Wednesday, January 23, 2019

व्हाट्स हैपनिंग....शिवराज जी!


सरकार गई तो फिर ये भावांतर और बैसाखी राग क्यों ?


'मध्यप्रदेश में कुछ अजीब हुआ। वोट शेयर भाजपा का ज्यादा रहा, हालांकि कांग्रेस की कुछ सीटें ज्यादा आईं और फिर एक मजबूर और लंगड़ी सरकार बना ली गई। सरकार हम भी बना सकते थे, लेकिन हमने फैसला किया कि शानदार बहुमत से सरकार बनाएंगे, ऐसी मजबूर सरकार नहीं।'
दिल्ली के ऐतिहासिक रामलीला मैदान में इतवार को युवा संकल्प रैली में यह शिवराज

सिंह चौहान का संबोधन था। संबोधन कहें कि पीड़ा अथवा टीस! हो सकता है कि 13 साल के मुख्यमंत्री की कुर्सी का हैंगओवर उन्हें बार-बार ऐसे बयान देने पर विवश कर रहा हो।

जो भी हो अब पूर्व मुख्यमंत्री हो चुके शिवराज विरोधी दल यानी सत्तारुढ़ कांग्रेस पर जितने हमलावर हैं, उससे कुछ कम प्रहार उनके अपने दल पर भी नहीं हैं। यह भी हो सकता है कि आज भी वे यही भ्रम पाले हों कि मध्यप्रदेश भाजपा में वे ही एकमात्र सर्वमान्य नेता हैं। उनके बोल पर पार्टी बोलेगी और उनकी चाल ही चलेगी। शायद यही विश्वास उन्हें उस राह चला रहा है, जिस मार्ग वे चलते दिखते हैं।
क्यों ना, चौहान साहब कपिल देव या गावस्कर की तरह बड़ा दिल दिखा कर कहें कि मध्यप्रदेश की पिच पर उन्होंने वो रिकॉर्ड कायम किया है जिसे कोई और नहीं तोड़ सकता। अब नए खिलाड़ियों को आगे बढ़ाएंगे। लेकिन राजनीति भी आज का क्रिकेट हो गई है। पॉवर, पैसा और ग्लैमर इतना ज्यादा है कि कोई दूसरे के लिए जगह छोड़ना ही नहीं चाहता। अब देखो ना! शिवराज के मध्यप्रदेश न छोड़ने के ऐलान को अनसुना कर केंद्रीय नेतृत्व ने उन्हें राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना दिया। यहां भाजपा विधायक दल का नेतृत्व करने का जिम्मा अनुभवी विधायक और लगातार 15 साल मंत्री रहे गोपाल भार्गव को सौंपा। अब असली विपक्ष का नेता कौन? प्रतियोगिता चल रही है। पंद्रहवीं विधानसभा के शुरूआती सत्र में यह साफ-साफ दिखी। जब पूर्व मुख्यमंत्री नए नेता प्रतिपक्ष को ओव्हरलेप करते दिखे, यहां तक कि सदन में विपक्ष की पहले नंबर की कुर्सी पर भी वे आसीन रहे। यह खींचतान अभी भी दिख रही है। शिवराज और गोपाल भार्गव में तू डाल-डाल मैं पात-पात का खेल चल रहा है। कमलनाथ सरकार को घेरने दोनों समानांतर बयानबाजी कर रहे हैं। गेहूं के समर्थन मूल्य को लेकर दोनों की अपनी ढपली अपना राग है।
शिवराज ने एक कदम आगे बढ़ कर उस भावांतर भुगतान योजना को बंद न करने के लिए कमलनाथ को चिट्ठी लिख डाली, जिससे उनकी पार्टी ही सहमत नहीं थी। विधानसभा चुनाव की अपनी शताधिक सभाओं में शिवराज ने शायद ही कहीं भावांतर का जरा सा भी जिक्र किया हो। अंदर की खबर थी कि सर्वे रिपोर्ट के आधार पर पार्टी ने ही इस योजना का गुणगान करने से उन्हें रोका था, क्योंकि भावांतर से वोट के बाजार में भाजपा का भाव गिरने का अंदेशा था। भाजपा उस योजना के क्या लाभ गिनाती, जिससे तत्कालीन मुख्यमंत्री खुद अपनी पार्टी को सहमत नहीं कर पाए थे। इसे फायदे का सौदा बताने के लिए कृषि विभाग के उन्हीं प्रमुख सचिव राजेश राजौरा को दीनदयाल परिसर में भाजपा की बैठक में प्रजेंटेशन देना पड़ा था, जिनकी सलाह पर कमलनाथ सरकार इससे पल्ला झाड़ने की तैयारी कर रही है। शिवराज का राग भावांतर क्या फिर से उन्हें उसी मुकाम पर पहुंचा सकता है, जिसकी तमन्ना है। लोकसभा चुनाव की मजबूरी में फिलहाल तो नए नवेले कृषि मंत्री सचिव यादव को इस योजना पर अपना स्टैण्ड बदलना पड़ा और इससे शिवराज सिंह का सीना 56 इंच का हो रहा है, लेकिन भावांतर से किसान खुश थे तो वे शिव-राज में इसके खिलाफ क्यों थे?
जहां तक मजबूर सरकार की जगह मजबूत सरकार देने की उनकी मंशा है तो फिर क्यों भाजपा ने विधानसभा अध्यक्ष से लेकर उपाध्यक्ष के चुनाव तक शक्ति परीक्षण की मांग की थी और सरे बाजार अपनी भद्द पिटवाई थी। लंगड़ी सरकार की बैसाखी उनके पास है तो व्यापक प्रदेश हित में क्यों उसे घर में रख कर चुप बैठे हैं? सच यह है कि बैसाखी ही नहीं सहारे की एक लाठी भी भाजपा से अभी दूर है। ट्विटर के जिस व्हाट्स हैपनिंग शब्द पर चौहान जोर दे रहे हैं क्या वही शब्द उनसे नहीं पूछ रहा है कि व्हाट्स हैपनिंग....ये क्या हो रहा है...! तेरह साल पहले चूको मत चौहान कह कर शिवराज को दिशा दिखाने वाले पूर्व मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा भी अब नहीं हैं, जो कह सकें सब्र करो चौहान। अब तो खुद शिवराज को देखना होगा वे किस ट्रैक पर हैं और उनके साथ रेस में कौन-कौन है।

                                                                                                ( दैनिक सच एक्सप्रेस का स्तंभ-अनकही)

Thursday, January 17, 2019

यूंही ‘किसान-नाथ’ नहीं बने कमलनाथ


आवरण बदलने का यह खेल अनूठा है। सालों लग जाते हैं लोगों को अपनी एक इमेज बनाने में और बदलने में। महज दो घंटे में कोई अचानक उद्योगपति से किसान बन जाए...! यह कमाल किया है कमलनाथ ने। चालीस साल के अपने राजनीतिक जीवन में कमलनाथ की पहचान उनका बड़ा उद्योगपति होना ही रही है। डेढ़ माह पहले हुए विधानसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और 13 साल के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से लेकर भाजपा का छोटा-मोटा प्रवक्ता तक उन्हें इंडस्ट्रलिस्ट ही बोलता था। कांग्रेस में भी अपने प्रदेशाध्यक्ष के निर्विवाद उद्योगपति होने का गर्व करने वालों की कमी नहीं रही। लेकिन यह क्या....वक्त बदला, सरकार बदली तो पहचान भी बदल गई है।
मुख्यमंत्री कमलनाथ की असली पहचान है उनका राजनीतिक तथा सामाजिक कार्यकर्ता और किसान होना। उनके परिवार के कई उद्योग हैं, लेकिन वह पहले ही कह चुके हैं कि उनकी इनमें से किसी में भी भागीदारी नहीं है। इसीलिए उनके बायोडाटा में उद्योगों का जिक्र नहीं हैं। मुख्यमंत्री के तौर पर उनका जो परिचय दिया गया है वह है- राजनीतिक, सामाजिक कार्यकर्ता और किसान। वैसा किसान नहीं जो खुद के किसान होने का ढिंढोरा पीटता हो। कमलनाथ का वास्ता खेती-किसानी से है तो खेत-खलिहानों में काम करने वाले किसानों से उनका जोड़ ऐसा बैठा कि खुद को किसान पुत्र बताने वाले शिवराज को एक बार फिर खेतों की दौड़ लगानी पड़ी है। कमलनाथ दावा नहीं करते कि उन्होंने कभी हल चलाया है या बैलगाड़ी हांकी है, लेकिन उन्होंने कल तक शिवराज के कान में कर्जमाफी के खिलाफ मंत्र फूंकने वाली नौकरशाही को ऐसा हांका  है कि उनके मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने से पहले कर्जमाफी का ब्ल्यूप्रिंट तैयार हो गया था। नाथ ने प्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सीं संभाली तो पहला आदेश किसानों के कर्जे माफ करने का ही निकाला। इसमें समय लगा महज डेढ़ घंटा, क्योंकि शपथग्रहण स्थल से मंत्रालय तक आने और चार्ज लेने में इतना समय जो लगना था। किसानों को राहत देने का यह वादा कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने किया था और उसे पूरा करना कमलनाथ और उनकी पार्टी का प्रथम लक्ष्य था। मंशा मजबूत थी तो अफसरशाही का कोई भी अड़ंगा आड़े नहीं आया। अब एक माह पूरा होने से पहले किसानों को ऋणमुक्त करने की प्रक्रिया शुरू हो गई। वह भी किसानों के नाम पर।
जय किसान फसल ऋण माफी योजना। यह नाम दिया है कमलनाथ ने इस योजना का। कहीं मुख्यमंत्री या अपना नाम नहीं। मीडिया से लेकर किसानों तक ने देखा कि जो कार्यक्रम हो रहा था उसके बैकड्रॉप पर मुख्यमंत्री फसल ऋण माफी योजना की लांचिंग की जानकारी दी गई थी। प्रचार भी यही हुआ था, लेकिन मंच पर आते ही कमलनाथ ने मुख्यमंत्री की जगह जय किसान शब्द करा कर तेरा तुझ को अर्पण क्या लागे मेराको चरितार्थ कर दिया। प्रदेश में सत्ता बदलने के बाद यह बड़े बदलाव का आगाज है। पिछली सरकार में हर काम मुख्यमंत्री का नाम जोड़ कर होता था। कोई भी योजना मुख्यमंत्री की ब्रांडिंग का ध्यान रखे बिना नहीं बनती थी। ध्यान रखना ही पड़ता था, क्योंकि इन्हीं योजनाओं के दम पर शिवराज सरकार की वापसी का भ्रम पाला गया था। कमलनाथ ने एक झटके में ऐसे सारे भ्रमजाल हटा दिए। जिनके लिए काम हो रहा है, वो उनके ही नाम हो और उन्हें ही समर्पित किया जाए।
तो, आवरण बदलना। चरित्र परिवर्तन कैसे? कर्जमाफी का यह एक वरदान विपक्ष के तमाम आरोपों को भोथरा कर रहा है। कमलनाथ आज प्रदेश के सबसे सच्चे किसान साबित हो गए हैं। सरकार के खाली खजाने के बावजूद वे प्रदेश के 55 लाख किसानों को 50 हजार करोड़ रुपए की राहत देंगे। भावांतर भुगतान से लेकर शिवराज की तमाम योजनाओं में साल भर में बांटी गई 32 हजार करोड़ रुपए की रकम से यह राहत कहीं ज्यादा है और सिंगल शॉट डिलीवरी है। नई सरकार की यह उपलब्धि है कि उसके आते ही भारतीय किसान संघ से लेकर गन्ना उत्पादकों तक ने आंदोलन की भूमिका बनाई...भोपाल की राह पकड़ी, लेकिन उनके विरोध को वैसा समर्थन नहीं मिला जैसा किसान पुत्र की सरकार के दौरान मिलता था। बदलाव का यह अध्याय बता रहा है कि कमलनाथ भले ही खुद के किसान होने की ब्रांडिंग करने से बचते रहे हों, लेकिन किसान का दर्द दूर करने की दवा की समझ उन्हें किसी और से ज्यादा है। शायद यही वजह है कि आज प्रदेश में किसानों के पुराने सभी नेता अपनी पहचान के लिए संघर्ष करते दिख रहे हैं और छिंदवाड़ा के नाथ किसान-नाथ बन गए हैं। एक सच यह भी है कि अन्नदाता की ऋणग्रस्तता की यह बीमारी फौरी उपचार से ज्यादा स्थाई निदान मांगती है। किसान-नाथ की चिरकालीन पहचान कायम करनी है तो बीमारी को जड़ से मिटाना होगा। वातावरण ऐसा बनाना होगा कि कोई भी किसान कर्जे के फेर में पड़े ही नहीं।  

                                                                                                ( दैनिक सच एक्सप्रेस का कॉलम- अनकही )

Tuesday, January 15, 2019

सरकार! वक्त बदला पर चाल तो वैसी ही है....


माहौल ठीक वैसा ही है जैसा 15 साल पहले की मकर संक्रांति पर था। सरकार बिल्कुल वैसी ही चल रही है जैसी जनवरी 2004 में थी। फर्क बस इतना है कि तब तत्कालीन मुख्यमंत्री उमा भारती बेहद उत्साही थीं, अबकी बार के मुख्यमंत्री कमलनाथ शांत प्रवृत्ति के हैं। कमलनाथ के मंत्री वैसे ही अपना विभाग और सरकार चला रहे हैं, जैसा उस समय के नए नवेले मंत्री कर रहे थे। तो बदला क्या है इन पंद्रह बरसों में? बदली है सरकार और सरकार चलाने वाले नेता। सरकार की असली धुरी प्रशासन तो जस का तस है।
दिसंबर 2003 में तब उमा भारती के नेतृत्व में दस साल की दिग्विजय सिंह सरकार को उखाड़कर भाजपा सत्ता में आई थी। दिग्गी राज के कुशासन को कोसते हुए वह सरकार बनी थी, तो आनन-फानन में पिछली सरकार की नीतियों और योजनाओं को बदलने के लिए उमा के मंत्री खासे उतावले थे। उस सरकार के घपले-घोटालों की पोल-पट्टी खोलने के लिए फाइलें खंगाली जा रही थीं। अफसरों की लिस्ट रख कर पोस्टिंग हो रही थी कि कौन कांग्रेसी मानसिकता का है, कौन न्यूट्रल और कौन विचारधारा से जुड़ा हुआ। इस कवायद का असर यह हुआ कि कई बड़े अफसर भी खाकी निकर पहन कर सुबह की सैर पर जाने लगे थे। पंद्रह साल बाद समय बदला को अब अफसरों की खाकी पतलून संदूक के हवाले हो गई और ब्रांडेड ट्रेक सूट में जॉगिंग होने लगी है। हो भी क्यों ना! आज भी तो इतिहास वही दोहराया जा रहा है। अफसरों की कुंडली देखी जा रही है कि वो संघी तो नहीं हैं। संघी निकले तो पशुपालन जैसा महकमा  उनकी बाट जोह ही रहा है।

 शिव-राज के कुशासन, अवैध उत्खनन और घोटालों को सामने रख कर बनी कमलनाथ सरकार की यह उपलब्धि है कि उसके 28 मंत्रियों में से 22 को पहली बार सरकार में भागीदारी मिली है, वो भी सीधे कैबिनेट मंत्री के तौर पर। अनुभवशून्यता की वजह से सभी नए मंत्रियों की पहली प्राथमिकता अपने विभाग की पड़ताल बन गई है। अफसरों से पिछली सरकार के दौरान हुए टेंडर, महत्वपूर्ण आदेश-निर्देश मांगे जा रहे हैं। उनका छिद्रान्वेषण किया जा रहा है कि वे कितने निरापद थे। किसी को फायदा पहुंचाने की कोशिश तो नहीं हुई। कांग्रेस का वो वचनपत्र अब किनारे धर दिया गया है, जो मंत्रीपद की शपथ लेते समय गीता-कुरान और बाइबल था।
विभाग मिलते ही मंत्रियों को सबसे पहले पुराने मंत्रियों के पुराने काम याद आ रहे हैं। गड़बड़ियां उजागर करने की उनकी अच्छी मंशा अपनी जगह, लेकिन क्या कोई अफसर खुद के द्वारा पिछली सरकार में किए गए कार्यों का कच्चा-चिट्ठा खोलेगा? खोलेगा तो वह बेदाग कैसे बचा रहेगा? देश के किसी कोने में किसी भी अफसर के साथ हुई घटना पर एकजुट होने वाली ब्यूरोक्रेसी खुद के या अपनी जमात के परखच्चे उड़ाने का सामान मुहैया कराएगी, यह उम्मीद इनसे कैसे की जा सकती है ?  2003 में भी तो यही हुआ था दिग्विजय सिंह सरकार पर हजारों करोड़ के घोटाले के आरोप और उनकी जांच कर दोषियों को सींखचों के पीछे भेजने की हुंकार के साथ बनी उमा सरकार ही नहीं उनके उत्तराधिकारी बाबूलाल गौर और शिवराज सिंह चौहान की सरकार भी पूरे पंद्रह साल में सरकारी भ्रष्टाचार का एक भी पुराना मामला उजागर नहीं कर पाई थी। दिग्गी राजा को एकमात्र जिस मामले में उलझाया गया वो विधानसभा में हुई नियुक्तियों का था। खैर, नई सरकार है और नए मंत्री इसलिए उन्हें हक है कि वो हर उस मामले की तफ्तीश करें, जिसमें जरा से भी भ्रष्टाचार या गड़बड़ी की गुंजाइश हो। कोशिश करने में हर्ज भी क्या है।  कोशिश ऐसी होनी चाहिए कि वास्तविकता में परिवर्तन हो और व्यवस्थाएं सुधरें।
मैग्नीफाइंग ग्लास वाली पड़ताल से फारिग हो जाएं तो वचनपत्र सामने रख कर प्रदेश के विकास और जनहित के कार्यों के लिए भी समय निकालें। नीतियों, कार्यक्रमों और व्यवस्था में परिवर्तन करें तो ऐसा कि बदला नहीं बदलाव दिखे। मुख्यमंत्री कमलनाथ भी तो यही चाहते हैं। ऐसा न हो कि पिछली सरकार ने भी व्यापमं घोटाले के बाद इस संस्था का नाम बदला था और आप भी सिर्फ नाम बदलने के जतन में जुट जाएं। उनके दौर में शुरू होने वाली भर्ती परीक्षा को रोक कर कहीं आप रोजगार देने के अपने वचन के खुद आड़े तो नहीं आ रहे। उचित होगा कि प्रवेश और भर्ती के लिए ऐसी अलग-अलग संस्थाएं बनाएं, जिनमें डॉ. सागर जैसे लोगों के लिए सेंध लगाने की कोई गुंजाइश न रहे।

अशोक, तुम्हारे हत्यारे हम हैं...

अशोक से खरीदा गया वो आखिरी पेन आज हाथ में है, लेकिन उससे कुछ लिखने का मन नहीं है। अशोक... जिसे कोई शोक न हो। यही सोच कर नामकरण किया होगा उसक...