सरकार गई तो फिर ये भावांतर और बैसाखी राग क्यों ?
'मध्यप्रदेश में कुछ अजीब हुआ। वोट शेयर भाजपा का ज्यादा रहा, हालांकि कांग्रेस की कुछ सीटें ज्यादा आईं और फिर एक मजबूर और लंगड़ी सरकार बना ली गई। सरकार हम भी बना सकते थे, लेकिन हमने फैसला किया कि शानदार बहुमत से सरकार बनाएंगे, ऐसी मजबूर सरकार नहीं।'
दिल्ली
के ऐतिहासिक रामलीला मैदान में इतवार को युवा संकल्प रैली में यह शिवराज
सिंह
चौहान का संबोधन था। संबोधन कहें कि पीड़ा अथवा टीस! हो सकता है कि 13 साल के
मुख्यमंत्री की कुर्सी का हैंगओवर उन्हें बार-बार ऐसे बयान देने पर विवश कर रहा
हो।
जो
भी हो अब पूर्व मुख्यमंत्री हो चुके शिवराज विरोधी दल यानी सत्तारुढ़ कांग्रेस पर
जितने हमलावर हैं, उससे कुछ कम प्रहार उनके अपने दल पर भी
नहीं हैं। यह भी हो सकता है कि आज भी वे यही भ्रम पाले हों कि मध्यप्रदेश भाजपा में
वे ही एकमात्र सर्वमान्य नेता हैं। उनके बोल पर पार्टी बोलेगी और उनकी चाल ही चलेगी। शायद यही विश्वास
उन्हें उस राह चला रहा है,
जिस मार्ग वे
चलते दिखते हैं।
क्यों
ना, चौहान साहब कपिल देव या गावस्कर की तरह बड़ा दिल दिखा कर कहें कि मध्यप्रदेश की
पिच पर उन्होंने वो रिकॉर्ड कायम किया है जिसे कोई और नहीं तोड़ सकता। अब नए
खिलाड़ियों को आगे बढ़ाएंगे। लेकिन राजनीति भी आज का क्रिकेट हो गई है। पॉवर, पैसा और ग्लैमर इतना ज्यादा है कि कोई
दूसरे के लिए जगह छोड़ना ही नहीं चाहता। अब देखो ना! शिवराज के मध्यप्रदेश न छोड़ने
के ऐलान को अनसुना कर केंद्रीय नेतृत्व ने उन्हें राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना दिया।
यहां भाजपा विधायक दल का नेतृत्व करने का जिम्मा अनुभवी विधायक और लगातार 15 साल
मंत्री रहे गोपाल भार्गव को सौंपा। अब असली विपक्ष का नेता कौन? प्रतियोगिता चल रही है। पंद्रहवीं
विधानसभा के शुरूआती सत्र में यह साफ-साफ दिखी। जब पूर्व मुख्यमंत्री नए नेता
प्रतिपक्ष को ओव्हरलेप करते दिखे, यहां तक कि सदन में विपक्ष की पहले नंबर की
कुर्सी पर भी वे आसीन रहे। यह खींचतान अभी भी दिख रही है। शिवराज और गोपाल भार्गव
में ‘तू
डाल-डाल मैं पात-पात’ का खेल चल रहा है। कमलनाथ सरकार को घेरने दोनों समानांतर बयानबाजी
कर रहे हैं। गेहूं के समर्थन मूल्य को लेकर दोनों की ‘अपनी ढपली अपना राग’ है।
शिवराज
ने एक कदम आगे बढ़ कर उस भावांतर भुगतान योजना को बंद न करने के लिए कमलनाथ को
चिट्ठी लिख डाली, जिससे उनकी पार्टी ही सहमत नहीं थी।
विधानसभा चुनाव की अपनी शताधिक सभाओं में शिवराज ने शायद ही कहीं भावांतर का जरा
सा भी जिक्र किया हो। अंदर की खबर थी कि सर्वे रिपोर्ट के आधार पर पार्टी ने ही इस
योजना का गुणगान करने से उन्हें रोका था, क्योंकि भावांतर से वोट के बाजार में भाजपा का भाव गिरने का अंदेशा
था। भाजपा उस योजना के क्या लाभ गिनाती, जिससे तत्कालीन मुख्यमंत्री खुद अपनी पार्टी को सहमत नहीं कर पाए थे।
इसे फायदे का सौदा बताने के लिए कृषि विभाग के उन्हीं प्रमुख सचिव राजेश राजौरा को
दीनदयाल परिसर में भाजपा की बैठक में प्रजेंटेशन देना पड़ा था, जिनकी सलाह पर
कमलनाथ सरकार इससे पल्ला झाड़ने की तैयारी कर रही है। शिवराज का राग भावांतर क्या
फिर से उन्हें उसी मुकाम पर पहुंचा सकता है, जिसकी तमन्ना है। लोकसभा चुनाव की मजबूरी में फिलहाल तो
नए नवेले कृषि मंत्री सचिव यादव को इस योजना पर अपना स्टैण्ड बदलना पड़ा और इससे
शिवराज सिंह का सीना 56 इंच का हो रहा है, लेकिन भावांतर से किसान खुश थे तो वे
शिव-राज में इसके खिलाफ क्यों थे?
जहां
तक मजबूर सरकार की जगह मजबूत सरकार देने की उनकी मंशा है तो फिर क्यों भाजपा ने
विधानसभा अध्यक्ष से लेकर उपाध्यक्ष के चुनाव तक शक्ति परीक्षण की मांग की थी और
सरे बाजार अपनी भद्द पिटवाई थी। लंगड़ी सरकार की बैसाखी उनके पास है तो व्यापक
प्रदेश हित में क्यों उसे घर में रख कर चुप बैठे हैं? सच यह है कि बैसाखी ही नहीं सहारे की
एक लाठी भी भाजपा से अभी दूर है। ट्विटर के जिस ‘व्हाट्स हैपनिंग’ शब्द पर चौहान जोर दे रहे हैं क्या
वही शब्द उनसे नहीं पूछ रहा है कि व्हाट्स हैपनिंग....ये क्या हो रहा है...! तेरह साल पहले ‘चूको मत चौहान’ कह कर शिवराज को दिशा दिखाने वाले
पूर्व मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा भी अब नहीं हैं, जो कह सकें ‘सब्र करो चौहान’। अब तो खुद शिवराज को देखना होगा वे
किस ट्रैक पर हैं और उनके साथ रेस में कौन-कौन है।
( दैनिक सच एक्सप्रेस का स्तंभ-अनकही)


