प्रदेश के प्रशासनिक मुखिया बसंत प्रताप सिंह से लेकर राजस्व महकमे के छोटे और बड़े अफसर आजकल राजस्व मामलों की पेंडेंसी दूर करने में जुटे हुए हैं। आलम यह है कि मुख्य सचिव को भी जिलों में लंबित मामलों को निपटाने के निर्देश देने के लिए मंत्रालय के बाहर निकल कर संभागीय बैठकें लेनी पड़ रही हैं। सवाल यह है कि बंटवारे और नामांतरण के मामले निपटाने की इतनी हड़बड़ी क्यों है? कहीं राजस्व संबंधी मामले पेंडिंग मिलने पर कलेक्टरों को उल्टा टांगने की मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की गर्जना तो इसका कारण नहीं? यदि ऐसा है तो क्या वाकई इतने छोटे मामलों में इस बार अफसर नपेंगे? या फिर केंद्र सरकार की तर्ज पर काम न करने वालों को अनिवार्य सेवानिवृत्त देने की धमकी ने उत्प्रेरक की भूमिका अदा की।
रेवेन्यू से जुड़े मामलों में अचानक परवान चढ़ी सक्रियता की वजह भरपूर सहायता और सुविधाओं के दावे के बीच अचानक उपजा किसान आंदोलन है। इसकी आंच झेल चुकी सरकार ने किसान और गांव वालों को खुश करने के जो उपाय तलाशे हैं उनमें एक उपाय राजस्व संबंधी मामलों का निराकरण भी है। लेकिन यह सक्रियता प्रदेश सरकार, उसके कामकाज के तरीके और पूरी अफसरशाही को कटघरें में खड़ा करती है। यदि मुख्यमंत्री धमकी नहीं देते तो क्या हजारों-लाखों बंटवारे और नामांतरण के अविवादित मामले और कई साल तक लटके रहते? क्या कलेक्टर, अनुविभागीय अधिकारी, तहसीलदार और नायब तहसीलदार अपने कार्यक्षेत्र के ऐसे मामलों की सुनवाई नहीं कर रहे थे, या फिर उनकी रूचि इन प्रकरणों में नहीं है, अथवा सरकार के दीगर कामों के बीच उन्हें इनके लिए समय ही नहीं मिल रहा? क्या हर मंगलवार को सभी दफ्तरों में होने वाली जनसुनवाई महज रस्मी हो गई है, जिनमें किसान और आम आदमी अपने इन्हीं प्रकरणों के निराकरण नहीं होने की शिकायत लेकर आता है। मुख्यमंत्री के जनशिकायत निवारण के फोरम समाधान ऑनलाइन और सीएम हेल्पलाइन भी इसके लिए कारगर साबित नहीं हो रहे! और तो और हर महीने मुख्य सचिव द्वारा की जाने वाली ‘परख’ वीडियो कान्फ्रेंस एवं इसके इतर होने वाली जिलों की समीक्षाएं भी बेकार साबित हो रही हैं।
आम जनता के दुःख दर्द दूर करने और सुशासन देने के तमाम उपायों के बावजूद मुख्यमंत्री को भारतीय जनता पार्टी के कार्यक्रम में राजस्व कोर्ट के लंबित मामलों को लेकर कलेक्टरों को उल्टा टांगने की बात कहने की जरूरत अगर पड़ी है तो साफ है पूरे सिस्टम में कम-से-कम इस मामले में तो खोट है। ऐसा नहीं होता तो मुख्य सचिव को क्यों सिर्फ राजस्व प्रकरणों को लेकर संभाग-संभाग भटकना पड़ता। नहीं तो, बड़े-बड़े मामलों पर ‘वीसी’ मंत्रालय के आरामदेह वीडियो कान्फ्रेंसिंग कक्ष से ही कर ली जाती है। चीफ सेक्रेटरी संभागों के लिए निकले भी तब जब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने उन्हें इसके निर्देश दिए, अन्यथा निजाम जैसा चलता है वैसा ही चलता रहता (खुद मुख्यमंत्री ने एक से अधिक मौकों पर मुख्य सचिव को संभागों में जाकर राजस्व मामलों पर बैठक करने के निर्देश देने की जानकारी दी है)। मुख्यमंत्री को इसके बाद भी भरोसा नहीं था, इसीलिये विभाग में प्रमुख सचिव और सचिव होने के बावजूद अपने सचिव हरिरंजन राव को दूसरे राजस्व सचिव की भी जिम्मेदारी देकर ब्यूरोक्रेसी को चौंका दिया। पार्टी बैठक के बाद मुख्यमंत्री ने अपनी पहली रेडियो वार्ता ‘दिल से’ में तीन माह बाद अविवादित नामांतरण और बंटवारे का प्रकरण बताने वालों को ईनाम देने की घोषणा भी कर दी। यानी सीएम के रडार पर अब राजस्व कोर्ट के मामले प्रमुखता से हैं।
लेकिन सवाल फिर वही है कि प्रशासनिक अफसरों को क्यों बार-बार उनके काम की याद मुख्यमंत्री को दिलानी पड़ती है। यदि चीफ मिनिस्टर न बोलें तो प्रशासन अपना काम नहीं करेगा? सीएम के इन निर्देशों से यही इंगित होता है। लगातार सत्ता के 14 साल पूरे कर रहे बीजेपी राज पर आरोप भी यही लगते हैं कि सरकार अफसर चला रहे हैं। इस आवरण को तोड़ने का जतन गाहे-बगाहे मुख्यमंत्री ऐसी सख्ती दिखा कर करते हैं। फिलहाल तीन माह की डेडलाइन बीतने के बाद ही पता चलेगा कि असलियत क्या है, लेकिन इस बीच राजस्व विभाग के अफसर दावा कर रहे हैं कि तीन माह में पुरानी पेंडेंसी खत्म कर दी जाएगी। यह और बात है कि जिलों में तैनात अफसरों में उल्टा टांगने वाले बयान को लेकर प्रतिक्रिया अच्छी नहीं है।
समाधान में मिलेगी सजा !
मुख्यमंत्री ने समाधान ऑनलाइन में अब जनशिकायतों के साथ ही लोकसेवा गारंटी और सीएम हेल्पलाइन के प्रकरणों संबंधी शिकायतें सुनने का भी फैसला किया है। अफसरों में राजस्व संबंधी मामलों को हड़बड़ी में निपटाने की एक वजह यह भी है। समाधान ऑनलाइन वो फोरम है जहां वीडियो कान्फ्रेंसिंग में शिकायतकर्ता की मौजूदगी में काम न करने वाले अफसरों को सफाई पेश करनी होती है। इस समीक्षा में अब तक एक आईएएस, एक आईएफएस समेत दर्जनों अफसरों को निलंबन की सजा मिल चुकी है।
मंत्री भी तो नहीं सुनते....
मुख्यमंत्री के निर्देश अफसर नहीं मानते हैं, यह आरोप अपनी जगह। लेकिन, प्रदेश के मंत्री भी मुख्यमंत्री के निर्देश और सलाह नहीं मानते। तभी तो हर चौथी कैबिनेट बैठक में मुख्यमंत्री को मंत्रियों को प्रभार के जिले में जाने, गांव में रात गुजारने, समीक्षा करने जैसे निर्देश देने पड़ते हैं। हालिया कैबिनेट बैठक में भी भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के दौरे के हवाले से ये निर्देश दिये गए। यह अलग बात है कि एक मंत्री ने प्रभार के जिलों में खुद के जाने का हवाला देकर बार-बार इस सलाह के औचित्य पर ही सवाल उठा दिये थे।





