Monday, April 20, 2015

काकी : एक अमृतधारा

क्वांर करेला, कातिक मही...चैते गुड़, बैसाखे तेल....। कल ही की तो बात है। मुनमुन रात में दही खा रही थी। पिताजी ने टोका बेगुन भोजन नहीं करते। इसके साथ ही "काकी" से अपने बचपन में कई बार सुना हुआ ये कवित्त उन्होंने सुनाया...

चैते गुड, वैसाखे तेल,
जेठे केंथ, अषाडै बेल;
साउन साग, भादौं दही,
क्वांर करेला, कातिक मही;
अगहन जीरा, पूसै धना,
माघै मिसरी, फागुन चना;
जो यह बारह देई बचाय,
ता घर वैद कभऊं नइं जाए!!
बच्चों के लिए ये कोई ओल्ड एज 'रैपर' था। यो यो हनी सिंह और मीका सिंह के फॉलोअर्स के लिए ये किसी और दुनिया का गीत था। आश्चर्य से आंखें फाड़ पिताजी को देख रही मुनमुन शायद यही बोलना चाहती थी।  
खैर बात काकी की....काकी यानी पिताजी की चाची मां। सिंगारदान कहें या मसालदानी की तरह गुणवान। अक्षर ज्ञान में जीरो, क्योंकि उनके जमाने में लड़कियों के स्कूल जाने का चलन नहीं था। पर ज्ञान में उन पर कोई इक्कीस तो क्या... बीस भी नहीं पड़ा। काकी हमारे लिए सदैव कौतूहल का विषय रहीं....नेत्रज्योति जाने के बाद भी जैसे दीवार पर टंगी घड़ी उनसे ही पूछ कर समय बताती थी। दिन हो या रात....काकी ने कहा इतने बजे होंगे तो उतने ही बजे की सुईयां दिखतीं....पांच- दस मिनट का हेरफेर हो जाए, लेकिन घंटे की सुई तो मानो उनकी गुलाम ही थी।बचपने में जब गांव जाते... गर्मियों की रात में आसमान के तारे देख टाइम बताना भी हमारे लिए अबूझ पहेली था, लेकिन काकी के लिए तो ये सब सहज ज्ञान... सामान्य सी रोज की दिनचर्या का हिस्सा।
दुबली पतली इकहरी काकी खाने में पथ्य अपथ्य को लेकर जो छंद और कवित्त सुनातीं उन पर अमल भी खूब करतीं थीं...क्या खाना है, कैसे खाना है और कब खाना है। ये उनको देख कर सीखा जा सकता था। रसोई गैस के चूल्हे की रोटी पेट के लिए अच्छी नहीं सो शहर मे चूल्हे की भरपाई कोयले की सिगड़ी पर मिट्टी का तवा लगा कर कराती थीं। टीकमगढ़ के किले में राजपरिवार की राजकुमारियों के साथ पली बढ़ी काकी का राजसी लहंगा आज भी उनके सुनहरे दिनों की आभा बयां करता है। लेकिन मिट्टी से उनका लगाव भी ऐसा था कि लोहिया तवे की जगह माटी का तवा....कढ़ी बनाने के लिए माटी की हांडी और सब्जी छौेकने माटी की कढ़ाई ....इससे पकी उनकी रसोई का स्वाद ही अलग था...यही वजह रही कि मंदिर मे भोग के लिए भोजन उनकी रसोई से ही जाता था। और हां, नेत्रज्योति जाने के बाद भी हमने उन्हें रोटी सेंकते देखा है...वो सब्जी काटना, भाजी को साफ करना ही नहीं...चावल से कंकड़ बीनने का काम भी अपने मन की आंखों से इतनी बखूबी कर लेती थीं कि कोई एक कंकड़ भी खोज कर नहीं निकाल सकता था..उनके हाथों साफ हुए चावल में से। ऐसी थी हमारी काकी....यादें इतनी हैं कि लिखना और कहना मुश्किल। हवा के चलने और उसकी गंध से पानी बरसने का दिन और समय भी भला बता सकता है कोई ! काकी के लिए यह भी सामान्य ज्ञान था। पानी किस दिशा से आएगा...आज आएगा या दो दिन बाद। कितने दिन तक गिरेगा।
 काकी की पाककला हो या किसी काम को करने का हुनर...बेजोड़ था।उनके पास एक ऐसी संदूकची भी थी जिसमें कई मर्ज की दवा कैद रहती थी। घर परिवार या गांव का कोई बीमार पड़े तो काकी की संदूकची से ही आराम पाता था। काकी तो नहीं रहीं पर उनकी यह संदूकची आज भी गांव के हमारे घर के किसी कोने में विराजमान है...शायद अलमारी में या ताक में। अमृतधारा पर तो जैसे काकी का पेटेंट ही था। काग लगी छोटी सी शीशी में बिसलरी की तरह साफ इस लिक्विड की डिमांड भी खूब रहती थी। अजवाइन का सत, पिपरमेंट और कपूर की समान मात्रा को बोतल में भर कर तैयार इस दवा के आगे झंडू बाम और अमृतांजन भी फेल थे। सिर दर्द, पेट दर्द, बिच्छू या किसी कीड़े के काटने पर, उल्टी दस्त से लेकर हैजा तक का प्राथमिक या पूर्ण उपचार थी ये अमृतधारा ( बाबा रामदेव के पतंजलि के प्रोडक्ट्स लिस्ट में भी ये शामिल है)। ये नुस्खा याद इसलिए है कि बिलासपुर आने के बाद एक बार उन्होंने अमृतधारा मुझसे ही बनवाई थी और अजवाइन का सत परचून के साथ जड़ी-बूटी बेचने वाली शहर की नामी अमरनाथ की दुकान पर पहली बार देखा था। सारा सामान जोड़ कर भी आश्चर्य होता था कि बिना पानी मिलाए ये लिक्विड कैसे बनेगा? पर, शीशी ने धूप की गर्मी देखी या काकी का जादू जो सब पिघल कर बन गया अमृतधारा...
 काकी की खूबियां क्या गिनाएं। सैकड़ों बीमारी के नुस्खे उन्हें मुंहजुबानी याद थे। पेट में मरोड़ हो तो भुनी अजवाईन चबा लो...तलवे में जलन तो नाखून पर चूना लगा लो...पता नहीं क्या सिस्टम था...पर असर तो होता था। नफासत से रहना। नफासत से भोजन ( खाना कहने पर प्रतिबंध था) पकाना वह भी मौसम के अनुसार। लेकिन काकी का जादू केवल घड़ी या चूल्हे पर ही नहीं चलता था। किस्से कहानियों से जीवन जीने के तरीके सिखाने वाली काकी पर पंचांग भी मेहरबान था। आज कौन सा दिन है....प्रदोष किस दिन आएगा.... होली या दीवाली कब की है...ऐसे सभी तीज-त्योहार कब आएंगे ये पहले वो बतातीं फिर पंचांग या कैलेंडर से दिखवा कर अपनी जानकारी को क्रासचेक करतीं। अधिमास आएगा या दिन छोटे अथवा बड़े होने लगे। सब काकी को ज्ञात था, वो भी स्कूल जाए बिना। यादों के किस्से सुनाते हुए उन्होंने हमें ये कभी नहीं बताया कि भैया यानि उनके इकलौते बेटे और हमारे पिताजी को पढ़ाने के लिए वे दिन भर स्कूल के बाहर भी बैठी हैं। रात में भैया के पढ़ने के दौरान उनके साथ सारी सारी रात लालटेन और चिमनी रोशन करती रही हैं...क्योंकि तब रौशनी के साधन यही थे।  राजघराने से लेकर गांव और गांव से शहर के सफर में काकी ने हम बच्चों को भी वैसे ही पढ़ाने की कोशिश की थी। बुढ़ापे में वो हमारे साथ अ, आ, इ, ई... लिखना सीखतीं और हम हंसते कि दादी आप पढ़ी लिखी नहीं हो...पर क्या पता था कि काकी ने जो पढ़ाई की थी वह चार-चार डिग्रियां हासिल करने के बावजूद आज तक हम नहीं कर पाए...किस्से कहानी में बताए गए जीवन के नुस्खे याद नहीं रख पाए...और तो और उनका सिखाया ये कवित्त भी याद नहीं रख सके कि...क्वांर करेला...कातिक मही...। अलमारी में भुला दी गई... सालों से बंद पड़ी काकी की संदूकची की तरह ही उनकी सीख और नुस्खों को भी हम भुला बैठे। आज महसूस हो रहा है कि काकी कितनी गुणी थीं और हम मुफ्त मिलते उनके गुणों की कदर नहीं कर पाए। काकी के जाने के साथ ही हमारे घर से दादी का वो खजाना भी चला गया....वो विरासत...वो अमृतधारा चली गई....जो उन्हें उनकी दादी से मिली थी।


4 comments:

Unknown said...

I wish I could have meet her now...bachpan ka kuch yaad nhi...par thanku itna aacha likhne k liye

Unknown said...
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RepublicSense.com said...

Apne kaki ko apni lekhni se ek baar phir jeevant kar diya. Rich tributes to her.

chitrayamini said...

पुराने समय के लोग वाकई गुणों की खान थे सर, उनके पास अर्जित अनुभव का ज्ञान था और हमारे पास किताबी ज्ञान है... इस लेख ने मुझे भी मेरी अम्मा की याद दिला दी।

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