Friday, April 17, 2015

काली ओ काली...

काली, जी हां! यही नाम था उसका। कभी वह अपने नाम के अनुरूप ही कोयले की तरह काली थी...लेकिन उसके ऊपर झलकती सफेदी चुगली करने लगी थी कि अब वह काली नहीं रही....अब वो बूढ़ी हो गई है...और अचानक एक दिन काली गायब! उसका कोई पता ठिकाना नहीं मिला...आज तक कोई सुराग नहीं दिया काली ने...

काली की आज याद आने का एक कारण उज्जैन में होने वाला सिंहस्थ भी है...2004 सिंहस्थ के पहले शाही स्नान के दिन 13 अप्रेल को ही तो वह चार माह बाद घर लौटी थी...काली से नाराज होकर हमारे घर के ही कुछ सदस्य उसे कार में बिठा कर ले गए और 35-40 किमी दूर एक गांव में छोड़ आए थे। इधर कुंभ में नम: शिवाय करते हुए डुबकी लगा कर निकले और उधर घर से फोन आया कि काली आ गई है....पिताजी का हुक्म हुआ आ गई तो स्वागत करो...खोल दो गेट। काली ने आमद की सूचना कॉलबेल बजा कर नहीं दी थी...वह कॉलबेल बजा भी नहीं सकती थी। उसने लोहे के बड़े गेट को झिंझोड़ कर वो कोहराम मचाया था कि घर पर जो लोग मौजूद थे उनका भी कलेजा मुंह को आ गया था। ये तो उसके आमद की सूचना देने का तरीका था। वर्ना हमारे घर का गेट उसे कभी रोक नहीं पाया। गेट की डिजाइनदार जाली में बने सूराख के अनुपात में अपने शरीर को सिकोड़ कर..नया आकार देकर वह बेखटेक प्रवेश किया करती थी...इस सूराख में बांधे गए लोहे के तार भी वह अपने दांतों से पता नहीं कैसे कतर डालती...ये रहस्य आज तक नहीं समझ पाया कि काली आखिर ऐसा कर कैसे लेती थी। जब वो मिली तो इतनी शिकायतें अपनी जुबान में कर डालीं कि ऐसा लगा यदि वो हमारी भाषा में बोल पाती तो सबके गुनाह गिनाकर सभी को सजा दिलवाती...पर वो आई...उसने सबसे लिपट कर खुशी जताई और कालापानी देने वालों को भी माफ कर दिया। ये और बात है कि हमारे बागीचे से फूल चोरी करने वालों को वो कभी माफ नहीं कर पाई।
काली आखिर 'काली' क्यों थी...? एक शाम घर के दरवाजे पर बैठे दादाजी अपने चलना सीख रहे पोते-पोतियों को खिला रहे थे कि एक नन्हीं सी काली को बच्चों के पास धकेल कर काली की ही तरह काली उसकी मां न जाने कहां से आई और न जाने कहां गायब हो गई। बच्चों को खिलौना मिल गया और काली को नाम के साथ ठौर। वो कब पालतू हो गई पता ही नहीं चला...बीच-बीच में उसकी मां आती उसे दुलारती सहलाती और गायब हो जाती। काली जब खुद मां बनने वाली थी तब उसकी मां लगातार हमारे बागीचे में दिखने लगी और जब काली के नन्हें नन्हें चार बच्चे हुए, उनके साथ काली की मां भी खेलती...लेकिन जैसे आती थी वैसे ही चली जाती...पूरा कुनबा पीछे छोड़ कर। दिन बीते साल बीते काली के बच्चे बंटते रहे..मरते रहे...काली जस की तस घर पर मौजूद रही। टेलीविजन पर चलते प्रोग्राम देखती...कोई न हो तो सोफे पर बैठती और जब सब सामने हों दुलार पाने के लिए पैरों के पास लोटती काली...आदत बन गई। ऐसी आदत कि घर में कभी सेंट्रल ल़ॉक भी लगवाना है इस बारे में सोचने की जहमत नहीं उठानी पड़ी। घर से बाहर जाना हो तो काली को गेट के भीतर करो और बेखटेक घंटों घूम आओ। न कभी ज्यादा भोजन की चाह और न कभी सामने रखी थाली में मुंह मारने की ललक। काली पता नहीं कैसे इतनी समझदार थी कि उसे श्वान कहने से पहले सोचना पड़ता था। एक और मौका ऐसा आया कि किसी घर के सदस्य ने उसे डंडा मार भगा दिया। बस वो दिन था कि काली आधा किमी दूर के एक और घर के सामने की वासी हो गई। उसे मना कर लाने की तमाम कोशिशें बेकार। वो मानी तब जब घर के मुखिया ने जाकर फटकार लगाई और वापस आने को कहा। सच में कुत्ते भी इतने स्वाभिमानी हो सकते हैं? जब इंसान का स्वाभिमान न बचा हो। खैर काली तो काली थी...सफेदी बढ़ने के साथ उसकी भूख भी बढ़ गई। अब वो अपने उन्हीं बच्चों के हिस्से की रोटी छीन कर खा जाती थी...कभी जिनके लिए अपनी रोटी बचा कर रखती थी...बीमार हो तो बिना नखरे इंजेक्शन लगवाने वाली काली बुढ़ापे में बाहर कम और घर के भीतर अधिक रहना चाहती थी...कूलर की हवा...बैठने के लिए आसन...नर्म रोटी...उसकी फरमाईशें बताई नहीं जाती थीं...जतलाई जातीं थीं। घर आने वाले मेहमानों के बीच चर्चा का विषय हो गई थी वह। एक देशी नस्ल के सड़क छाप कुत्ते पर घर के हर सदस्य के पास कहने के लिए हमेशा कुछ न कुछ नया रहता था। आज अगले साल होने वाले सिंहस्थ को लेकर कार्यक्मों का सिलसिला शुरू हो रहा है...और शाही स्नान के दिन घर वापसी करने वाली काली फिर याद आ गई....सिंहस्थ नहाने जाना है...काली नहीं है ना..इसलिए घर पर सेंट्रल लॉकिंग सिस्टम भी लगवाना है...ये खर्चा भी काली की देन है....उसके रहते जो चैन की नींद आती थी वह उसके जाने के बाद कई रातों तक नहीं आई....कोई खटका हो तो उसका भी दोष काली के सिर..."कहां मर गई"...वो रहती थी तो भरोसा रहता था। इतने भरोसे की काली...अपनी उम्र पूरी कर चुकी काली...एक दिन बिना कुछ संकेत दिए कहीं चली गई। खोज की गई...इंतजार किया गया...उसको नहीं आना था सो वह नहीं आई, कहीं दिखी भी नहीं....पिताजी ने कहा यही प्रकृति का नियम है। जानवरों को मौत का पूर्वाभास हो जाता है। मौत आने पर वे आबादी से दूर चले जाते हैं। वह भी दूर चली गई, इतनी दूर कि अब मेहमान उसके बारे में पूछते हैं तो काली को याद करना पड़ता है। सिंहस्थ की हलचल में वह याद आती है....काली..ओ..काली... अनुसुनी होते-होते, रात घिरते ही घर के बाहर गूंजने वाली ये आवाज भी अब बंद हो गई है।

7 comments:

TazaMasala said...

Thanks alot

RepublicSense.com said...

Adbhut..Kali ki mahima aur aapke lekhan ka chamatkar..Ma Saraswati aapke lekhan par aisi hi kripa banaye rakhen..aisi kamna hai..chunki mere ghar me bhi pichhle 1.5 saalon se ek shwan hai atah unki duniya tatha samajh ke baare me dheere dheere parichit ho raha hun..par kali to kali hi thi..one and only..

TazaMasala said...

Thanx Ranjanji

Unknown said...
This comment has been removed by the author.
Unknown said...

Bahut kuch mere pyare wafadaar sheru se bhi tallukh rakhti hai ye kahani "kaali o kaali" aaj phir yaad taaza ho gayi sheru ki..... adhbhut shabad kosh hai aapke pass BOSS....
Bahut Shandaar BOSS....
:)

Unknown said...

काकी : एक अमृतधारा
Har ek ke ghar ki anduruni kahani ko kya khubsoorti se piroya hai ....
kai purani yaade taaza ho gayi BOSS ...Shukriya..
Aaj phir kuch ghar ke purane album's aur video's dekhne ka mann kar raha hai...
Adhbhut kamal ki lekhni....

Dr.Tanima Dutta said...

न जाने कितने अगिनित लोगों की दास्ताँ हैं ये जो आपने इतनी खूबसूरती से बयां की हैं. काली जहाँ भी हैं अच्छी हैं.

अशोक, तुम्हारे हत्यारे हम हैं...

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