Wednesday, November 13, 2019

बड़ी अजीब बेरोजगारी है....


आज एक महिला आई और बोली- आपके संस्थान में कोई बैकऑफिस वर्क हो तो काम करना चाहती हूं। कुछ दिन पहले एक युवक आया था, बोला- मेरे पास स्कूटर है, कोई भी काम हो तो बताएं। कम्प्यूटर में दक्ष महिला तो समझ आई, लेकिन स्कूटर का नौकरी से क्या ताल्लुक? बैलगाड़ी, घोड़ागाड़ी, ऑटोरिक्शा, ट्रैक्टर आदि के सहारे काम की तलाश तो सुनी थी, लेकिन स्कूटर से? सवाल खड़ा हुआ तो पूछ भी लिया। युवक ने बताया वो पहले कपड़े की दुकान पर काम करता था। मालिक ने मंदी की आड़ में छंटनी कर दी। काम के दौरान ही बैंक से कर्ज लेकर स्कूटर खरीदा था। अब वही साधन है जिसके जरिए नौकरी की जुगाड़ है ताकि किश्त पटती रहे और घर चलता रहे।

ये स्थिति क्यों है? आखिर क्यों है ऐसी बेरोजगारी?
"खेत जो सीलिंग के थे सब चक में शामिल हो गए, हम को पट्टे की सनद मिलती भी है तो ताल में।" अदम गोंडवी की कविता की इन लाइनों सी है आज ये युवाओं की आस। 
ट्विटर हो या फेसबुक... पीएससी समेत संविदा शिक्षक से लेकर तमाम भर्ती परीक्षाओं का इंतजार कर रहे बेरोजगारों की पोस्ट देखिए तो महसूस होता है कि युवा कितने अधीर हैं। कोई दो साल से तैयारी कर रहा है तो किसी को पांच साल हो गए इंतजार करते-करते। सरकारें बदल गईं, लेकिन भर्ती तो दूर इसकी परीक्षा की तारीख घोषित नहीं हो रही। ये स्थिति तब है जब किसी शॉपिंग मॉल या बाजार की तर्ज पर हर छोटे-बड़े शहर में शिक्षण संस्थान चल रहे हैं। आईआईटी से इंजीनियर बनाने की फैक्ट्री राजस्थान के कोटा में है तो आईटीआई एवं मैनेजमेंट से लेकर डॉक्टरी और हर तरह की विशेषज्ञता पढ़ाने वाले संस्थानों की देश में कोई कमी नहीं है। कम्प्यूर के सॉफ्टवेयर एवं हार्डवेयर से लेकर एथिकल हैकिंग तक सिखाने वाले संस्थान तंग गलियों तक हैं। प्रायमरी से लेकर हायर सेकेण्डरी तक के कोचिंग इंस्टीट्यूटों की भरमार है। किसी राज्य में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों से भी ज्यादा स्किल डेवलपमेंट के साधन और सुविधाएं उपलब्ध हैं।
स्किल डेवलपमेंट! इसी शब्द पर सबसे ज्यादा जोर दिया जा रहा है। मध्यप्रदेश की कमलनाथ सरकार हो या केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार। सबकी जुबान पर यह जुमला है। बेरोजगारों की तादाद हर साल बढ़ती जा रही है और न तो उन्हें स्किल मिल रहा और न ही डेवलपमेंट हो रहा है। मध्यप्रदेश में 11 माह पहले सत्ता में आई कांग्रेस सरकार ने स्किल डेवलपमेंट के साथ ही मुख्यमंत्री युवा स्वाभिमान योजना का ख्वाब दिखा कर ऑनलाइन पंजीयन कराए। जिन ट्रेड में रोजगार को देने की बात की गई उसमें ढोर चराने से लेकर बैंड बाजा बजाने तक की ट्रेनिंग शामिल थी। रोजगार नहीं मिलने पर इन प्रशिक्षित युवाओं को बेरोजगारी भत्ते की तर्ज पर हर माह राशि मिलने का प्रावधान था। पता नहीं यह योजना कहां गुम हो गई? पिछली भाजपा सरकार में भी युवाओं को नौकरी का सुनहरा सपना दिखा कर ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट से लेकर न जाने क्या-क्या जतन किए गए, सब मृगमरीचिका ही साबित हुए। पिछली सरकार की आरक्षण संबंधी अदालती चुनौती के फेर में भर्ती परीक्षाएं अधर में गईं सो अलग। इनकी तो ठीक है, हर साल दो करोड़ नए रोजगार देने का प्रधानमंत्री का पिछली सरकार का वादा भी पकौड़ा और चाय व्यवसाय की भेंट चढ़ गया। मेक इन इंडिया प्रोडक्ट की भीड़ में मेड इन इंडिया युवा बेरोजगार ही रह गए हैं। नए युवाओं को रोजगार नहीं और जो रोजगार से लगे थे वे छंटनी के शिकार हो रहे हैं। मल्टीनेशनल्स से लेकर परचून और गारमेंट शॉप तक यही स्थिति है। कोई तो बताए इस स्थिति में युवा क्या करें? कहां जाएं? किससे मांगे रोजगार?

Tuesday, October 15, 2019

सरकार.., अब वक्त है रगों से लिपटे विषधरों को धरने का





सोचा था, वक्त है बदलाव का के साथ मध्यप्रदेश में बदला हुआ वक्त दिखेगा। प्रदेश में भ्रष्टाचारमुक्त ईमानदार प्रशासन नजर आएगा। राजनीतिक दलों से जुड़े नेताओं और कार्यकर्ताओं का वक्त जरूर बदला है, लेकिन अफसरशाही का समय नहीं बदला है। याद कीजिए शिवराज सिंह चौहान सरकार के दौरान लोकायुक्त जैसी जांच एजेसियां मुंह अंधेरे किसी अफसर या पटवारी तक के घर छापा मार कर करोड़ों रुपयों की अनुपातहीन संपत्ति उजागर करती थीं। भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस वाली सरकार आने के बाद भी वक्त ठहरा हुआ सा ही है। 




लोकायुक्त की विशेष स्थापना पुलिस ने आज इंदौर में पदस्थ आबकारी विभाग के एक सहायक आयुक्त के ठिकानों पर छापामारी की तो वक्त का पहिया पुरानी जगह पर ही स्थिर मिला। शराब से सरकारी खजाना भरने वाले इस महकमे के आलोक कुमार खरे के भोपाल, इंदौर, रायसेन और छतरपुर के सात ठिकानों पर एक साथ की गई इस कार्रवाई में 100
कोठी 
करोड़ से अधिक की संपत्ति का खुलासा हुआ है। आलीशान फार्महाउस, लेविश बंगले और दर्जन भर लग्जरी गाड़ियों के साथ 21 लाख रुपये नगद की शुरूआती बरामदगी ने हलचल मचा दी है। महज लाख-सवा लाख रुपये महीना वेतन पाने वाला कोई अफसर दो दशक की अपनी नौकरी में इतना माल-असबाब बटोर कर मजे से मनचाही पोस्टिंग लेता रहा और निजाम आंखें बंद किए बैठा रहा
! अभी तो लॉकर खुलना और दस्तावेजों की पड़ताल होना शेष है, पता नहीं वे काली कमाई के इस कुबेर का कितना खजाना उगलेंगे? मजे की बात यह है कि अपनी अवैध कमाई को वैध बनाने का जो तरीका खरे ने ईजाद किया था, वह कई नेताओं का भी पसंदीदा है। खरे की पत्नी रायसेन में फलों की खेती करतीं थीं और अपने इनकमटैक्स रिटर्न में उससे मोटी आय का रिटर्न फाइल करती थीं।

आबकारी महकमे में आलोक कुमार खरे अकेले कमाऊ पूत नहीं हैं। गुजरात से लेकर अन्य राज्यों में अवैध मदिरा की तस्करी का स्वर्ग कहे जाने वाले इंदौर संभाग में पदस्थ कई अफसर खरे से भी ज्यादा मालदार मिल सकते हैं। बस
भोपाल के गोल्डनसिटी जाटखेड़ी स्थित बंगला
उनकी तरफ नजर घुमाने की देर है। मालवा की इसी धरती पर आबकारी विभाग के कई बड़े घोटाले उजागर हो चुके हैं। दो साल पहले उजागर हुए 42 करोड़ के घोटाले में जिन अफसरों की मिलीभगत से फर्जी बैंक चालान के जरिए राज्य सरकार को चूना लगाया गया था, वे तमाम अफसर जांच के बीच ही दोबारा इंदौर में पोस्टिंग पा गए। अंदाजा लगाया जा सकता है कि अब इस घोटाले की क्या परिणति होगी। भोपाल से लेकर ग्वालियर और अन्य जिलों तक आबकारी महकमे में कई घोटाले जब-तब सामने आए और जांच के नाम पर दबा दिए गए। जिन अफसरों पर इनके दाग लगे वे
दाग अच्छे हैं चरितार्थ करते हुए सफेदी की चमकार को मात देते हुए फिर फील्ड में अपनी और अपने आकाओं की जेबें भरने में जुटे हैं। कितने नाम गिनाए जाएं। इंदौर घोटाले की आंच में झुलसे अफसर पिछली भाजपा सरकार की आंखों के तारे थे तो नई सरकार के लिए भी वे सुरमा साबित हो रहे हैं। सहायक आयुक्त खरे के आलोक में देखा जाए तो सिर्फ आबकारी ही नहीं कई विभागों को सफाई की जरूरत है, लेकिन सत्ता पर बैठे लोग सफाई के सिर्फ नारे बुलंद कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर रहे हैं, असली सफाई से उन्हें परहेज है।

पुनश्च प्रदेश के घोटालेबाजों और काले धन के कुबेरों की बात करें तो अब बयानबाजी होने लगी है कि खरे ने यह अकूत संपत्ति पिछली सरकार के दौरान अर्जित की थी। नई सरकार में तो उन पर लोकायुक्त का शिकंजा कसा है। सरकार को अभी सिर्फ नौ माह ही हुए हैं आदि, इत्यादि। पन्ने पलटें तो ऐसा ही बयान पिछली सरकार के दौरान उस वक्त सत्ताधारी
दल के नेताओं का होता था कि कमाई तो उनसे पहले की सरकार की है, उन्होंने घोटालेबाजों पर छापे डलवाए हैं। नौ
फार्म हाउस
माह में बयानवीर भले बदल गए हों, लेकिन बयानों का स्वर वही है। सरकार को वाकई प्रशासन और व्यवस्था में स्वच्छता अभियान चलाना है तो तमाम दागी अफसरों को किनारे धरें और उनकी संपत्ति की जांच कराएं, फिर चाहे वह कोई भी हो। अकेले इस अभियान से इतनी काली कमाई राज्य सरकार के खजाने में आ सकती है कि उसे मुख्यमंत्री युवा स्वाभिमान योजना चलाने के लिए बाजार से कर्ज नहीं लेना पड़ेगा। संदूकों और जमीन में गड़ा खजाना निकला तो प्रदेश में निवेश बढ़ाने मैग्नीफिसेंट एमपी जैसे आयोजन कर उद्योगपतियों की चिरौरी करने की जरूरत भी नहीं पड़ेगी। वक्त इन मुद्दों पर भी विचार करने का है....इसलिए थोड़ा वक्त शासन-प्रशासन की रगों से लिपटे इन विषधरों को पकड़ने के लिए भी निकालिए सरकार!



Friday, June 14, 2019

तन्खा जी, मोदी ने ऐसा तो नहीं कहा था...


दिग्विजय सिंह से सीखें पराजय के बाद भी डटे रहना


ये क्या! देश के जाने माने वकील, राज्यसभा सांसद और मध्यप्रदेश कांग्रेस के बड़े नेता विवेक तन्खा ने यह क्या कह दिया! जब चुनाव मोदी के नाम पर हुआ है और कही भी लोकल सांसद प्रत्याशी का कोई महत्व या नाम नहीं लिया गया तो अपेक्षा मोदी जी से होगी। वोट उनको दिया तो काम की उम्मीद किससे करें?’ सौ फीसदी सही कथन है तन्खा जी आपका!

राज्यसभा सदस्य के तौर पर और उससे भी पहले से आपने जबलपुर में बहुत काम किया है। ट्विटर पर जब आपने मोदी को लेकर अपनी यह राय व्यक्त की तो आपके समर्थन में कई लोगों ने जबलपुर में हुए कार्य गिनाए हैं (कुछ लोगों
ने आपकी कमियां भी बताई हैं)। आपने भी अपने द्वारा कराए गए कार्यों का भरपूर जिक्र किया है। लेकिन इतना नैराश्य...इतनी हताशा क्यों? जब जनता ने देश का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुना है तो स्वाभाविक है वे देशवासियों के लिए काम करेंगे ही। आपकी तरह आम मतदाताओं की भी अपेक्षा उनसे ही है। लेकिन आपको पूर्व मुख्यमंत्री और प्रदेश कांग्रेस के बड़े नेता दिग्विजय सिंह से सीखने की जरूरत है। भोपाल संसदीय क्षेत्र से चुनाव जीतना अभेद्य किले में सेंध लगाने जैसा होने के बावजूद उन्होंने न केवल मुख्यमंत्री कमल नाथ की चुनौती स्वीकार की, बल्कि चुनाव जीतने के जितने जतन किए जा सकते थे, वो सभी किए। पराजय के बाद भी वे भोपाल में सक्रिय हैं और चुनाव के दौरान जारी किए गए भोपाल के अपने विजन डॉक्यूमेंट को पूरा कराने के प्रयास में जुटे हैं। राजनीति भी क्रिकेट के खेल जैसी है। जीत-हार इसमें लगी रहती है, लेकिन कोई खिलाड़ी प्रेक्टिस या मैच इस डर से नहीं छोड़ता कि वो हार रहा है या हार जाएगा।


पब्लिक प्लेटफॉर्म पर आपने जो अपने मन की बात कही है, उसकी उपज संभवतः आपकी प्रयागराज यात्रा है। आपने ही ट्वीट कर बताया था कि कुछ दिन पूर्व इलाहबाद अब प्रयागराज जाने का मौका मिला। अच्छा महसूस हुआ। इलाहबाद एक बदला शहर नजर आया। कुंभ के कारण उसका रूप ही बदल गया है। सड़क, फ्लाईओवर, एयरपोर्ट, रेलवे स्टेशन इत्यादि बदल गए हैं। जबलपुर को भी ऐसे कायाकल्प की जरूरत है। मोदी सरकार से कुछ ऐसी अपेक्षा जबलपुर को भी है।इस ट्वीट पर आई प्रतिक्रियाओं की प्रतिक्रिया में आपने जबलपुर में स्वयं के योगदान को रेखांकित करने के साथ ही जबलपुर के विकास का जिम्मा ही मोदी को दे दिया। जैसा कि आपका ट्वीट कहता है। जबलपुर में पेटीएम बैंक का ऑफिस खुलवाया, सांसद निधि का पारदर्शिता के साथ जन कल्याण के लिए सदुपयोग। ज्यादातर वंचित बस्तियों में बोरवेल खुदवाए। अस्पतालों में मरीजों की जांच के लिए मशीनें दीं। जबलपुर दक्षिण में चुनाव से कुछ माह पहले विधायकों की सिफारिश पर एक करोड़ की लागत के छोटे-छोटे प्रोजेक्ट्स मंजूर कराए। जबलपुर में कमल नाथ कैबिनेट की मीटिंग कराई और 2700 करोड़ रुपये के कई कार्य मंजूर कराए। पांच करोड़ की लागत से ब्लड बैंक बनवाए। वाकई जैसा आपने बताया है- आपने जबलपुर के लिए  और बहुत कुछ किया है। लेकिन यह आत्मचिंतन कैसा है कि इतना कुछ करने के बाद भी अगर मैं जनता की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर पाया तो पता नहीं इसका आकलन कैसे करूं।

पराजय के कारणों की पड़ताल हो। आत्मचिंतन करें अच्छी बात है। इस सब के बाद भी जनसेवक को पहले से ज्यादा जोश से जनता के लिए जुटना चाहिए। आपको लगातार दो चुनाव में पछाड़ने वाले और जबलपुर की हर छोटी-बड़ी समस्या पर यह मेरा विषय नहीं है नारा बुलंद करने वाले राकेश सिंह हो सकता है इस बार मोदी मैजिक के सहारे जीत गए हों। ये मैजिक हर बार तो चलेगा नहीं। मोदी है तो हर काम मुमकिन हो यह भी संभव नहीं है। इसलिए जबलपुर की चिंता करिए। उसे मोदी के सहारे मत छोड़िए। नहीं तो....!

Saturday, April 27, 2019

कौन खाएगा खजुराहो के खजूर- अमानगंज की बेटी या एबीवीपी के विष्णु?


दस्यु सम्राट ददुआ का बेटा भी रोचक बना रहा बुंदेलखंड का मुकाबला

अमित शाह बढ़ा गए भाजपाइयों का हौसलापत्नी के लिए नातीराजा का जोर



मध्यप्रदेश में सबसे गर्म तासीर वाले खजुराहो का मिजाज इन दिनों मौसम की ही तरह गरम है। लोकसभा चुनाव में इस सीट पर इस बार मुकाबला खासा रोचक होने की वजह भी खास हैं। खजुराहो पैलेस निवासी अमानगंज की बेटी और पन्ना एवं राजनगर की बहू महारानी कविता सिंह की मोदी वाले अंडर करंट के साथ पन्ना के अपने अस्थायी ठिकाने को परमानेंट ठौर में तब्दील करने का दम भरने वाले विष्णुदत्त शर्मा से टक्कर है। इस सीधे मुकाबले को त्रिकोणीय बनाने के जतन में जुटे दस्यु सम्राट ददुआ के बेटे वीर सिंह भी खजुराहो के राजनीतिक तापमान को बढ़ा रहे हैं।
कविता का मायका, राव साहब का घर
शुरूआत करते हैं कविता सिंह के मायके से। पन्ना से अमानगंज के रास्ते पर द्वारी गांव से करीब
कविता सिंह
पांच किमी दूर है उनका मायका भड़ार। प्रधानमंत्री सड़क से मुख्य मार्ग से जुड़ा भड़ार मजरा-टोला है। गांव की शुरूआत होती है राव साहब शंकर प्रताप सिंह के हवेलीनुमा घर से। घर के दरवाजे पर कांग्रेस का एक झंडा लगा है तो आंगन में खड़ी जेसीबी
, बोलेरो और हार्वेस्टर उनकी संपन्नता की गवाही दे रहे हैं। इमली का पुराना झाड़ और फलों से लदा आम का पेड़ आंगन को पुरसुकून ठंडक देते हैं। राव साहब अमानगंज में बेटी के लिए प्रचार पर निकले थे। पूरे गांव में सिर्फ कांग्रेस के ही झंडे हैं और गांव वाले अपनी बेटी,बहन और बिन्नू राजा (कविता सिंह) को ही शतप्रतिशत वोट जाने की कसमें खाने के साथ भाजपाराज में गांव के अविकसित ही रह जाने की दुहाई दे रहे थे। लेकिन इसके उलट गांव के खपरैल घरों के बीच झांकते बिना रंगे पक्के मकान और हर घर में शौचालय यहां मोदी की दो योजनाओं का स्वत: ही प्रचार कर रहे हैं। समस्याओं की पूछो तो हैंडपंप पर स्नान करते लोग भी पानी का दूसरा कोई इंतजाम नहीं होने की बात कहते हैं। गांव की सबसे ज्यादा पढ़ी लिखी युवती शीलम गिरी, जो पन्ना में बीएससी फाइनल की स्टूडेंट हैं और रोज बस से कॉलेज जाती हैं। पांचवी तक के स्कूल को देख कर बताती हैं कि मिडिल स्कूल की जरूरत है, पानी का स्थाई इंतजाम और अन्य बुनियादी सुविधाएं भी चाहिए। बिन्नू राजा के साथ सरस्वती शिशु मंदिर में पढ़ चुके रमेश दुबे उनकी व्यवहारकुशलता, मिलनसारिता और कुशाग्र बुद्धि के किस्से सुनाते हैं। कविता सिंह यदा-कदा गांव आती हैं। कुछ ऐसे महिला-पुरूष मिले जिन्होंने बिन्नू राजा को बचपन में गोद में खिलाया तो कुछ बच्चे वो हैं जो उनकी गोद में खेले हैं।
कविता के गांव भड़ार का प्रायमरी स्कूल
अमानगंज से दूर पन्ना में पोस्टर लगे हैं पन्ना की भानेज बहू कविता सिंह को जिताएं। पन्ना की बहू इसलिए क्योंकि खजुराहो वाले नाती राजा कुंवर विक्रम सिंह पन्ना राजघराने के भांजे हैं। यानी कांग्रेस प्रत्याशी ससुराल राजनगर, मामा गांव पन्ना और मायका अमानगंज (गुन्नौर विधानसभा) में रिश्तों के दम पर भारी दिख रही हैं। कमजोर भाजपा प्रत्याशी विष्णुदत्त शर्मा भी नहीं लगते। महज एक सप्ताह पहले ही उम्मीदवारी मिलने के बाद उन्होंने पन्ना में मुकाम बनाया है। गुटों में बंटी भाजपा के अधिकांश नेता मन से या बेमन से उनके लिए मैदान में हैं। जिला सहकारी बैंक अध्यक्ष रहे संजय नगाइच और पन्ना विधायक बृजेंद्र प्रताप सिंह आपसी खटास भूल कर उनके लिए काम करे रहे हैं। जिलाध्यक्ष सदानंद गौतम के हाथ में कमान है तो एबीवीपी की टीम भी अपने लीडर के लिए जुटी है। अपनी सभाओं में विष्णुदत्त शर्मा यानी कार्यकर्ताओं के वीडी भैया इस क्षेत्र से अपनी नातेदारी बताने से नहीं चूकते। छतरपुर जिले में ही रावत परिवार उनकी ससुराल है और स्वर्गीय केदारनाथ रावत प्रदेश की कांग्रेस सरकार में राजस्व मंत्री रहे हैं। एबीवीपी के महाकौशल क्षेत्र के संगठन मंत्री होने के नाते उनका यहां किया गया काम और जुड़ाव उनकी मदद कर रहा है। पहचान का संकट उन्हें भी नहीं दिखता। छतरपुर विश्वविद्यालय बनाने के लिए किया गया उनका संघर्ष और उसमें योगदान देने वाली टीम प्राणप्रण से उनके लिए जुटी दिखती है।
वीडी शर्मा
छतरपुर, पन्ना और कटनी जिले तक फैले इस संसदीय क्षेत्र में दोनों उम्मीदवारों के पैर किसी एक जगह नहीं टिक रहे। 
वीडी शर्मा सुबह खजुराहो तो रात को बहोरीबंद में होते हैं। बहोरीबंद के करीब 80 गांवों का केंद्र कहे जाने वाले बाकल में भी उनकी सभा में भीड़ जुटती है। जब वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को श्रेय देते हुए भारत की अस्मिता और राष्ट्रवाद की बातें करते हैं तो ताली बजती है। सर्जिकल स्ट्राइक और एयर स्ट्राइक से पाकिस्तान और आतंकवादी कैंप पर बम गिराने की बात पर तो खूब तालियां मिलती हैं। यहीं एक स्थानीय पत्रकार वीडी से सवाल करता है कि भाजपा ने अभी तक बाहरी उम्मीदवार ही दिए, जो चुनाव जीतने के बाद फिर नहीं आते। विष्णुदत्त का जवाब सुनिए- मैं इतना यहां रहूंगा कि आप ही कहने लगेंगे कभी कहीं जाते क्यों नहीं हैं। खुद को बाहरी कहने पर वे इस क्षेत्र से अपने जुड़ाव के सबूत देने लगते हैं। दो दशक में इस क्षेत्र के विभिन्न इलाकों में अपनी मौजूदगी और यहां के लिए छात्रों के संगठन बतौर किए गए कार्य उनकी वो थाती है, जिसका जवाब सवाल पूछने वाले के पास भी नहीं होता। विष्णुदत्त शर्मा को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने राजनगर की जनसभा में भविष्य का बड़ा नेता यूंही नहीं बताया था, उन्हें मिल रहा भाजपा कार्यकर्ताओं का समर्थन साबित करता है कि प्रदेश भाजपा के महामंत्री के तौर पर वे अभी भी इतने बड़े नेता है कि विधायक रह चुके नेता भी उनसे सीधे तौर पर कुछ कहने में संकोच करते हैं। पार्टी के भीतर की गुटबाजी की शिकायत लोग इसीलिए उनसे करने में परहेज कर रहे हैं।
दूसरी तरफ कविता सिंह के लिए उनकी कांग्रेस की टीम और पति विक्रम सिंह नाती राजा को मिलने वाला जनसमर्थन है। राजनगर के साथ अमानगंज में उनका पलड़ा भारी बताया जाता है। पन्ना में भी उन्हें अच्छा रिस्पांस होने की बात कही जा रही है। कटनी जिले के विधानसभा क्षेत्रों में वीडी का पलड़ा भारी दिखता है। विजयराघवगढ़ के भाजपा विधायक संजय पाठक कहते हैं- कटनी से एकरफा लीड मिलेगी, बहोरीबंद में भाजपा प्रत्याशी के आगे रहने का दावा वहां हाट-बाजार के लोग भी करते हैं, लेकिन इसी बीच बहोरीबंद से दो बार विधायक रहे नीशीथ पटेल की कांग्रेस में वापसी समीकरण बदलने का कांग्रेसी जतन क्या गुल खिलाएगा, अभी कहा नहीं जा सकता।
सपा उम्मीदवार वीर सिंह अखिलेश यादव के साथ
इस क्षेत्र में समाजवादी पार्टी की साइकिल पर सवार वीर सिंह भी हैं, जिन्हें बहुजन समाज पार्टी का समर्थन हासिल है। सवर्णों के आंदोलन का असर तो यहां नहीं दिखता, लेकिन ओबीसी को एकजुट करने के प्रयास चल रहे हैं। इनकी काट के लिए भाजपा और कांग्रेस दोनों जुट गए हैं। भाजपा से तो पूर्व मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री उमा भारती वीडी के लिए तीन-चार सभाएं लेने आने वाली हैं।
बहरहाल खजूर के जंगल की वजह से खजुराहो नाम पाने वाले विश्व धरोहर वाले इस क्षेत्र में सैलानियों की गाडिय़ों से ज्यादा यदि किसी की आमदरफ्त है तो वह है प्रचार वाहनों की। गांवों में एलईडी वाले रथ घूम रहे हैं तो चोंगे लगे वाहन भी और बुंदेलखंड का परंपरागत दीवार लेखन तो है ही। खजुराहो के पुराने नतीजे भाजपा की तरफ इसके झुकाव और बाहरी पर भरोसे की गवाही देते हैं। इस बार मुकाबला बेटी-बहू और बाहरी का है। वो बाहरी जो क्षेत्रवासियों को कहीं से भी बाहरी नहीं लगता है।


Monday, March 18, 2019

चौकीदार-चौकीदार भाई-भाई...!


ऊ शाब हम छुट्टी पर जा रहा हूं...ये मेरा भाई अब आएगा...। आमतौर पर महीने में एक बार बख्शीश लेने के लिए दिन में आने वाले मोहल्ले के चौकीदार ने एक बार फिर उजाले में आकर अपना गुजारिश भरा फरमान सुनाया और दस रुपये के नोट के साथ सलाम ठोक कर चला गया। चौकीदार....रोज रात में सीटी बजाता और लट्ठ जमीन पर पटक कर अपनी आमद का अहसास कराने वाला चौकीदार कब बदल गया... इसका खुलासा दो-चार महीने बाद हुआ, जब पुराना चौकीदार लौट कर नहीं आया और नए ने उसकी जगह स्वयं को स्थापित कर लिया। क्या देश को चलाने वाले राजनीतिक चौकीदार भी ऐसे ही बदलते हैं?
चौकीदार चोर है’, ‘मैं भी चौकीदार’, ‘चौकीदार फिर से’...जैसे ट्विटर और इंस्टाग्राम आदि सोशल प्लेटफार्म पर चल रहे चौकीदारकैंपेन के बीच मोहल्ले का चौकीदार बार-बार फ्लैशबैक में घूम रहा है। दुबला पतला लेकिन तना हुआ। रात में साइकिल तो दिन में पैदल घूमता। गोरखा टोपी और कमर में लटकती खुखरी के साथ चौकीदार होने का आधार कार्डदिखाते उस आदमी का नाम पूछने की जरुरत कभी नहीं पड़ी। शहर बदला या फिर मोहल्ला...चौकीदार रात में सीटी की गूंज के साथ अपने होने का अहसास कराता रहा। स्कूल के दिनों में चौकीदार ही वो अलार्म घड़ी था जो मुंह अंधेरे चार बजे उठाने का काम करता था। परीक्षा की तैयारी शुरू करने के साथ सबसे पहले चौकीदार को ही ताकीद किया जाता था- सुबह इतने बजे जगा देना। मजाल है जो टाइम इधर से उधर हो जाए। जब तक कमरे की रोशनी खिड़की से बाहर नहीं दिखती, वो घर के सामने ही लट्ठ पटकता जागते रहोकी गूंज लगाता रहता। उठने के संकेत मिलते ही फिर अपने रुटीन पर गायब होने वाला चौकीदार पंद्रह मिनट या आधे घंटे बाद फिर फेरी लगा कर पक्का कर लेता था कि लाइट जला कर हम दोबारा सो तो नहीं गए। अबकी बार वो तभी लौटता जब खिड़की या रोशनदान से मुंह दिखाई के साथ दो-चार बातें न हो जाएं।
वो चौकीदार चोर है....! यह शक का कीड़ा उसी समय कुलबुलाता जब मोहल्ले के किसी सूने घर में चोरी हो जाए और आस-पड़ोस के लोग कहें कि रात में सीटी नहीं सुनाई दी। कोई कहता, साढ़े 12 बजे पहला फेरा लगाने के बाद से उसकी आवाज नहीं आई। किसी को तीन बजे उसके घर के पास आहट मिली थी। इतनी गवाहियों के बावजूद उसका घर या नाम लोगों को मालूम नहीं होता। पुलिस भी सबसे पहले चौकीदार को ही थाने में बिठा कर रखती, कई बार उसकी पुलिसिया आव-भगत भी होती थी। लेकिन वो अपनी बेगुनाही गिनाते हुए फिर चौकीदारी करता रहता। पुलिस की डायल 100 के रात में बजते हूटर और मोटरसाइकिल पर देर रात घर के सामने से गुजरते हवलदारों की तेज आवाज में  आपसी श्लीलबातचीत के बीच चौकीदार की सीटी कब बजना बंद हो गई पता ही नहीं चला। अब कोई उसे महीने की तीस रातों के जागरण के दस रुपये नहीं देना चाहता। चौकीदार भी अपना मेहनताना बढ़ाने लगा तो अगली बार ले जाना की झिड़की के साथ उसकी लाठी की धमक ही मोहल्ले से विलुप्त हो गई। रही सही कसर, घर में पाले जाने वाले विदेशी नस्ल के कुत्तों और सीसीटीवी कैमरों ने पूरी कर दी। जब घर-घर चौकीदार बैठा है तो बाहरी चौकीदार को पैसे देने की क्या जरूरत?
 लेकिन ये क्या? साल 2014 से चौकीदार नई भूमिका में आ गया है। ऐसा आया कि अब देश का प्रधानमंत्री जोर-जोर से खुद को चौकीदार बता रहा है। उसने सत्ता से जिन्हें बेदखल किया, वो तमाम लोग दोबारा सिंहासन बत्तीसी अर्जित करने के लिए चौकीदार को चोर बता रहे हैं। चौकीदार भी बदल गया है, वो जी शाबवाला नहीं है। वो जो सरेआम धमकियां देता है। हुंकार लगाता है। अब सवाल यह है कि सत्ता चलाने वाला चौकीदार होता है तो उससे पहले के सभी नेता भी चौकीदार ही हुए। वार्ड का पार्षद हो, क्षेत्र का विधायक या फिर सांसद ये भी चौकीदार ही हैं। जब इतने चौकीदार भरे पड़े हैं, फिर क्यों जनता के हक और सरकार के खजाने से चोरी हो रही है? क्यों बोफोर्स से लेकर राफेल विमान खरीदी में और पाताल से लेकर आकाश तक चोरी के आरोप इन्हीं चौकीदारों पर लगते हैं? चुनाव लड़ते समय चौकीदार साइकिल की कीमत वाली जिस खटारा कार को अपनी बताते हैं, उसमें मोहल्ले के चौकीदार की तरह वे कभी  सवारी करते क्यों नहीं दिखते? राजनीतिक चौकीदारों के पास लग्जरी गाड़ियां कहां से आती हैं? सरकारी तौर पर मिलने वाली उनकी हवाई यात्रा से कई गुना ज्यादा यात्राएं वे बिजनेस क्लास में कैसे कर लेते हैं?
लौटें फ्लैशबैक में....मोहल्ले का चौकीदार जब गांव जाता था तो जिसे अपना भाई बता कर चौकीदारी सौंपता था उससे अपनी टेरेटरी वापस लेने लौटता नहीं था। कई बार तो पुराना चौकीदार नई बनी कॉलोनी में अपनी नई चौकीदारी जमाते दिख जाता। लगता था जैसे काशी और प्रयागराज के पंडों की तरह उसने भी अपने यजमान दूसरे को सौंप दिए हों। यदि नए चौकीदार के एरिया में चोरी हो जाए और शक उसी पर हो तब पुराना चौकीदार बिरादर के निर्दोष होने का भरोसा दिलाने घर-घर फेरे लगाता दिखता था। मजाल है कि कभी किसी चौकीदार ने अपनी बिरादरी के किसी दूसरे चौकीदार पर चोर होने की तोहमत लगाई हो। लगाता भी क्यों, यह उसके पेशे और पीढियों से कमाई गई ईमानदारी की दौलत का सवाल जो था। भरोसे की इसी फसल के दम पर कई दशकों से वो लोग दूर देश से आकर यहां गुजर-बसर करते हुए अपने परिवार के लालन-पालन का प्रबंध कर रहे थे। उन्हीं की तरह भरोसा  देश की जनता ने राजनीतिक चौकीदारों पर किया। हर पांच साल में किया। फिर क्यों आज के नए चौकीदार अपनी ही बिरादरी वाले को चोर की नजर से देखते हैं? किस पर एतबार करें और किस पर न करें! आज वाला चौकीदार पुराने को चोर कह रहा है और पुराना नए को। कहीं ऐसा न हो जाए कि लोगों का पूरी चौकीदार बिरादरी से ही भरोसा उठ जाए और चोर-चोर मौसेरे भाईकी जगह देश में नया मुहावरा सुनने मिलने लगे चौकीदार-चौकीदार मौसेरे भाई।


Wednesday, January 23, 2019

व्हाट्स हैपनिंग....शिवराज जी!


सरकार गई तो फिर ये भावांतर और बैसाखी राग क्यों ?


'मध्यप्रदेश में कुछ अजीब हुआ। वोट शेयर भाजपा का ज्यादा रहा, हालांकि कांग्रेस की कुछ सीटें ज्यादा आईं और फिर एक मजबूर और लंगड़ी सरकार बना ली गई। सरकार हम भी बना सकते थे, लेकिन हमने फैसला किया कि शानदार बहुमत से सरकार बनाएंगे, ऐसी मजबूर सरकार नहीं।'
दिल्ली के ऐतिहासिक रामलीला मैदान में इतवार को युवा संकल्प रैली में यह शिवराज

सिंह चौहान का संबोधन था। संबोधन कहें कि पीड़ा अथवा टीस! हो सकता है कि 13 साल के मुख्यमंत्री की कुर्सी का हैंगओवर उन्हें बार-बार ऐसे बयान देने पर विवश कर रहा हो।

जो भी हो अब पूर्व मुख्यमंत्री हो चुके शिवराज विरोधी दल यानी सत्तारुढ़ कांग्रेस पर जितने हमलावर हैं, उससे कुछ कम प्रहार उनके अपने दल पर भी नहीं हैं। यह भी हो सकता है कि आज भी वे यही भ्रम पाले हों कि मध्यप्रदेश भाजपा में वे ही एकमात्र सर्वमान्य नेता हैं। उनके बोल पर पार्टी बोलेगी और उनकी चाल ही चलेगी। शायद यही विश्वास उन्हें उस राह चला रहा है, जिस मार्ग वे चलते दिखते हैं।
क्यों ना, चौहान साहब कपिल देव या गावस्कर की तरह बड़ा दिल दिखा कर कहें कि मध्यप्रदेश की पिच पर उन्होंने वो रिकॉर्ड कायम किया है जिसे कोई और नहीं तोड़ सकता। अब नए खिलाड़ियों को आगे बढ़ाएंगे। लेकिन राजनीति भी आज का क्रिकेट हो गई है। पॉवर, पैसा और ग्लैमर इतना ज्यादा है कि कोई दूसरे के लिए जगह छोड़ना ही नहीं चाहता। अब देखो ना! शिवराज के मध्यप्रदेश न छोड़ने के ऐलान को अनसुना कर केंद्रीय नेतृत्व ने उन्हें राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना दिया। यहां भाजपा विधायक दल का नेतृत्व करने का जिम्मा अनुभवी विधायक और लगातार 15 साल मंत्री रहे गोपाल भार्गव को सौंपा। अब असली विपक्ष का नेता कौन? प्रतियोगिता चल रही है। पंद्रहवीं विधानसभा के शुरूआती सत्र में यह साफ-साफ दिखी। जब पूर्व मुख्यमंत्री नए नेता प्रतिपक्ष को ओव्हरलेप करते दिखे, यहां तक कि सदन में विपक्ष की पहले नंबर की कुर्सी पर भी वे आसीन रहे। यह खींचतान अभी भी दिख रही है। शिवराज और गोपाल भार्गव में तू डाल-डाल मैं पात-पात का खेल चल रहा है। कमलनाथ सरकार को घेरने दोनों समानांतर बयानबाजी कर रहे हैं। गेहूं के समर्थन मूल्य को लेकर दोनों की अपनी ढपली अपना राग है।
शिवराज ने एक कदम आगे बढ़ कर उस भावांतर भुगतान योजना को बंद न करने के लिए कमलनाथ को चिट्ठी लिख डाली, जिससे उनकी पार्टी ही सहमत नहीं थी। विधानसभा चुनाव की अपनी शताधिक सभाओं में शिवराज ने शायद ही कहीं भावांतर का जरा सा भी जिक्र किया हो। अंदर की खबर थी कि सर्वे रिपोर्ट के आधार पर पार्टी ने ही इस योजना का गुणगान करने से उन्हें रोका था, क्योंकि भावांतर से वोट के बाजार में भाजपा का भाव गिरने का अंदेशा था। भाजपा उस योजना के क्या लाभ गिनाती, जिससे तत्कालीन मुख्यमंत्री खुद अपनी पार्टी को सहमत नहीं कर पाए थे। इसे फायदे का सौदा बताने के लिए कृषि विभाग के उन्हीं प्रमुख सचिव राजेश राजौरा को दीनदयाल परिसर में भाजपा की बैठक में प्रजेंटेशन देना पड़ा था, जिनकी सलाह पर कमलनाथ सरकार इससे पल्ला झाड़ने की तैयारी कर रही है। शिवराज का राग भावांतर क्या फिर से उन्हें उसी मुकाम पर पहुंचा सकता है, जिसकी तमन्ना है। लोकसभा चुनाव की मजबूरी में फिलहाल तो नए नवेले कृषि मंत्री सचिव यादव को इस योजना पर अपना स्टैण्ड बदलना पड़ा और इससे शिवराज सिंह का सीना 56 इंच का हो रहा है, लेकिन भावांतर से किसान खुश थे तो वे शिव-राज में इसके खिलाफ क्यों थे?
जहां तक मजबूर सरकार की जगह मजबूत सरकार देने की उनकी मंशा है तो फिर क्यों भाजपा ने विधानसभा अध्यक्ष से लेकर उपाध्यक्ष के चुनाव तक शक्ति परीक्षण की मांग की थी और सरे बाजार अपनी भद्द पिटवाई थी। लंगड़ी सरकार की बैसाखी उनके पास है तो व्यापक प्रदेश हित में क्यों उसे घर में रख कर चुप बैठे हैं? सच यह है कि बैसाखी ही नहीं सहारे की एक लाठी भी भाजपा से अभी दूर है। ट्विटर के जिस व्हाट्स हैपनिंग शब्द पर चौहान जोर दे रहे हैं क्या वही शब्द उनसे नहीं पूछ रहा है कि व्हाट्स हैपनिंग....ये क्या हो रहा है...! तेरह साल पहले चूको मत चौहान कह कर शिवराज को दिशा दिखाने वाले पूर्व मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा भी अब नहीं हैं, जो कह सकें सब्र करो चौहान। अब तो खुद शिवराज को देखना होगा वे किस ट्रैक पर हैं और उनके साथ रेस में कौन-कौन है।

                                                                                                ( दैनिक सच एक्सप्रेस का स्तंभ-अनकही)

Thursday, January 17, 2019

यूंही ‘किसान-नाथ’ नहीं बने कमलनाथ


आवरण बदलने का यह खेल अनूठा है। सालों लग जाते हैं लोगों को अपनी एक इमेज बनाने में और बदलने में। महज दो घंटे में कोई अचानक उद्योगपति से किसान बन जाए...! यह कमाल किया है कमलनाथ ने। चालीस साल के अपने राजनीतिक जीवन में कमलनाथ की पहचान उनका बड़ा उद्योगपति होना ही रही है। डेढ़ माह पहले हुए विधानसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और 13 साल के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से लेकर भाजपा का छोटा-मोटा प्रवक्ता तक उन्हें इंडस्ट्रलिस्ट ही बोलता था। कांग्रेस में भी अपने प्रदेशाध्यक्ष के निर्विवाद उद्योगपति होने का गर्व करने वालों की कमी नहीं रही। लेकिन यह क्या....वक्त बदला, सरकार बदली तो पहचान भी बदल गई है।
मुख्यमंत्री कमलनाथ की असली पहचान है उनका राजनीतिक तथा सामाजिक कार्यकर्ता और किसान होना। उनके परिवार के कई उद्योग हैं, लेकिन वह पहले ही कह चुके हैं कि उनकी इनमें से किसी में भी भागीदारी नहीं है। इसीलिए उनके बायोडाटा में उद्योगों का जिक्र नहीं हैं। मुख्यमंत्री के तौर पर उनका जो परिचय दिया गया है वह है- राजनीतिक, सामाजिक कार्यकर्ता और किसान। वैसा किसान नहीं जो खुद के किसान होने का ढिंढोरा पीटता हो। कमलनाथ का वास्ता खेती-किसानी से है तो खेत-खलिहानों में काम करने वाले किसानों से उनका जोड़ ऐसा बैठा कि खुद को किसान पुत्र बताने वाले शिवराज को एक बार फिर खेतों की दौड़ लगानी पड़ी है। कमलनाथ दावा नहीं करते कि उन्होंने कभी हल चलाया है या बैलगाड़ी हांकी है, लेकिन उन्होंने कल तक शिवराज के कान में कर्जमाफी के खिलाफ मंत्र फूंकने वाली नौकरशाही को ऐसा हांका  है कि उनके मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने से पहले कर्जमाफी का ब्ल्यूप्रिंट तैयार हो गया था। नाथ ने प्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सीं संभाली तो पहला आदेश किसानों के कर्जे माफ करने का ही निकाला। इसमें समय लगा महज डेढ़ घंटा, क्योंकि शपथग्रहण स्थल से मंत्रालय तक आने और चार्ज लेने में इतना समय जो लगना था। किसानों को राहत देने का यह वादा कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने किया था और उसे पूरा करना कमलनाथ और उनकी पार्टी का प्रथम लक्ष्य था। मंशा मजबूत थी तो अफसरशाही का कोई भी अड़ंगा आड़े नहीं आया। अब एक माह पूरा होने से पहले किसानों को ऋणमुक्त करने की प्रक्रिया शुरू हो गई। वह भी किसानों के नाम पर।
जय किसान फसल ऋण माफी योजना। यह नाम दिया है कमलनाथ ने इस योजना का। कहीं मुख्यमंत्री या अपना नाम नहीं। मीडिया से लेकर किसानों तक ने देखा कि जो कार्यक्रम हो रहा था उसके बैकड्रॉप पर मुख्यमंत्री फसल ऋण माफी योजना की लांचिंग की जानकारी दी गई थी। प्रचार भी यही हुआ था, लेकिन मंच पर आते ही कमलनाथ ने मुख्यमंत्री की जगह जय किसान शब्द करा कर तेरा तुझ को अर्पण क्या लागे मेराको चरितार्थ कर दिया। प्रदेश में सत्ता बदलने के बाद यह बड़े बदलाव का आगाज है। पिछली सरकार में हर काम मुख्यमंत्री का नाम जोड़ कर होता था। कोई भी योजना मुख्यमंत्री की ब्रांडिंग का ध्यान रखे बिना नहीं बनती थी। ध्यान रखना ही पड़ता था, क्योंकि इन्हीं योजनाओं के दम पर शिवराज सरकार की वापसी का भ्रम पाला गया था। कमलनाथ ने एक झटके में ऐसे सारे भ्रमजाल हटा दिए। जिनके लिए काम हो रहा है, वो उनके ही नाम हो और उन्हें ही समर्पित किया जाए।
तो, आवरण बदलना। चरित्र परिवर्तन कैसे? कर्जमाफी का यह एक वरदान विपक्ष के तमाम आरोपों को भोथरा कर रहा है। कमलनाथ आज प्रदेश के सबसे सच्चे किसान साबित हो गए हैं। सरकार के खाली खजाने के बावजूद वे प्रदेश के 55 लाख किसानों को 50 हजार करोड़ रुपए की राहत देंगे। भावांतर भुगतान से लेकर शिवराज की तमाम योजनाओं में साल भर में बांटी गई 32 हजार करोड़ रुपए की रकम से यह राहत कहीं ज्यादा है और सिंगल शॉट डिलीवरी है। नई सरकार की यह उपलब्धि है कि उसके आते ही भारतीय किसान संघ से लेकर गन्ना उत्पादकों तक ने आंदोलन की भूमिका बनाई...भोपाल की राह पकड़ी, लेकिन उनके विरोध को वैसा समर्थन नहीं मिला जैसा किसान पुत्र की सरकार के दौरान मिलता था। बदलाव का यह अध्याय बता रहा है कि कमलनाथ भले ही खुद के किसान होने की ब्रांडिंग करने से बचते रहे हों, लेकिन किसान का दर्द दूर करने की दवा की समझ उन्हें किसी और से ज्यादा है। शायद यही वजह है कि आज प्रदेश में किसानों के पुराने सभी नेता अपनी पहचान के लिए संघर्ष करते दिख रहे हैं और छिंदवाड़ा के नाथ किसान-नाथ बन गए हैं। एक सच यह भी है कि अन्नदाता की ऋणग्रस्तता की यह बीमारी फौरी उपचार से ज्यादा स्थाई निदान मांगती है। किसान-नाथ की चिरकालीन पहचान कायम करनी है तो बीमारी को जड़ से मिटाना होगा। वातावरण ऐसा बनाना होगा कि कोई भी किसान कर्जे के फेर में पड़े ही नहीं।  

                                                                                                ( दैनिक सच एक्सप्रेस का कॉलम- अनकही )

Tuesday, January 15, 2019

सरकार! वक्त बदला पर चाल तो वैसी ही है....


माहौल ठीक वैसा ही है जैसा 15 साल पहले की मकर संक्रांति पर था। सरकार बिल्कुल वैसी ही चल रही है जैसी जनवरी 2004 में थी। फर्क बस इतना है कि तब तत्कालीन मुख्यमंत्री उमा भारती बेहद उत्साही थीं, अबकी बार के मुख्यमंत्री कमलनाथ शांत प्रवृत्ति के हैं। कमलनाथ के मंत्री वैसे ही अपना विभाग और सरकार चला रहे हैं, जैसा उस समय के नए नवेले मंत्री कर रहे थे। तो बदला क्या है इन पंद्रह बरसों में? बदली है सरकार और सरकार चलाने वाले नेता। सरकार की असली धुरी प्रशासन तो जस का तस है।
दिसंबर 2003 में तब उमा भारती के नेतृत्व में दस साल की दिग्विजय सिंह सरकार को उखाड़कर भाजपा सत्ता में आई थी। दिग्गी राज के कुशासन को कोसते हुए वह सरकार बनी थी, तो आनन-फानन में पिछली सरकार की नीतियों और योजनाओं को बदलने के लिए उमा के मंत्री खासे उतावले थे। उस सरकार के घपले-घोटालों की पोल-पट्टी खोलने के लिए फाइलें खंगाली जा रही थीं। अफसरों की लिस्ट रख कर पोस्टिंग हो रही थी कि कौन कांग्रेसी मानसिकता का है, कौन न्यूट्रल और कौन विचारधारा से जुड़ा हुआ। इस कवायद का असर यह हुआ कि कई बड़े अफसर भी खाकी निकर पहन कर सुबह की सैर पर जाने लगे थे। पंद्रह साल बाद समय बदला को अब अफसरों की खाकी पतलून संदूक के हवाले हो गई और ब्रांडेड ट्रेक सूट में जॉगिंग होने लगी है। हो भी क्यों ना! आज भी तो इतिहास वही दोहराया जा रहा है। अफसरों की कुंडली देखी जा रही है कि वो संघी तो नहीं हैं। संघी निकले तो पशुपालन जैसा महकमा  उनकी बाट जोह ही रहा है।

 शिव-राज के कुशासन, अवैध उत्खनन और घोटालों को सामने रख कर बनी कमलनाथ सरकार की यह उपलब्धि है कि उसके 28 मंत्रियों में से 22 को पहली बार सरकार में भागीदारी मिली है, वो भी सीधे कैबिनेट मंत्री के तौर पर। अनुभवशून्यता की वजह से सभी नए मंत्रियों की पहली प्राथमिकता अपने विभाग की पड़ताल बन गई है। अफसरों से पिछली सरकार के दौरान हुए टेंडर, महत्वपूर्ण आदेश-निर्देश मांगे जा रहे हैं। उनका छिद्रान्वेषण किया जा रहा है कि वे कितने निरापद थे। किसी को फायदा पहुंचाने की कोशिश तो नहीं हुई। कांग्रेस का वो वचनपत्र अब किनारे धर दिया गया है, जो मंत्रीपद की शपथ लेते समय गीता-कुरान और बाइबल था।
विभाग मिलते ही मंत्रियों को सबसे पहले पुराने मंत्रियों के पुराने काम याद आ रहे हैं। गड़बड़ियां उजागर करने की उनकी अच्छी मंशा अपनी जगह, लेकिन क्या कोई अफसर खुद के द्वारा पिछली सरकार में किए गए कार्यों का कच्चा-चिट्ठा खोलेगा? खोलेगा तो वह बेदाग कैसे बचा रहेगा? देश के किसी कोने में किसी भी अफसर के साथ हुई घटना पर एकजुट होने वाली ब्यूरोक्रेसी खुद के या अपनी जमात के परखच्चे उड़ाने का सामान मुहैया कराएगी, यह उम्मीद इनसे कैसे की जा सकती है ?  2003 में भी तो यही हुआ था दिग्विजय सिंह सरकार पर हजारों करोड़ के घोटाले के आरोप और उनकी जांच कर दोषियों को सींखचों के पीछे भेजने की हुंकार के साथ बनी उमा सरकार ही नहीं उनके उत्तराधिकारी बाबूलाल गौर और शिवराज सिंह चौहान की सरकार भी पूरे पंद्रह साल में सरकारी भ्रष्टाचार का एक भी पुराना मामला उजागर नहीं कर पाई थी। दिग्गी राजा को एकमात्र जिस मामले में उलझाया गया वो विधानसभा में हुई नियुक्तियों का था। खैर, नई सरकार है और नए मंत्री इसलिए उन्हें हक है कि वो हर उस मामले की तफ्तीश करें, जिसमें जरा से भी भ्रष्टाचार या गड़बड़ी की गुंजाइश हो। कोशिश करने में हर्ज भी क्या है।  कोशिश ऐसी होनी चाहिए कि वास्तविकता में परिवर्तन हो और व्यवस्थाएं सुधरें।
मैग्नीफाइंग ग्लास वाली पड़ताल से फारिग हो जाएं तो वचनपत्र सामने रख कर प्रदेश के विकास और जनहित के कार्यों के लिए भी समय निकालें। नीतियों, कार्यक्रमों और व्यवस्था में परिवर्तन करें तो ऐसा कि बदला नहीं बदलाव दिखे। मुख्यमंत्री कमलनाथ भी तो यही चाहते हैं। ऐसा न हो कि पिछली सरकार ने भी व्यापमं घोटाले के बाद इस संस्था का नाम बदला था और आप भी सिर्फ नाम बदलने के जतन में जुट जाएं। उनके दौर में शुरू होने वाली भर्ती परीक्षा को रोक कर कहीं आप रोजगार देने के अपने वचन के खुद आड़े तो नहीं आ रहे। उचित होगा कि प्रवेश और भर्ती के लिए ऐसी अलग-अलग संस्थाएं बनाएं, जिनमें डॉ. सागर जैसे लोगों के लिए सेंध लगाने की कोई गुंजाइश न रहे।

अशोक, तुम्हारे हत्यारे हम हैं...

अशोक से खरीदा गया वो आखिरी पेन आज हाथ में है, लेकिन उससे कुछ लिखने का मन नहीं है। अशोक... जिसे कोई शोक न हो। यही सोच कर नामकरण किया होगा उसक...