Saturday, April 30, 2016

सिंहस्थ: अपने-अपने कुंभ !



जमाना ऑनलाइन का है। सो, ऑनलाइन शापिंग कीजिए। ऑनलाइन दर्शन कीजिए। लेकिन, ऑनलाइन पवित्र क्षिप्रा में डुबकी तो नहीं लगा सकते ना ? घर बैठे अमृत तुल्य जल से आचमन और स्नान का फल नहीं ले सकतेबस इसीलिए कल-कारखाने से आगे बढ़ कर मोबाइल और इंटरनेट के इस युग में भी कुंभ का महत्व बरकरार है। और इसीलिए उज्जैन में हो रहे सिंहस्थ कुंभ में श्रद्धालुओं की कमी को लेकर सवाल उठ रहे हैं।

बारह साल में एक बार आने वाले इस आस्था के महापर्व को लेकर तर्क-वितर्क और विविध चर्चाओं के साथ प्रश्न खड़े हो रहे हैं। आखिर क्या कारण हैं कि पहले शाही स्नान में सरकार और मीडिया की अपेक्षा से काफी कम लोग उज्जैन पहुंचे। क्या नास्तिकता बढ़ गई है या फिर लोगों ने कठौती में गंगा....की तर्ज पर मोबाइल या लेपटॉप पर ही क्षिप्रा दर्शन कर शुभ मुहूर्त में स्नान का पुण्य लाभ ले लिया? किसी स्थान पर भीड़ बढ़ जाए तो कानून-व्यवस्था का प्रश्न बन जाता है, लेकिन कुंभ में भीड़ न जुटे तो कानून-व्यवस्था पर ही सवाल उठने लगते हैं। इसलिए वो प्रशासन और सरकार सवालों के घेरे में है, जिसने भक्तों के लिए तमाम सुविधाएं जोड़ने उज्जैन में साढ़े तीन हजार करोड़ रूपए से अधिक खर्च किए। नए पुल पुलिया बनाए, सड़कें चौड़ी कीं, कई किलोमीटर लंबे नए घाट बनाए और सबसे बड़ा काम किया सिंहस्थ में सुरक्षा को लेकर ऐसी चौकसी बरती कि....लोगों में दहशत भर गई। बेवजह भक्तों को कई किलोमीटर लंबे चक्कर लगवाए। थोड़ी-थोड़ी दूर पर बेरिकेड्स लगा कर उन्हें बाधा दौड़ का ऐसा प्रतिस्पर्धी बनाया कि जो उस लक्ष्य तक नहीं पहुंच सका जिसके लिए वह मध्यप्रदेश ही नहीं देश के दूसरे प्रदेशों से आया था। लोग उस पवित्र क्षिप्रा तक नहीं पहुंच पाए जिसकी पवित्रता बढ़ाने के लिए करोड़ों रूपए अलग से खर्च कर नर्मदा मैया का क्षिप्रा में मिलन कराया गया है।
भीड़ न जुटने के कई कारणों में एक कारण गर्मी को भी ठहराया जा रहा है। सिंहस्थ तो हर बार इसी मौसम में होता रहा है। जब सड़के चौड़ी नहीं थीं, घाट कम थे और पुल पुलिया भी नहीं थे तब भी लोग क्षिप्रा में श्रद्धा की डुबकी लगाने आते थे। अबकी बार जरूर कुछ अनूठा हो गया। खैर आयोजन को लेकर स्थायी निर्माण और उज्जैन को संवारने की सरकार की कोशिशों की दाद देनी होगी। सम्राट विक्रमादित्य की राजधानी रही अवंतिका नगरी का रूप निखार दिया गया। परन्तु सिंहस्थ की धार्मिकता की कसौटी पर वातानुकूलित कमरों में पॉवर प्वाइंट प्रजेंटेशन के जरिए योजनाएं बनाने वाले बड़े बाबू फेल हो गए। निर्माण, निर्माण और निर्माण की गूंज में इस आयोजन का मूल तत्व ही कहीं गुम हो गया। रही सही कसरहाईटेक होने की ललक ने पूरी कर दी। जिस देश के मोबाइल फोन उपयोगकर्ताओं में से तीन चौथाई से अधिक लोग केवल कॉल करना और रिसीव करना जानते होंउनके लिए सिंहस्थ का मोबाइल एपऑनलाइन पार्किग व्यवस्थावाई-फाई कनेक्टविटी जैसे इंतजाम....वाह!
साधु संतों को खुश करने उनके अखाड़ों में कई करोड़ खर्च कर स्थायी निर्माण तो किए गए, लेकिन मेला क्षेत्र में लगने वाले पंडाल और उसमें ठहरने वाले संत तथा उनके भक्तों के लिए बुनियादी आवश्यकता का साधन मुहैया कराने में तंत्र असफल रहा। सबसे ज्यादा अव्यवस्था का राग शौचालय और पानी को लेकर उठ रहा है। अब तक शौचालय बनाए जा रहे हैं, जब सिंहस्थ शुरू हुए दस दिन से ज्यादा हो चुके हैं। जो शौचालय बने उन्हें लेकर भी भांति-भांति की शिकायतें आ रही हैं। कहीं सीवेज तंबुओं में भर रहा है तो कहीं पानी की किल्लत है। संतों का पारा चढ़ाने वाला काम ये भी कि जिनको संतों की सेवा के लिए तैनात किया गया उन आला अफसरों ने शाही स्नान पर साधु संतों से पहले क्षिप्रा स्नान कर लिया। मानो उनके पाप इतने बढ़ गए थे कि बाद में नहाते तो उतर नहीं पाते। बवाल मचना था सो मचा। अब मुनादी करा दी गई है कि उज्जैन सभी भक्तों के लिए खुला है। बेरोकटोक पैदल जाओ, गाड़ी से जाओ। पूरे मेला क्षेत्र में कहीं भी घूमो। कोई पाबंदी नहीं....लेकिन एक बार तो पधारो सिंहस्थ....।  
सरकार को लोगों की सुध आई तो अब खालसों और महामंडलेश्वरों की उन शिकायतों को निपटाने के लिए लाइजिनिंग अधिकारी तैनात किए जा रहे हैं, जिनके लिए अखाड़े और खालसा तंबू की पहली बल्ली गाड़ने के दौरान से चिल्ला रहे थे। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर प्रभारी मंत्री भूपेंद्र सिंह जिनकी हर समस्या सुन रहे थे और निराकरण के निर्देश दे रहे थे, लेकिन अफसर कुछ का समाधान करते तो कई अधूरी छोड़ रहे थे। सिंहस्थ-2016 का एक स्थायी पहलू ये भी है कि मुख्यमंत्री और प्रभारी मंत्री मुस्तैद, अफसर मस्त मलंग।
कुंभ की अपनी परंपरा और मर्यादा है। इसमें न तो नागा साधु किसी के निमंत्रण की प्रतीक्षा करते हैं और न ही आस्थावान लोग। गांव-देहात, कस्बा-शहर, देश-प्रदेश ही नहीं विदेशों से भी लोग भक्ति भाव से इसमें खिंचे चले आते हैं। सबकी अपनी आस्था होती है सबके अपने उद्देश्य। शायद यही वजह है कि श्रद्धालुओं की आवश्यकताओं का ख्याल वो संत अपने तंबू में रखते हैं, जिनका ध्यान जनता जब तब करती रहती है। अखाड़ों में रोज भंडारे होते हैं। बिना जाति, प्रदेश पूछे रात्रि विश्राम के लिए जगह भक्तों को पंडाल में मिल जाती है। स्थानाभाव रहा तो धरती मां की गोद ही उनका बिछौना बनती है...मेला क्षेत्र में हर ओर भक्तों का सैलाब ही कुंभ का परिचायक है। लेकिन, उज्जैन का अबकी बार का सिंहस्थ अपने सनातन स्वरूप से भटका दिख रहा है तो इसका दोष व्यवस्थापकों पर है, जिन्होंने आस्था पर व्यवस्था का बोझ लाद दिया।
कुंभ की कथा बस यहीं तक सीमित नहीं है। साधु-संतो और श्रद्धालुओं के इस मेले में कुछ और अखाड़े आ गए हैं। सबसे ज्यादा चौंकाया है सरकारी और राजनीतिक अखाड़ों ने। सरकारी स्तर पर इस धार्मिक आयोजन को किसी सांस्कृतिक कार्यक्रम का रूप देने का प्रबंध किया गया है। एक तरफ अखाड़ों के पंडाल में यज्ञ, हवन, कथा और प्रवचन चल रहे हैं तो सरकारी तंत्र रोज अलग-अलग प्रांत और संस्कृतियों पर आधारित कार्यक्रम करा रहा है। वैचारिक महाकुंभ जैसे मेगा आयोजन भी होने हैं। राजनीतिक अखाड़ों ने तो अपने महान चुनावी लक्ष्य को भेदने के लिए समरसता स्नान और शबरी स्नान जैसे नए स्नान पर्व ही सृजित कर डाले। प्रचार किया जा रहा है कि राजनीतिक दल के प्रमुख दलितों के साथ स्नान करेंगे...उनके साथ ही भोजन ग्रहण करेंगे। कुंभ के इतिहास में कभी ऐसे आयोजनों का उल्लेख नहीं हुआ। उज्जैन ही नहीं, वरन प्रयागराज, हरिद्वार और नासिक कुंभ में भी कभी किसी ने बगल में स्नान करने वाले की न तो जात पूछी और न ही धर्म। कुंभ का मतलब ही है सभी का सामूहिक अमृतपान। उज्जैन में तो सबके अपने-अपने कुंभ दिख रहे हैं। भक्तों, संत, महात्माओं के अपने कुंभ। व्यापारियों और ठेकेदारों के अपने कुंभ। अफसरशाही का अपना अलग कुंभ तो नेताओं का अपना कुंभ।  
आस्था के इस महापर्व में जिसकी जैसी आस्था, जैसी लालसा वो वैसे आए हैं या आ रहे हैं। महाकालेश्वर की नगरी सबका स्वागत करने को तैयार है। पंचक्रोशी परिक्रमा में जब बच्चे, बूढ़े और महिला,पुरूषों का हुजूम तीखी धूप में 118 किलोमीटर की परिक्रमा लगाएगा, तब वे लोग कोई उम्मीद लेकर नहीं आएंगे कि उनके लिए मार्ग में क्या इंतजाम किए गए हैं। परिक्रमावासियों ने कभी कोई ऐसी मांग की भी नहीं। वो तो अपने सुख के लिए कच्चे पक्के रास्ते पर भरी धूप में पैदल चलने का कष्ट झेलते हैं। सरकार ने उनकी भी सुध ली, ये अच्छी बात है। ठीक इसीतरह सिंहस्थ को लेकर उज्जैन में कराए गए निर्माण कार्य भी साधुवाद के हकदार हैं। लेकिन आयोजकों को समझना होगा कि कुंभ तो भक्तों और संतों का है। कोई व्यवस्था न भी करें तब भी मेला लगेगा और भरपूर इंतजाम हो तब भी लोग जुटेंगे। वे अपने आध्यात्मिक सुख के लिए आते हैं। इसलिए उनकी नैसर्गिक जरूरतों को आम श्रद्धालु की नजर से देख कर पूरा किया जाए, न कि किसी सरकारी बांध या सड़क निर्माण की तर्ज पर।
एक बात यह भी कि प्रदेश सरकार हर बार अफसरों को दूसरी जगह लगने वाले कुंभ का जायजा लेने भेजती है। ताकि  व्यवस्था में सुधार किया जा सके। दूसरी जगहों पर किए गए नवाचार अपना कर जनता को और सहूलियत मुहैया कराई जाएं और अपनी पिछली खामियों को दुरूस्त किया जा सके। जैसी आवाजें आ रही हैं वो इशारा कर रही हैं कि क्या कुछ सीखा गया है, दूसरी जगहों से और पिछले सिंहस्थ से। नासिक का पिछला कुंभ भरी बरसात में हुआ था। वहां भी पंडाल लगा चुके पहाड़ी बाबा खालसा और लक्ष्मी नृसिंह मंदिर ललितपुर के महंत गंगादास जी महाराज याद करते हैं कि नासिक में कहीं कीचड़ या गंदगी का नामोनिशान नहीं था। इलाहाबाद कुंभ की व्यवस्थाओं की तो अखाड़ा परिषद के पदाधिकारी भी दुहाई देते नहीं थक रहे। हरिद्वार कुंभ भी गर्मी के बावजूद शीतलता का अहसास सबको कराता है। फिर सिंहस्थ को लेकर इतनी गर्मी क्यों विचार तो करना ही होगा!

Wednesday, April 27, 2016

चौबे जी में ‘सुर्खाब के पर’...!

                 
किसी चीज या व्यक्ति विशेष में कोई अनोखापन हो, विलक्षणता हो या फिर वह दूसरों से श्रेष्ठ हो तब कहा जाता है कि फलाने में क्या सुर्खाब के पर लगे हैं। लगता है, चार साल पहले रिटायर हो चुके मध्यप्रदेश के जल संसाधन विभाग के अफसर मदन गोपाल चौबे के लिए ही सुर्खाब के पर वाली कहावत रची गई होगी। शिवराज सिंह चौहान कैबिनेट ने चौबे को लगातार पांचवी बार विभागाध्यक्ष यानी इंजीनियर-इन-चीफ के पद पर संविदा नियुक्ति देने का फैसला लिया है। जब पूरी कैबिनेट ने यह निर्णय लिया है तो माना जाना चाहिए कि चौबे विलक्षण खूबियों के धनी हैं, विभाग के तीन हजार इंजीनियरों से वो श्रेष्ठ हैं, उनमें कोई खास अनोखापन है जिसकी मुरीद सरकार है।
चौबे को फिर संविदा नियुक्ति मिलने से विभाग का कुछ भला हो या न हो, लेकिन पदोन्नति की बाट जोह रहे इंजीनियरों के शीर्ष पद पर पहुंचने से पहले रिटायर होने वालों की कतार में और इजाफा हो जाएगा। विभाग के डेढ़ दर्जन से ज्यादा चीफ इंजीनियर उम्मीद लगाए बैठे थे कि अबकी बार तो उनमें से किसी को ईएनसी बनने का अवसर मिलेगा। सिर्फ मुख्य अभियंताओं की ही हसरतों पर पानी नहीं फिरा। संविदा नियुक्ति देने के सरकार के अपने नियमों को भी इस फैसले ने धता बता दिया है। इसी सरकार ने नियम बनाए थे कि किसी अफसर को रिटायरमेंट के बाद दो बार से ज्यादा संविदा पर नहीं रखा जाएगा। इसके बाद भी संविदा देनी है तो उसके बारे में छानबीन समिति की रिपोर्ट को माना जाएगा। ये और बात है कि चौबे का मामला छानबीन समिति में गया ही नहीं। कहा जाता है कि मदन गोपाल पर विभाग के मंत्री जयंत मलैया और अपर मुख्य सचिव राधेश्याम जुलानिया की विशेष कृपा है। तभी तो विभाग के इंजीनियरों के विरोध और मंत्रालय तक लगाई गई गुहार बेअसर रही और 29 फरवरी 2016 को चौबे की चौथी संविदा नियुक्ति की मियाद बीतने के बाद से ईएनसी का पद खाली रखा गया। इसको भरने के लिए डीपीसी करने जैसा दिखावा भी नहीं किया गया। और अब 27 अप्रैल को कैबिनेट ने निर्णय लिया है कि चौबे जी एक मार्च 2016 से अगले एक साल तक सिंचाई विभाग में गोपाल की तरह फिर पूजे जाएंगे।
खैर, चौबे को संविदा पर रखने के लिए जलसंसाधन विभाग के अपर मुख्य सचिव द्वारा कैबिनेट के समक्ष जो तर्क रखे गए वो काबिलेगौर हैं। इन तर्कों को माना जाए तो जलसंसाधन विभाग के 3000 इंजीनियरों में से किसी के पास भी वो तकनीकी योग्यता और नेतृत्व क्षमता नहीं है, जो चौबे जी के पास है। प्रदेश मे पड़ा सूखा और विभाग में चल रहे बड़े (वृहद) बांधों के काम चौबे की पांचवी संविदा नियुक्ति की भूमिका रचने में सहायक सिद्ध हुए । भूमिगत पाइपलाइन के जरिए खेत तक उच्च दाब से पानी पहुंचाने की विशेषज्ञता भी उनके अलावा किसी और इंजीनियर के पास नहीं होने की बात भी घुमा-फिरा कर साबित करने की कोशिश की गई। मंत्रियों के बीच भी उस प्रस्ताव को लेकर खासी चर्चा रही, जिसमें कहा गया है कि वर्तमान में विभाग के अभियंताओं के तकनीकी कौशल में विकास के लिए भरसक प्रयास किए जा रहे हैं। वृहद परियोजनाओं के बांध निर्माण और भूमिगत पाइपलाइन बिछा कर पूर्ण रूप से उच्च दाब पर खेत तक पानी पहुंचाने की व्यवस्था विभाग के सभी इंजीनियरों के लिए नया कार्य है और इसका किसी भी इंजीनियर को अनुभव नहीं है। ऐसे समय में विभागाध्यक्ष के पद पर मदन गोपाल चौबे को एक साल की संविदा नियुक्ति दी जाती है तो इंजीनियरों को कुशल तकनीकी और प्रशासनिक नेतृत्व उपलब्ध हो सकेगा। उनका कौशल विकास करना आसान होगा
अब सवाल ये उठता है कि जिस विभाग के अफसरों को उस काम का अनुभव नहीं है जिसके लिए उन्हें नौकरी दी गई है तो उन्हें बीस-पच्चीस साल से वेतन देकर क्यों झेला जा रहा है? वे इतने अयोग्य हैं कि अभी तक वह  योग्यता हासिल नहीं कर पाए, जिसकी जरूरत उनके काम में होती है तो ऐसे इंजीनियरों को भर्ती ही क्यों किया गया? उनकी क्षमता विकास के काम क्यों नहीं किए गए? उन्हें सहायक यंत्री से मुख्य अभियंता के पद तक पदोन्नत क्यों किया गया?  क्या चौबे के ईएनसी बनने से पहले जलसंसाधन विभाग बड़े बांध नहीं बना रहा था? या फिर बाणसागर परियोजना जैसे बड़े बांध क्या अयोग्य इंजीनियरों ने बना डाले थे? या फिर चौबे जी सर्वगुणसंपन्न होने के साथ ही सर्वव्यापी भी हैं। जो वे हरेक बांध, प्रत्येक नहर, सभी भूमिगत पाइपलाइन के मुहाने पर एक साथ मौजूद रह कर अपनी देखरेख में जलसंसाधन विभाग के काम करा रहे हैं। अरे भईया, विभाग प्रमुख तो महीने के तीस दिन में से ज्यादातर समय ऑफिस में मौजूद रहता है, मीटिंग-मीटिंग खेलता है और दूसरे के काम का श्रेय लेता है। यही परंपरा है विभाग प्रमुख पद की। यानी काम उन निचले स्तर के इंजीनियरों का जो गर्मी, सर्दी और बरसात में फील्ड पर काम कराएं और फिर भी अकुशल ठहराए जाएं..!
 दूसरे नजरिये से देखें तो चौबे ने कम से कम पैतीस-चालीस साल पहले इंजीनियरिंग की पढ़ाई की होगी। उनके इंजीनियर बनने के बाद क्या प्रदेश और देश के तकनीकी कॉलेजों ने कुशल इंजीनियर तैयार करना ही छोड़ दिया है? जो विभाग में योग्यता, तकनीकी क्षमता और नेतृत्व की काबिलियत का अकाल पड़ा हुआ है। ऐसे तमाम सवालों की फेहरिस्त तो किसी नहर की तरह लंबी हो सकती है, लेकिन जवाब कोई देगा नहीं। सरकार के एक इस फैसले ने विभाग के इंजीनियरों के अरमानों पर पानी जरूर फेर दिया है। विभागीय ट्री फार्मेशन का टॉप तो किसी और के लिए रिजर्व है तो नीचे के अफसरों के अवसर प्रभावित होगें ही। इसीलिए बीते चार साल में कई इंजीनियर प्रमोशन के इंतजार में रिटायर हो गए तो अब फिर कुछ और अधिवार्षिकी आयु पूरी कर घर बैठ जाएंगे और बाकी बचे लोग मदन गोपाल का जयकारा लगा कर अपनी नौकरी बजाएंगे।     


अशोक, तुम्हारे हत्यारे हम हैं...

अशोक से खरीदा गया वो आखिरी पेन आज हाथ में है, लेकिन उससे कुछ लिखने का मन नहीं है। अशोक... जिसे कोई शोक न हो। यही सोच कर नामकरण किया होगा उसक...