Saturday, May 27, 2017

72 घंटे के भीतर कलेक्टर का तबादला निरस्त करने के मायने?

ऐसा तो शतरंज के खेल में भी नहीं होता! सिर्फ गुड्डे-गुड़िया के खेल में बच्चे ऐसा करते हैं। सरकार ऐसा करे तो प्रश्नचिन्ह तो लगेंगे ही। मध्यप्रदेश सरकार का एक फैसला आज सरकार की कार्यप्रणाली पर ही सवाल खड़े कर रहा है। सवाल तब भी उठे थे जब हरदा कलेक्टर श्रीकांत बनोठ को आनन फानन में हटाने के आदेश जारी हुए और फील्ड के अफसरों के लिए कालापानी का पर्याय बन चुके मंत्रालय में बिना विभाग का उपसचिव पदस्थ करने के आदेश जारी हुए थे। इसे 72 घंटे पूरे होने से पहले श्रीकांत बनोठ को वापस हरदा कलेक्टर बनाने के आदेश फिर कर दिये गए। सवाल तो होंगे ही कि सरकार पहले सही थी या अब?
राजनीति की बिसात हो या शतरंज का खेल उसमें इतनी आसानी से फेरबदल संभव नहीं होता। प्रशासनिक निर्णयों में तो और भी मुश्किल। सतही तौर पर भले ही यह मामला कागज पर दो आदेश निकलने जितना आसान दिखता है, लेकिन है नहीं। हरदा में बीजेपी नेता और पूर्व मंत्री कमल पटेल की कलेक्टर श्रीकांत बनोठ से अदावत के राजनीतिक और निजी कारण हैं। कमल पटेल अब विधायक नहीं हैं इसलिए उनका वो रसूख नहीं ऱहा जो मंत्री होने के दौरान हुआ करता था। उनके परिजनों खासकर बेटे सुदीप को लेकर कई आरोप लगे तो डेढ़ दर्जन पुलिस केस भी सुदीप पर बताए जाते हैं। प्रशासनिक अफसरों की मानें तो सुदीप को लेकर जनता के बीच में नाराजगी और भय का वातावरण था। जिसके चलते एसपी की रिपोर्ट के आधार पर कलेक्टर ने सुदीप को जिलाबदर करने की कार्यवाही की। इसी कार्यवाही ने पटेल की कलेक्टर से नाराजगी को तिल का ताड़ बनाया। हालांकि पटेल अपने बेटे का बचाव करते हैं और उसके खिलाफ हुई कार्रवाई को दुर्भावनाप्रेरित निरूपित करते हैं। अपने परिवार की प्रतिष्ठा और राजनीतिक आस्तित्व का सवाल खड़ा हुआ तो कमल पटेल ने न सिर्फ कलेक्टर और एसपी के खिलाफ मोर्चा खोला बल्कि नर्मदा नदी से अवैध रेत उत्खनन का मामला नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल तक लेकर गए। इस मामले में उन्होंने प्रदेश के मुख्य सचिव और डीजीपी तक को आरोपों के लपेटे में लिया। मुख्यमंत्री पर भी परोक्ष आरोप लगाए तो पड़ोसी जिलों के कलेक्टरों के साथ कुछ और मंत्रियों पर भी आरोप मढ़े। पटेल के एनजीटी जाने के बीच ही सरकार भी हलचल में आई तो उसने नर्मदा से रेत उत्खनन पर ही अस्थायी रोक लगा दी। यही नहीं पटेल के आरोपों के आधार पर हरदा कलेक्टर श्रीकांत बनोठ का तबादला आदेश भी जारी कर दिया। कलेक्टर को हटाने के पीछे सरकार की सोच रही होगी कि अब
शायद पटेल शांत हो जाएं लेकिन ऐसा हुआ नहीं। पटेल कैंप ने इसे अपनी जीत निरूपित किया और कमल के तेवर और तीखे हो गए। हरदा में सोशल मीडिया पर कुछ और अफसरों को इंजेक्शन लगाये जाने के दावे होने लगे। बयानबाजी के चलते बीजेपी को पटेल को नोटिस देकर पार्टी विरोधी बयानों के लिए सफाई मांगनी पड़ी। यही वो मुकाम था जहां सरकार को अपनी गलती का अहसास हुआ। जब कमल पटेल को दोषी माना जा रहा है तो कलेक्टर को सजा क्यों?  इस बिंदु पर सोच को केंद्रित किया गया। दूसरी वजह खुद पर लगने वाले आरोपों को लेकर आहत ब्यूरोक्रेसी है। यही कारण रहा कि तबादला आदेश जारी होने के बाद न तो श्रीकांत बनोठ ने ही जिला छोड़ने की पहल की और न ही उनकी जगह
कलेक्टर बनाए गए 2010 बैच के तरूण राठी ने अपनी पहली कलेक्टरी के मोह में हरदा का रूख किया। अंदरखाने की खबर है कि मुख्यमंत्री को कलेक्टर द्वारा की गई जिलाबदर की कार्यवाही के प्रमाण बताए गए। एक सीडी भी सौंपे जाने की खबर है।

बहरहाल हरदा के तबादला एपीसोड में एक बार फिर ब्यूरोक्रेसी की जीत हुई है। लेकिन पहले तबादला फिर निरस्त करने के फेर में किरकिरी मुख्यमंत्री की हो रही है। मुख्यमंत्री को छीछालेदार से बचाने के लिए श्रीकांत बनोठ के तबादला आदेश को निरस्त करने के बजाए यदि वे सही थे तो उन्हें दूसरे किसी बड़े जिले का कलेक्टर बना कर ईनाम दिया जा सकता था। इससे पहले भी समाधान ऑनलाइन में मुख्यमंत्री द्वारा सस्पेंड किये गए कटनी कलेक्टर रहे आईएएस प्रकाश जांगरे एक माह में ही बिना किसी जांच के बहाल हो गए थे। समाधान ऑनलाइन के ही हालिया प्रकरण में पीसीसीएफ पद पर कार्यरत सीनियर आईएफएस अफसर एल.के. चौधरी को जांच रिपोर्ट आने से पहले ही बहाल कर दिया गया। उन्हें भी मुख्यमंत्री ने सस्पेंड किया था। यह मामले ब्यूरोक्रेसी के प्रभाव को रेखांकित कर रहे हैं। लेकिन कमजोर किसे कर रहे, यह भी विचारणीय है। 

Monday, May 15, 2017

मिशन 2018: वोट के घोड़े को आस्था की खुराक !

मध्यप्रदेश में अगले विधानसभा चुनाव का एजेंडा सेट कर लिया गया है। बीजेपी इस बार का चुनाव आस्था की बयार में लड़ेगी। इसीलिए चुनावी साल आने से पहले ही प्रदेश की शिवराज सिंह चौहान सरकार धर्म और आध्यात्म की गंगा में डुबकियां लगा रही है। सिंहस्थ से शुरू हुआ यह सिलसिला अब इतना आगे बढ़ चुका है कि नर्मदा की सेवा के महाअभियान में लाखों लोगों की आहुतियां डलवा ली गई हैं। पहली बार प्रदेश भर में आदि शंकराचार्य की जयंती इतने भक्तिभाव मे मनाई गई। आने वाले दिनों में सत्ता की आस्था और परवान चढ़ेगी। कुल जमा विधानसभा चुनाव में भगवा को जन-जन का रंग बनाने के लिए नित नये कार्यक्रम और आयोजन तय किए जा रहे हैं। वोटबैंक की राजनीति में धर्म की चाशनी नई नहीं है, लेकिन मध्यप्रदेश में इसे नया रंग देने की कोशिश की जा रही है। और विपक्षी दल कांग्रेस सरकारी आस्था को परवान चढ़ते चुपचाप देख रहा है।
 लगातार चौथी बार सरकार बनाने के जतन में जुटी बीजेपी ने काफी सोच विचार कर ही 2018 के विधानसभा चुनाव में धर्म का कार्ड खेलने का फैसला किया है। धर्म के फ्लेवर से वह अपने पंद्रह साल के शासनकाल की अक्षमताओं, कमियों से जनता का मुंह मोड़ सकती है। खेती, किसानी, सिंचाई, विकास, स्वच्छता, सुशासन, सामाजिक सरोकार जैसी तमाम उपलब्धियों के बीच शिक्षा, रोजगार जैसे मुद्दे भी हैं जो सवाल उठाए खड़े दिख रहे हैं। इन सवालों से बचने का सबसे अच्छा तरीका है विकास के राग के बजाए आस्था की ढपली बजाई जाए और बीजेपी मध्यप्रदेश में यही करती दिख रही है। उसकी आस्थापरक राजनीति को बल मिला है उत्तरप्रदेश की भगवा लहर से, जहां किसान और गन्ने के मुद्दे के साथ आस्था का मिश्रण सफलता की गारंटी बना था। वैसे तो चुनावी मुद्दा कांग्रेस को भी अपना तय करना चाहिए था। कांग्रेस के पास मुद्दों का अकाल भी नहीं है, लेकिन वह उन ज्वलंत विषयों पर धार नहीं चढ़ा पाई जो शिवराज सरकार की चमकार पर प्रहार करते। कांग्रेस की इसी कमजोरी को भांप कर चुनावी एजेंडा सेट करने की पहल शिवराज सिंह चौहान ने कर दी है तो कांग्रेस को भी बीजेपी के मुद्दों के आसपास रह कर चुनाव मैदान में उतरना पड़ेगा।    
 इसबार के चुनाव में नया मुद्दा उठाने की बीजेपी की सोच की मुख्य वजह वो सवाल हीं हैं, जो उसके वादों, घोषणाओं और शासन पर उठे हैं। चुनावी मुद्दों की बात करें तो साल 2003 में जब कांग्रेस के दस साल के दिग्विजय सिंह शासन को उखाड़ने का पहाड़ जैसा मिशन सामने था, तब विपक्ष में रही बीजेपी के रणनीतिकारों ने बीएसपी (बिजली-सड़क-पानी) पर दांव खेला था। प्रदेश की जनता तब इन्हीं बुनियादी जरूरतों की कमी से जूझ रही थी। इसलिये बीजेपी ने इन मुद्दों पर तत्कालीन कांग्रेसी सरकार को आक्रमण के बजाए बचाव की मुद्रा में आने को मजबूर किया था। बीते 13 सालों में इन तीनों क्षेत्रों में काफी काम हुआ, लेकिन पूरी तरह बिजली, सड़क और पानी की समस्या दूर हुई हो ऐसा भी नहीं है। सड़कें जो बनीं वो कई जगह उधड़ गईं। बिजली में सरप्लस स्टेट होने के बावजूद गांवों में चौबीस घंटे बिजली आज भी सपना है। पानी की क्या बात करें। बुंदेलखंड और मालवा सहित कई इलाकों में मार्च आते ही जलसंकट घिर आता है। लेकिन राजनीतिक दलों के लिए अब ये तीनों विषय मुद्दा नहीं हैं।
 2008 का चुनाव उसी विकास के नाम पर लड़ा और जीता गया, जिसमें ‘बीएसपी’ के साथ औद्योगिक विकास और रोजगार शामिल था। ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट के आयोजनों ने निवेश की ऐसी झांकी बनाई कि लगा मध्यप्रदेश देश के प्रमुख औद्योगिक राज्यों को पीछे छोड़ देगा। ग्लोबल समिट अब भी हो रही हैं और इनके जरिये विकास का दिवास्वप्न अब भी देखा जा रहा है। शिवराज सिंह चौहान ने मुख्यमंत्री के तौर पर अपने इस दूसरे और पूरे पांच साल के कार्यकाल में जमकर प्रदेश भर के दौरे किए, लोगों से खूब मेल मुलाकात कीं और मतदाताओं और भविष्य के मतदाताओं के साथ पारिवारिक तानाबाना बुना। इस सबके साथ सुशासन और जनता की मांग पर घोषणाओं का शिवराज के फार्मूले ने भी मतदाताओं को कमल के फूल का बटन दबाने के लिए प्रेरित किया।
शिवराज ने 2008 से 2013 के बीच अपनी सरकार के दौरान की गई सोशल इंजीनियरिंग के दम पर 2013 के चुनाव की वैतरणी पार की। यह चुनाव पूरी तरह से सामाजिक योजनाओं को आगे कर लड़ा गया और 2008 की तुलना में ज्यादा विधायकों के साथ फिर शिवराज सरकार को जनता ने चुना। लाड़ली लक्ष्मी योजना, कन्यादान, मुख्यमंत्री तीर्थदर्शन जैसी उन दर्जनों योजनाओं की खुराक इस दौरान जनता को मिली, जिनका लाभ सीधे घरों तक पहुंचा। विकास कार्यों की तरह इसमें कमीशन का कोई खेल नहीं था। सरकारी खर्च पर तीर्थाटन करने वाले बुजुर्ग हों, या बिटिया के नाम सवा लाख रूपये के सर्टिफिकेट पाने वाले माता-पिता या फिर सरकारी खर्च पर बेटी के हाथ पीले करने वाले सभी धर्म या संप्रदाय के लोग। सबका साथ शिवराज पाने में कामयाब रहे।
विकास, सुशासन, खेती को लाभ का धंधा बनाना, सामाजिक योजनाओं के ताना-बाना से आगे क्या? इस सवाल का जवाब भी शिवराज सरकार और बीजेपी ने खोज ही लिया। चौथी बार सत्ता के लिए अबकी बार उसी फार्मूले को अपनाया जा रहा है, जो हिंदु पद्धति में चौथे आश्रम का उद्देश्य है, आनंद की अनुभूति के लिए धर्म का रसास्वादन। तो हाजिर है साल 2016 में सिंहस्थ का महाआयोजन। जिसकी ब्रांडिंग ऐसी की गई कि लगा धरती पर कहीं महाकुंभ हुआ है तो बस उज्जैन का सिंहस्थ ही सर्वश्रेष्ठ है। वोट की चाह लिए बिना वोटर को धर्म की वैतरणी का सुख दिया गया सिंहस्थ में। वो भी पावन क्षिप्रा में पतित पावन नर्मदा जल का संगम करा कर। सरकार ने आस्था की इस 'बुड़की' को यहीं नहीं थमने दिया, लोगों के मन से सिंहस्थ का प्रभाव घटने से ही पहले पांच माह की नमामि देवी नर्मदे, नर्मदा सेवा यात्रा आ गई। इस यात्रा के विराम से पहले ही मध्यप्रदेश में पहली बार इतने विशाल पैमाने पर आदि शंकराचार्य का प्रकटोत्सव मनाया गया। अब शंकराचार्य की अष्टधातु की प्रतिमा के लिए घर-घर से धातु संग्रहण के नाम पर आदि शंकराचार्य के बहाने हर घर को सरकार प्रेरित आस्था से जोड़ने की कवायद। उसके बाद प्रदेश की दूसरी नदियों के उद्धार के लिए भी नर्मदा जैसा ही भगीरथी प्रयास। शिवराज के आस्था के झोले में चुनावी लाभ की और भी कई योजनाएं हैं।

बीजेपी और शिवराज सरकार इस रास्ते पर इतने आगे बढ़ चुकी है कि विकास, सुशासन, शिक्षा, रोजगार जैसे विषय उसके लिए अब चुनावी मुद्दे नहीं रहे। ये सभी काम तो वह लगातार तीन सरकारों में करती ही आ रही है। बात आम जनता की बुनियादी जरूरतों की तो उसकी ‘आनंद’ की चाह कहीं न कहीं पूरी होती दिख रही है। फिर चाहे वह आस्था से ही हो। प्रदेश में अपना खोया वैभव हासिल करने के लिए हाथ-पैर मार रही कांग्रेस शिवराज के एजेंडे के जाल में फंस चुकी है। उसके बयानवीर नेता नर्मदा सेवा यात्रा को लेकर आरोप लगा भी रहे हैं तो आस्था के सामने उनके आरोप प्रभावहीन साबित हो रहे हैं। ऐसा नहीं कि मध्यप्रदेश में विपक्ष के लिए मुद्दों का ही अकाल हो। तीन पंचवर्षीय कार्यकाल पूरा करने जा रही सरकार के खिलाफ कुछ हो ही न ऐसा भी संभव है क्या?  सरकार को घेरने के विषय तो छोड़िए, कांग्रेस अभी तक तय नहीं कर पाई कि वह किसके नेतृत्व में मध्यप्रदेश के चुनाव अभियान में उतरेगी। जहां सेनापति को लेकर आपसी संघर्ष चरम पर हो वहां विरोधी को घेरने के अस्त्र, शस्त्र की चिंता किसे होगी। ऐसे में चुनाव आएंगे तो बीजेपी के वार पर प्रतिवार करने में ही कांग्रेस का समय और शक्ति जाया हो सकता है। या फिर पुराने घपलों - घोटालों के दम पर वह जोर आजमाइश करेगी। शिक्षा की बदहाली अथवा नर्मदा से अवैध उत्खनन पर जनता को घरों से निकालने में वह सफल हो

सकती है? या फिर शिवराज सरकार द्वारा रची गई आस्था पर चोट का साहस जुटा पाएगी ?2018 का चुनावी सार इसी सवाल के जवाब में है।

अशोक, तुम्हारे हत्यारे हम हैं...

अशोक से खरीदा गया वो आखिरी पेन आज हाथ में है, लेकिन उससे कुछ लिखने का मन नहीं है। अशोक... जिसे कोई शोक न हो। यही सोच कर नामकरण किया होगा उसक...