगलों में भी जो लोग मास्क और दस्ताने पहन कर बैठते हों। मंत्रालय में इन अस्त्र-शस्त्र के साथ भरपूर सोशल डिस्टेंसिंग रखते हों। रुबरु मीटिंग की जगह वीडियो कांफ्रेंसिंग करते हों, वे क्यों कर सड़क पर सैकड़ों किमी पैदल चल रहे मजदूर और मजबूर के बीच जाकर अपनी जान का जोखिम लेंगे? कैसे कोरोना हॉटस्पॉट इंदौर या भोपाल की सड़कों पर घूमेंगे?  उनकी सुरक्षा का प्रोटोकॉल आड़े आए उससे पहले कोरोना का डर रास्ता रोक लेता है। 
जनता के प्रति जवादेह सरकार से कमलनाथ का सवाल इसलिए भी जायज लगता है क्योंकि मध्यप्रदेश में वो किसान का बेटा शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री है, जिसे जनता के सुख-दुःख के आगे अपना कोई सुख-दुःख दिखाई नहीं देता। 13 साल की पिछली भाजपा सरकार में शिवराज का वल्लभ भवन से ज्यादा वक्त प्रदेश के दौरों में बीता। कहीं ओला गिरे, अगले दिन किसानों को दिलासा देने ओले की मार से पटी फसल पर शिवराज हाजिर। कहीं पाला पड़ा तो दिलासा देने खेत की मेड़ पर मामा का उड़नखटोला उतर पड़ता था। वर्षा का कहर हो या सूखे की चपेट अथवा कोई दुर्घटना सांत्वना देने और ढाढस बंधाने मुख्यमंत्री पीड़ितों के बीच होते थे। पेटलावद में बारुदी विस्फोट से 88 लोगों के जान गंवाने की घटना कौन भूल सकता है। दिवंगतों के परिजनों की नाराजगी की तमाम प्रशासकीय आशंका को परे धर शिवराज दुःखी लोगों के साथ सड़क पर बैठे दिखाई दिए थे। उनके इस अपनत्व भाव ने लोगों को बड़ी राहत दी थी। और तो और मंदसौर गोलीकांड में अपनी ही सरकार के अफसरों की लापरवाही पर क्षोभ जताने वे उपवास पर बैठ गए थे। कौन भुला सकता है कि किसान हितैषी मुख्यमंत्री का उपवास तुड़वाने मृतक किसानों के परिजन मंदसौर से साढ़े 300 किमी का सफर कर भोपाल तक दौड़े चले आए थे। 
इतने रहमदिल शिवराज आपदा में फंसे आम आदमी को लेकर कभी निर्दयी नहीं हो सकते। कोई तो मजबूरी उन्हें मंत्रालय से मॉनिटरिंग तक बांध कर रखे है। वर्ना यह संभव ही नहीं कि प्रदेश का गरीब कड़क धूप में सड़कों पर तड़पता रहे और वे वीबी-2 के वातानुकूलित कक्ष में बैठे रहें। 
शिवराज की मजबूरी समझ आती है, लेकिन उनका क्या जिन्हें जिले आवंटित हैं। वे मंत्री जो कोरोना से निपटने संभाग प्रभारी बनाए गए। मुख्य सचिव सहित वे आला अफसर जिन्हें जिलों की कमान दी गई। वे क्यों अपने प्रभार के जिलों में नहीं गए? क्या उन्हें कोरोना पर्यटन नापसंद है या फिर मुख्यमंत्री के निर्देश का पालन वे जरुरी नहीं समझते? कमलनाथ ने यह बात तो सही पूछी है। 
शिवराज की हिमायत नहीं। मुख्यमंत्री खुद न जा पा रहे हों तो मंत्री और आला अफसरों को मजदूरों के सेवा कार्य की निगरानी के लिए भेजना चाहिए। इसके बावजूद शिवराज और उनकी टीम का इस संकटकाल में मौके पर न जाना फिर भी समझ आता है कि वे मंत्रालय से भी निर्देश, आदेश और मॉनिटरिंग कर रहे होंगे। आखिर 8 करोड़ जनता की सेवा की जिम्मेदारी उनके कांधों पर है। इसलिए तमाम सुरक्षा प्रबंधों के बावजूद कोरोना संक्रमण का खतरा उठाना उनके लिए संभव न होगा। लेकिन कमलनाथ और उनकी कांग्रेस की क्या मजबूरी है? विपक्षी दल के नेता और कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष होने के नाते वे जा सकते हैं। इंदौर के उन इलाकों में जाएं जहां लोग राशन के लिए लाइन लगा रहे हैं। महाराष्ट्र सीमा की बड़ी बिजयासन जाएं जहां प्रवासी मजदूर आ रहे हैं। बैतूल या छिंदवाड़ा की सड़कों पर उनकी पीड़ा सुनें, सहायता दें। किसने रोका है? उन तमाम कमियों को देखें, जिनके बारे में बिना मौके पर जाए वे अपने बयान में लिख रहे हैं। देखें क्या वाकई शिवराज सरकार ने प्रदेश को भगवान भरोसे, अपने हाल पर लावारिस छोड़ दिया है? अपनी संवेदनशीलता दिखाएं और शिवराज सरकार की असंवेदनशीलता उजागर करें। 
हमने शिवराज के 13 साल और मुख्यमंत्री कमलनाथ के 15 महीने का शासन देखा है। इसलिए आज शिवराज सरकार को आइना दिखा रहे कमलनाथ से एक सवाल बनता ही है। क्या मुख्यमंत्री रहते कमलनाथ किसी ओला पीड़ित किसान के खेत पर गए थे? किसी घटना, दुर्घटना में पीड़ित के परिजनों से मिलने उनके घर पहुंचे थे?  विपक्षी विधायक रहते हुए भी शिवराज हर ऐसे मौके पर मौजूद थे। अब वह अवसर और परीक्षा कमलनाथ के  लिए है। दूसरों को राह दिखाने से पहले वे खुद उस मार्ग पर चल कर दिखाएं। पहुंचें लॉकडाउन की मार झेल रहे लोगों के बीच। दूसरे को अपने घर बैठकर टार्च दिखाने के बजाए वे खुद मैदान में आएं। हो सकता है कि उनके इस तरह जनता के बीच जाने के बाद सरकार चलाने वालों का कोरोना खौफ भाग जाए और वे भी उनका अनुसरण करते दिखें। कमलनाथ याद रखें कि उनकी इस सदाशयता पर कोरोना पर्यटन का लेबल लगा कर उपहास नहीं उड़ाया जाएगा। स्वागत ही होगा।

अम्मा...


आज 25 साल हो गए। आज ही का दिन था, जब चटक गर्मी में डामर की पिघलती सड़क पर नंगे पैर अम्मा को लेकर हम सब अपने उस खेत की तरफ जा रहे थे, जहां अंतिम संस्कार होता है। 
अम्मा...हमारी यादों की अम्मा को बिछुड़े आज पूरे 25 साल हो गए। लॉकडाउन तो अभी कोरोना के कारण है। 1995 की उस 17 मई के आसपास हम सब... अम्मा के दुलारे अलग-अलग जगह लॉक ही थे। दीदी दिल्ली, मैं बिलासपुर, गुड्डू भोपाल, पिताजी और भैया के साथ अम्मा गांव में। अलगाव से जुड़ाव के रास्ते पर चलने वे निकली थीं। पिताजी का अपनी मिट्टी में लौटने का सुख, अपने बचपन और यौवन के साथियों के साथ गांव के विकास की ललक में अम्मा ने भी बच्चों की जगह अपने पति की सेवा को चुना था। उस दौर में वाशिंग मशीन से कपड़े धोने वाली अम्मा गांव जाकर हाथ से कपड़े फीचने लगीं। शहर में ट्यूबलाइट, सीलिंग फैन और कूलर का सुख भोगने वाली अम्मा गांव में लाइट की अनिश्चितता के बीच शाम होते ही लालटेन के कांच साफ करने लगीं। हाई शुगर पेशेंट होने के बाद भी अपना ध्यान रखने के बजाए गांव वालों और रिश्तेदारों के सुख में सुख देखने लगीं। इस सुख की आपाधापी में अम्मा की दवाई-गोलियां कहीं पीछे छूट गई। डायबिटीज का लेबल कितना बढ़ा, अनुभव करने के बाद भी वे बता न सकीं। बुंदेलखंड की पंगत में आलू, भात और लड्डू का आग्रह भी न ठुकरा पाई। 
शायद इस खुशी में कि दो-चार दिन बाद ही गांव से फिर शहर में बसना है। अपने परिवार के साथ उस घर में जिसकी गृहस्थी उन्होंने सजाई थी। लेकिन, होनी को कुछ और मंजूर था। अम्मा बस में बैठ झांसी के लिए निकलीं, जहां से बिलासपुर की ट्रेन पकड़नी थी। रास्ते में डायबिटीज कमाल दिखा गई। शायद घर जाने की खुशी में उन्होंने कुछ खाया न था। बेहोश हो गईं। आनन-फानन में डॉक्टर को दिखा झांसी मेडिकल कॉलेज में भर्ती कराई गईं। शाम को शुगर कंट्रोल हुई, होश आया तो भरोसा दिलाया आज की ट्रेन चूक गई। कल की पकड़ लेंगे। 
अगली सुबह जब भैया दवाई लेने गया। पिताजी डिस्चार्ज की पूछने। अम्मा के बिस्तर पर उनका भाई ही था...और वे चली गईं। ट्रेन पर दूसरे दिन भी उन्हें भरोसा न था। यह अम्मा की सरलता और सहजता ही थी कि उनकी अपनी संतानों के अलावा वे सब झांसी या गांव के आसपास मौजूद थे। जो उनके मायके के कुटुंबी थे या ससुराल के। बहू अर्चना भी पास ही अपने मायके ललितपुर में थी।
पास था तो सबसे छोटा बेटा भैया। गुड्डू ने शताब्दी पकड़ी। हमने रात की गाड़ी, क्योंकि बिलासपुर से और कोई साधन था ही नहीं। 
जेवरा गांव के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि किसी के भी घर रात और अगली सुबह चूल्हा नहीं जला। सब इकट्ठे हुए। शांत, शीतल, स्निग्घ आभा बिखेरती अम्मा को पल-दो पल ही देख पाए और चल दिए उन्हें विदा करने। 
अम्मा आज भी वैसी ही याद आती हैं। सभी को उनकी अपनी यादों की अम्मा। पिताजी की जीवन साथी, बच्चों की मां, भाई की भोली बहन, बाकी रिश्तेदारों की अपनी-अपनी यादों की अम्मा। हमारे बच्चों के लिए कौतुहल का विषय अम्मा। हमाई केसर, हमाई केसर कह कर उनके बचपन से लेकर अंत समय तक के किस्से सुनाने वाले भी अब अपने अपने समय पर चले गए। जब भी जाओ गांव की औरतें भी उन्हें याद करती हैं। रह गई हैं तो यादों की अम्मा। घर में, गांव में और मन में...अम्मा। 

(नोट-अम्मा की स्मृति में आज इतना ही... शेष जब लिखा जा सके)

Saturday, May 16, 2020

उपचुनाव से पहले भाजपा में चुनौती का दीपक



भाजपा प्रदेश नेतृत्व को हाटपिपल्या के पूर्व विधायक और पूर्व मंत्री दीपक जोशी को शुक्रवार के दिन प्रदेश कार्यालय तलब करना पड़ा। दीपक से उनके बयान को लेकर कैफियत मांगी गई, जिसमें उन्होंने कहा था कि “उनके पास सारे विकल्प खुले हुए हैं।” विकल्प अकेले दीपक के सामने ही नहीं हैं, विकल्प उन 22 विधानसभा क्षेत्रों में भी हैं, जहां से भाजपा के प्रत्याशियों को हरा कर विधायक और मंत्री बने कांग्रेस नेता सत्ताबदल की चौसर पर अपनी विधायकी दांव पर गंवाने के बाद एक बार फिर मैदान में होंगे। सत्ता बरकरार रखने के लिए भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने इन्हीं रणबांकुरों को बागी बनने से रोकने की है।

भाजपा प्रदेशाध्यक्ष विष्णुदत्त शर्मा और प्रदेश संगठन महामंत्री सुहास भगत के इस ऐलान के साथ कि सिंधिया खेमे के सभी पूर्व विधायक पार्टी प्रत्याशी होंगे और उन्हें जिताने के लिए कार्यकर्ताओं के साथ पार्टी के हारे हुए प्रत्याशियों को मेहनत करनी है, असंतोष खदबदाने लगा है। मंत्री और विधायक पद बलिदान कर भाजपा को सत्ता दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाले इन पूर्व विधायकों के इस त्याग का मोल चुकाना भाजपा की मजबूरी है। पार्टी कार्यकर्ता भी इसे महसूस करते हैं। सभी जानते हैं कि इन बलिदानियों को कमल निशान के साथ चुनाव में उतारना पार्टी के लिए अहसान उतारने जैसा पावन कार्य है। इस सबके बावजूद जिस तरह से कोरोना काल में भाजपा की मान्य परंपरा को दरकिनार कर वीडियो कान्फ्रेंसिंग के जरिए उनकी उम्मीदवारी का ऐलान किया गया उसे लेकर नाराजगी है।

नाराजगी का प्रथम मुखर स्वर पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा के संत नेता स्वर्गीय कैलाश जोशी के पुत्र दीपक जोशी के रुप में सामने आया। जोशी की पीड़ा है कि उन्हें उनके अपनों ने ही चक्रव्यूह में घेर का चुनाव हराया था। पराजय के बाद भी पूर्व मंत्री होने के बावजूद पार्टी कार्यक्रमों में उनकी उपेक्षा, तिरस्कार किया जाता रहा। ऐसे में जब उन्हें भाजपा में अपने खेलने के लिए कोई मैदान नहीं दिख रहा तो सामने से मिल रहे अच्छे मैदान के प्रस्ताव को कैसे नजरअंदाज करें। सियासत में पाला बदल का एक बड़ा कारण यही आत्मसम्मान है।

 मध्यप्रदेश ही नहीं कांग्रेस की राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में खासा मुकाम रखने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया को भी एक लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद उन्हीं सब परिस्थितियों का सामना कर दलबदल करना पड़ा, जिसे दीपक जैसे नेता झेल रहे हैं। जब सिंधिया का कदम जायज और स्वागतयोग्य है तो उनका क्यों अस्वीकार्य हो जाता है?

हाटपिपल्या में मनोज चौधरी को भाजपा का टिकट जो स्थितियां बना रहा है, कमोबेश वही परिस्थितियां ग्वालियर में प्रद्युम्न सिंह तोमर के सामने पूर्व मंत्री जयभान सिंह पवैया के कारण हो सकती हैं। गोहद में रणवीर सिंह जाटव को भी पूर्व मंत्री और भाजपा के अनुसूचित जाति वर्ग के नेता लाल सिंह आर्य को लेकर ऐसी समस्या हो सकती है। सांची में डॉ प्रभुराम चौधरी के आगे उनके सदाबहार प्रतिद्वंदी डॉ गौरीशंकर शेजवार और उनके पुत्र को लेकर भी वही चुनौती सामने आ सकती है। सुरखी में शिवराज सरकार में मंत्री बन चुके गोविंद सिंह राजपूत के चुनावी भाग्य का फैसला करने में इस जिले से भाजपा कोटे से बनने वाले मंत्री और पूर्व विधायक का योगदान होगा। यदि दोनों प्रमुख दावेदारों में से कोई भी मंत्री बनने से चूका को उनकी टीम राजपूत को विरोधी दल का मान कर उनकी जड़ों में मट्ठा डालने में जुट सकती है। ये दोनों मान भी गए तो बाकी दावेदारों के लिए भी यह अवसर बुरा नहीं होगा। प्रदेश की उपचुनाव वाली 24 विधानसभा सीटों में से 22 पर यह बगावत और भितरघात का यह वायरस मौजूद है। फर्क बस इतना है कि कहीं वह एक्टिव दिख रहा है तो कहीं उसे माकूल मौसम का इंतजार है। 

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और भाजपा प्रदेश नेतृत्व इस स्थिति से अनजान नहीं हैं, लेकिन उनकी मजबूरी है कि सत्ता सुख भोगना है तो इस वायरस का इलाज करना होगा। संक्रमण की गति को देखते हुए उसके मुकाबले की योजना बनानी होगी। किसी को दुलार-पुचकार कर तो किसी को पद-प्रतिष्ठा देकर और किसी को घुड़की या निष्कासन का भय दिखा कर बगावत की इस बीमारी का इलाज करना होगा। चुनाव करीब आने के पहले ही वीडी शर्मा और सुहास भगत ने घाव को कुरेद कर उसके उपचार की शुरुआत कर दी है। 

विश्लेषणइसी की प्रतिक्रिया में दीपक जोशी सामने आए और उन्हें मनाने का जतन भी तुरंत कर लिया गया। प्रदेश नेतृत्व से मुलाकात के बाद जोशी का बयान – “भाजपा में था, भाजपा में ही रहूंगा और क्षेत्र में भाजपा की ही जीत होगी।” बताता है कि आने वाले दिनों में कुछ और नेता इस तरह के बयान दीनदयाल परिसर में खड़े होकर देते दिख सकते हैं। उनके सीने में भाले की तरह धंसे सिंधिया समर्थकों को लेकर उनका और उनके कार्यकर्ताओं का क्या रुख होगा, असलियत चुनाव में ही दिखेगी। उनके सामने कांग्रेस का वैसा ही प्रलोभन होगा, जैसा कमलनाथ सरकार के तख्तापलट के समय निर्दलीय सहित अन्य दलों के विधायकों के सामने रहा होगा। अपने विजेता प्रत्याशी विरोधी दल के हाथों गंवा चुकी कांग्रेस के लिए किसी नए की तुलना में भाजपा के पराजित उम्मीदवार कई क्षेत्रों में ज्यादा असरदार साबित हो सकते हैं। आखिर वह भी तो अपनी सत्ता वापस पाने के लिए चुनाव मैदान में उतर रही है। इसलिए भाजपा के बागी की टीम के साथ कांग्रेस का गठजोड़ चुनाव को रोचक बना सकता है। मुकाबले के लिए भाजपा के पास भी सत्ता की चाशनी के साथ अपने कार्यकर्ता, सिंधिया गुट के नेताओं के समर्थक और खुद ज्योतिरादित्य सिंधिया का ग्लैमर होगा। फिर भी भाजपा की चिंता पुरानों को थाम कर रखने और संतुष्ट करने की है। चुनाव से पहले उन पराजित नेताओं को संगठन, निगम-मंडल में एडजस्ट किया जा सकता है, जो पार्टी लाइन को शिरोधार्य करें। इसके बावजूद अपनों के भितरघात का खतरा बना ही रहेगा। 24 जिलों में युवा अध्यक्ष देकर एक अलग तरह के असंतोष का खुद कारण बनने वाले भाजपा के नए नेतृत्व पर निर्भर करता है कि वह इन हालातों से कैसे निपटता है।

Sunday, May 10, 2020

ब्यूरोक्रेसी में कमलनाथ टॉनिक: शिवराज का दृष्टि दोष या नेत्र ज्योति प्रक्षालन!



- खांचों में बंटी आस्था वाली प्रशासनिक सर्जरी 

15 महीने की कमलनाथ सरकार ने वो कमाल किया, जो शिवराज सिंह चौहान की 13 साल की सरकार में नहीं हो सका था। इन कांग्रेसी पंद्रह महीनों में ऐसा क्या हुआ कि चौथी बार मुख्यमंत्री बने शिवराज सिंह चौहान की आंखों से मोतियाबिंद जैसा जाला हट गया और उन्हें ब्यूरोक्रेसी की हर परत दिखने लगी।

सियासतदानों के दृष्टि दोष और नेत्र ज्योति के बीच काफी फर्क होता है। आमतौर पर किसी करीबी, सलाहकार या सहयोगी का चश्मा उन पर चढ़ा होता है। इसी चश्मे से वे लोगों को देखते हैं। उनकी परख करते हैं। अच्छे-बुरे की समझ इसी चश्मे के लेंस से उन्हें नजर आती है। 
होता यह है कि सरकार बदलने के साथ लूप लाइन में रखे हुए कोई सीनियर ब्यूरोक्रेट नई सत्ता के "संजय" बन जाते हैं। उन्हीं की आंखों से सिंहासन पर आरुढ़ व्यक्ति अपनी प्रशासनिक व्यवस्था रचता है। पिछली सरकार के करीबी अफसर प्रमुख पदों अपदस्थ किए जाते हैं और नए बैठाए जाते हैं।

 दिसंबर 2018 में सत्तासीन होते ही कमलनाथ ने भी यही किया था। उनके संजय बने थे सुधि रंजन मोहंती, जो 15 साल की बीजेपी सरकार में निर्वासन जैसी स्थिति से कई बार दो-चार हुए थे। कमलनाथ ने मोहंती को अपना मुख्य सचिव बनाया और मंत्रालय से लेकर जिलों तक अफसरों का रंग देख कर उनकी पदस्थापना होने लगी। 

किसी के दुर्भाग्य तो किसी के सौभाग्य से 15 महीने में ही सत्ता बदल हो गया। वही शिवराज फिर  सिंहासन पर आसीन हो गए, जो इससे पहले 13 साल तक रहे थे। शिवराज ने आते ही सबसे पहले लूप लाइन से निकाल कर इकबाल सिंह बैंस को मुख्य सचिव बनाया। प्रशासन में छुटपुट बदलाव किए। बीती रात उन्होंने अपनी शैली से उलट एक झटके में 50 आईएएस अफसर इधर से उधर कर दिए। इस बदलाव की सबसे बड़ी विशेषता वही है, पिछली सरकार के विश्वस्त अफसरों को लूप लाइन में डालना।

 शिवराज की इस जमावट का पेंच यह है कि जिन अफसरों पर महज 15 महीने तक मंत्रालय के सुल्तान रहे कमलनाथ और मोहंती का खास होने का लेबल लगाया गया है, वे सभी 13 साल तक शिवराज की आंखों के भी तारे रहे हैं। सिर्फ    एम. गोपाल रेड्डी जैसे इक्का दुक्का अफसरों को छोड़ दें तो बाकी सभी के उत्कर्ष की कहानी शिवराज सरकार के कांधे पर सवार होकर ही लिखी गई है।

शिवराज सिंह और इकबाल सिंह बैंस को हमेशा खटकते रहे एम. गोपाल रेड्डी के सिर महज आठ दिन के चीफ सेक्रेटरी का ताज बिठाने के लिए उनके दोस्त मोहंती ने अपना कार्यकाल पूरा होने से पहले मुख्य सचिव पद छोड़ा था। बैंस के उन्हीं बैचमेट गोपाल रेड्डी को डेढ़ साल बाद वापस राजस्व मंडल भेजने का निर्णय लेने में सरकार को डेढ़ महीना लग गया। गोपाल रेड्डी जैसे अफसरों से यह व्यवहार तो समझ आता है, वे नापसंद थे और अभी भी हैं, लेकिन उनका क्या जो शिवराज की पसंद हुआ करते थे? उन्होंने ऐसा कौन सा कमलनाथ छाप टॉनिक पिया था, जिसके दाग छुप ही नहीं रहे।

 प्रमुख सचिव डॉ राजेश राजोरा, मनु श्रीवास्तव, पी. नरहरि जैसे अफसर पिछली सरकार में शिवराज सरकार की आंखों के तारे रहे थे। अब वही कांटा बन गए। अपर मुख्य सचिव आईसीपी केशरी, जे. एन. कंसोटिया, प्रमुख सचिव मलय श्रीवास्तव आदि अधिकारियों की लंबी फेहरिस्त है, जो दोनों सरकारों में काबिल माने गए। सबसे बड़ा उदाहरण प्रमुख सचिव अशोक बर्णवाल हैं। वे लंबे समय तक मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के प्रमुख सचिव रहे। कमलनाथ ने भी उन्हें इसी पद पर बनाए रखा। शिवराज फिर मुख्यमंत्री बने तो चीफ सेक्रेटरी बदलने के बाद पहला आदेश उन्हें ही मुख्यमंत्री कार्यालय से हटाने का हुआ था। 

कहा जा रहा है, यह प्रशासनिक फेरबदल चीफ सेक्रेटरी इकबाल सिंह बैंस का है। अफसरों की पोस्टिंग उनकी मर्जी से हुई। मेन स्ट्रीम में लौटे अफसर उनके समर्थक हैं। लूप लाइन में पटके गए अधिकारियों पर मोहंती का लेबल बताया जा रहा है। हकीकत में उन पर भी लेबल शिवराज ही है। बस नजर का फर्क हो गया है। कमलनाथ सरकार की नजर में चढ़ने का खामियाजा उन्हें शिवराज की नजर से उतरने के तौर पर झेलना पड़ रहा है। तो क्या अब अफसर भी किसी ज्योतिषी को अपनी कुंडली दिखा कर काम दिखाने या अकर्मण्यता ओढ़ने का फैसला करें। जिससे सरकार बदलने पर उनकी कर्मण्यता को किसी सियासी तराजू पर न तौला जाए।

Friday, January 24, 2020

लाट साहब!! गुस्सा जायज पर आप भी डकैतों का साथ देने वालों का सजदा छोड़ें

राजगढ़ में एक अशोभनीय बयान ने एलीट ब्यूरोक्रेसी की डिग्निटी को जगा दिया। आमतौर पर सोशल प्लेटफार्म पर गरिमामय आचरण वाले आईएएस अफसर इससे इतना आहत हुए कि 4dignity मुहिम छेड़  कर भरपूर मुखर हो गए। अनुभवी हों या जमीनी हकीकत से पहली बार  साबका वाले अथवा फील्ड पोस्टिंग की बाट जोह रहे नए अफसर, सभी खुल कर सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर गंदी सोच वाला बयान देने वाले नेता के खिलाफ उबल पड़े। लेकिन जरा सोचिए, जिनके सम्मान में इन्हें कुर्सी छोड़ कर खड़े होने का नियम और परंपरा है, उनके प्रति इनकी ये क्या भाषा है। क्या मसूरी की प्रशिक्षण अकादमी में यह भी सिखाया गया है।  
गुना कलेक्टर भास्कर लाक्षाकार ने सबसे तीखा और वाजिब रिएक्शन दिया है। युवा कलेक्टर ने फेसबुक पर लिखा है- "ये डकैत आपके (कलेक्टर) बारे में  न्यायाधीश बने फिरते हैं। जिसका जो मन आता है आप पर (आप यानी अफसर, कलेक्टर या एसपी ही नहीं छोटे साधारण कर्मचारी तक इसमें शामिल हैं) आरोप लगा कर हें-हें ठें-ठें कर निकल जाता है। ये उन लोगों के पक्ष में सीना ठोक कर झूठ बोलते हैं और आपको कोसते हैं, जिनकी दिनदहाड़े की डकैती और घपलेबाजियां सारा शहर जानता है।"
तन्वी हुड्डा हों, सोनिया मीणा या फिर  रघुराज राजेंद्रन सबको बयान पर इतना गुस्सा आ रहा है कि वो अपनी डिग्निटी के लिए भारतीय प्रशासनिक सेवा की डिग्निटी भूलने को बेकरार हैं। 
बढ़िया है बाबू जी! बाबू शब्द ब्यूरोक्रेसी के लिए दशकों से इस्तेमाल हो रहा है। सम्भवतः अंग्रेजों के समय से जब लगान इत्यादि राजस्व संग्रहण के लिए इस सर्विस का गठन हुआ था। गुस्सा आना भी चाहिए, लेकिन सिर्फ एक पक्ष पर? घटिया मानसिकता वाले बयान पर नाराजगी जायज है, लेकिन क्या मध्यप्रदेश में कोई ऐसा अफसर भी है, जिसने राज्य मंत्री पद पर रहते समय सामने पड़ने पर बद्रीलाल यादव को सलाम न ठोका हो? यदि है तो गुस्सा जायज है। साल भर पहले तक मुख्यमंत्री रहे शिवराज सिंह चौहान या मंत्री रहे उनकी पार्टी नेताओं की जी हजूरी न की हो? आपने अपनी डिग्निटी के लिए तमाम सियासी बिरादरी को डकैत और घपलेबाज का तमगा देकर उनकी डिग्निटी को चुनौती दी है। अब आप कैसे वर्तमान सत्ताधारी नेताओं के सम्मान में मुश्कें कस कर सजदा करेंगे? इनमें से कुछ अभी भी माफियामुक्त अभियान में किसी माफिया की पैरवी कर रहे होंगे। कोई किसी बेशकीमती जमीन को हथियाने दबाव डाल रहा होगा। किसी को रेत के अवैध खनन की वैधता बरकरार रखनी होगी। बहुतेरे काम अफसर नेताओं के इशारे अथवा दबाव/प्रभाव में करते हैं। 
आपकी ही बात को सच मानें तो नेता कोई भी हो वो वही सब कृत्य करता है, जो खामियां आपने गिनाई हैं। सत्ता तो आनी-जानी है। आज जो आसीन हैं, कल विपक्ष में रह कर ऐसे ही आपको गरिया रहे थे। कल फिर सत्ता से हटेंगे तब भी उनका वही व्यवहार नहीं होगा इसकी कोई गारंटी दे सकता है! "शुद्ध के लिए युद्ध" छेड़ना है तो कसम उठाएं कि नेताओं के कहने पर कोई नियम विरुद्ध कार्य नहीं करेंगे, न होने देंगे। डकैत हितैषी और डिग्निटी पर प्रश्नचिन्ह लगाने वाले किसी नेता का कुर्सी छोड़ कर स्वागत नहीं करेंगे।
 लोकतांत्रिक व्यवस्था की यही रीति है कि उसमें सभी तरह के लोग बिना किसी छन्ने के ऊपर तक पहुंच जाते हैं। आप लोगों ने एक तराजू पर सारे सियासी मेंढ़क तौलने का दुस्साहस दिखाया है। हो सकता है ये अभी इसे पचा जाएं, मौका मिलने पर भंजाएंगे जरूर। 
चर्चा-विमर्श कलेक्टर मैडम के परफॉर्मेंस पर भी किया जाना प्रासंगिक होगा। क्या आईएएस एसोसिएशन ने यह पड़ताल करने की आवश्यकता समझी कि एक कलेक्टर वो भी महिला को क्यों इस तरह भीड़ में प्रवेश कर मारपीट करनी पड़ी? जबकि पर्याप्त पुलिस बल और पुरुष अधिकारी उनके साथ थे। क्या जिले में कलेक्टरी का यह नया गुर लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी मसूरी में सिखाया जाने लगा है? यदि ऐसा है तो CAA के समर्थन और विरोध में देश भर में हो रहे प्रदर्शन के दौरान उन जिलों के कलेक्टर क्यों इस तरह पुलिस को परे रख खुद नहीं जूझे? 
कई रिटायर्ड और कलेक्टरी के अनुभवी इन सर्विस अफसर उनके इस बर्ताव से सहमत नहीं हैं। मंत्रालय में कलेक्टर निधि निवेदिता के इस रूप को लेकर चर्चाओं का दौर चल रहा है। एक सीनियर अफसर का तर्क है कि मैडम को खुद हाथ खोलने के बजाए पुलिस को हुक्म देना था। कलेक्टरी का मतलब भी यही है। जिलाधीश के पास कानून-व्यवस्था संभालने से लेकर पूरे जिले की व्यवस्थाओं के सुचारू संचालन के लिए असीमित अधिकार और अमला होता है। मीटिंग, मॉनिटरिंग और निर्देश देना, अमल कराना उसके रसूख को बढ़ाता है। तो क्या राजगढ़ की पुलिस या निचला अमला कलेक्टर की अनसुनी कर देता,जो वो खुद दुर्गा अवतारी भूमिका में आ गईं! 
भूतपूर्व मुख्य सचिव विजय सिंह के साथ काम कर चुके एक अफसर कलेक्टर के व्यवहार को बचकाना बताते हुए कहते हैं कि कई अफसर तमाचा मारने वाले रहे हैं। खुर्राट अफसर विजय सिंह ने भी उनके सामने जबलपुर की पोस्टिंग के दौरान हाथ साफ किए थे। एक किस्सा किसी आदिवासी ग्रामीण हाट का है, जहां कोई व्यापारी खुली दवाइयां बेचता था। सिंह साहब ने सिरदर्द की गोली मांगी तो देखा बक्से में एंटीबायोटिक्स भी है। चटाक से गाल बजा दिया। जूनियर ने पूछा पुलिस को दे देते मारा क्यों? जवाब मिला- अब जिंदगी भर वो ये गलती नहीं करेगा। पुलिस से छूट जाता तब भी दवाई ही बेचता।
दूसरा किस्सा ठस लोगों की धरती मुरैना का है। एक साहब की पोस्टिंग हुई तो लोगों ने सलाह दी थप्पड़बाजी करने वाले को ही वहां के लोग काबिल अफसर मानते हैं। साहब ने भी राह चलते एक गांववाले का गाल लाल कर दिया। साथ चल रहे सुरक्षा कर्मी ने समझाया, हम किस लिए हैं। आप निर्देश दीजिए पीटने का काम हमारा है। यदि पलट कर वो युवक मार देता तो क्या स्थिति बनती? 
पलट कर मारने का यही सवाल राजगढ़ में भी था। हजारों की भीड़ में यदि कोई कलेक्टर के साथ बदतमीजी कर देता तब..? पुलिस और उनके गार्ड क्या करते! फायर खोलते या भागते? दो-चार को यदि गोली या लाठीचार्ज से घातक हानि पहुंचती तब...। मंदसौर कांड नहीं दोहराया जाता। उस स्थिति में जो आज कलेक्टर का पक्ष ले रहे वे क्या कहते? ब्यूरोक्रेसी घटिया बयानबाजी की खूब निंदा करे, लेकिन अपने गिरेबान में भी झांक कर देखे। यह नेताओं के गलत निर्देश न माने तो डकैत और घपलेबाज रहेंगे ही कैसे?  यह अपनी डिग्निटी खुद मेंटेन करे तो किसी की हिम्मत नहीं होगी उन पर सवाल उठाने की। क्या हर बार राजनीतिक इशारे पर या किसी के खिलाफ मीडिया ट्रायल पर मुखर होने वाला आईएएस एसोसिएशन सालाना जलसे की तरह इन बिंदुओं पर भी चिंतन करेगा?

अशोक, तुम्हारे हत्यारे हम हैं...

अशोक से खरीदा गया वो आखिरी पेन आज हाथ में है, लेकिन उससे कुछ लिखने का मन नहीं है। अशोक... जिसे कोई शोक न हो। यही सोच कर नामकरण किया होगा उसक...