ऊ शाब हम छुट्टी पर जा रहा हूं...ये मेरा भाई अब आएगा...। आमतौर पर महीने में एक बार बख्शीश लेने के लिए दिन में आने वाले मोहल्ले के चौकीदार ने एक बार फिर उजाले में आकर अपना गुजारिश भरा फरमान सुनाया और दस रुपये के नोट के साथ सलाम ठोक कर चला गया। चौकीदार....रोज रात में सीटी बजाता और लट्ठ जमीन पर पटक कर अपनी आमद का अहसास कराने वाला चौकीदार कब बदल गया... इसका खुलासा दो-चार महीने बाद हुआ, जब पुराना चौकीदार लौट कर नहीं आया और नए ने उसकी जगह स्वयं को स्थापित कर लिया। क्या देश को चलाने वाले राजनीतिक चौकीदार भी ऐसे ही बदलते हैं?
‘चौकीदार चोर है’, ‘मैं भी
चौकीदार’, ‘चौकीदार फिर से’...जैसे
ट्विटर और इंस्टाग्राम आदि सोशल प्लेटफार्म पर चल रहे ‘चौकीदार’
कैंपेन के बीच मोहल्ले का चौकीदार बार-बार फ्लैशबैक में घूम रहा है।
दुबला पतला लेकिन तना हुआ। रात में साइकिल तो दिन में पैदल घूमता। गोरखा टोपी और
कमर में लटकती खुखरी के साथ चौकीदार होने का ‘आधार
कार्ड’ दिखाते उस आदमी का नाम पूछने की जरुरत कभी नहीं पड़ी। शहर बदला या फिर
मोहल्ला...चौकीदार रात में सीटी की गूंज के साथ अपने होने का अहसास कराता रहा।
स्कूल के दिनों में चौकीदार ही वो अलार्म घड़ी था जो मुंह अंधेरे चार बजे उठाने का
काम करता था। परीक्षा की तैयारी शुरू करने के साथ सबसे पहले चौकीदार को ही ताकीद
किया जाता था- सुबह इतने बजे जगा देना। मजाल है जो टाइम इधर से उधर हो जाए। जब तक
कमरे की रोशनी खिड़की से बाहर नहीं दिखती, वो घर के सामने
ही लट्ठ पटकता ‘जागते रहो’ की गूंज
लगाता रहता। उठने के संकेत मिलते ही फिर अपने रुटीन पर गायब होने वाला चौकीदार
पंद्रह मिनट या आधे घंटे बाद फिर फेरी लगा कर पक्का कर लेता था कि लाइट जला कर हम
दोबारा सो तो नहीं गए। अबकी बार वो तभी लौटता जब खिड़की या रोशनदान से मुंह दिखाई
के साथ दो-चार बातें न हो जाएं।
वो चौकीदार चोर है....! यह शक का कीड़ा उसी समय
कुलबुलाता जब मोहल्ले के किसी सूने घर में चोरी हो जाए और आस-पड़ोस के लोग कहें कि
रात में सीटी नहीं सुनाई दी। कोई कहता, साढ़े 12 बजे
पहला फेरा लगाने के बाद से उसकी आवाज नहीं आई। किसी को तीन बजे उसके घर के पास आहट
मिली थी। इतनी गवाहियों के बावजूद उसका घर या नाम लोगों को मालूम नहीं होता। पुलिस
भी सबसे पहले चौकीदार को ही थाने में बिठा कर रखती, कई बार
उसकी पुलिसिया आव-भगत भी होती थी। लेकिन वो अपनी बेगुनाही गिनाते हुए फिर चौकीदारी
करता रहता। पुलिस की डायल 100 के रात में बजते हूटर और मोटरसाइकिल पर देर रात घर
के सामने से गुजरते हवलदारों की तेज आवाज में
आपसी ‘श्लील’ बातचीत के बीच
चौकीदार की सीटी कब बजना बंद हो गई पता ही नहीं चला। अब कोई उसे महीने की तीस
रातों के जागरण के दस रुपये नहीं देना चाहता। चौकीदार भी अपना मेहनताना बढ़ाने लगा
तो अगली बार ले जाना की झिड़की के साथ उसकी लाठी की धमक ही मोहल्ले से विलुप्त हो
गई। रही सही कसर, घर में पाले जाने वाले विदेशी नस्ल के कुत्तों
और सीसीटीवी कैमरों ने पूरी कर दी। जब घर-घर चौकीदार बैठा है तो बाहरी चौकीदार को
पैसे देने की क्या जरूरत?
लेकिन
ये क्या? साल 2014 से चौकीदार नई भूमिका में आ गया है। ऐसा आया कि अब देश का
प्रधानमंत्री जोर-जोर से खुद को चौकीदार बता रहा है। उसने सत्ता से जिन्हें बेदखल
किया, वो तमाम लोग दोबारा सिंहासन बत्तीसी अर्जित करने के लिए चौकीदार को
चोर बता रहे हैं। चौकीदार भी बदल गया है, वो ‘जी
शाब’ वाला नहीं है। वो जो सरेआम धमकियां देता है। हुंकार लगाता है। अब
सवाल यह है कि सत्ता चलाने वाला चौकीदार होता है तो उससे पहले के सभी नेता भी
चौकीदार ही हुए। वार्ड का पार्षद हो, क्षेत्र का विधायक या फिर सांसद ये भी
चौकीदार ही हैं। जब इतने चौकीदार भरे पड़े हैं, फिर
क्यों जनता के हक और सरकार के खजाने से चोरी हो रही है? क्यों
बोफोर्स से लेकर राफेल विमान खरीदी में और पाताल से लेकर आकाश तक चोरी के आरोप
इन्हीं चौकीदारों पर लगते हैं? चुनाव लड़ते समय चौकीदार साइकिल की कीमत
वाली जिस खटारा कार को अपनी बताते हैं, उसमें मोहल्ले
के चौकीदार की तरह वे कभी सवारी करते
क्यों नहीं दिखते? राजनीतिक चौकीदारों के पास लग्जरी गाड़ियां कहां
से आती हैं? सरकारी तौर पर मिलने वाली उनकी हवाई यात्रा से
कई गुना ज्यादा यात्राएं वे बिजनेस क्लास में कैसे कर लेते हैं?
लौटें फ्लैशबैक में....मोहल्ले का चौकीदार जब
गांव जाता था तो जिसे अपना भाई बता कर चौकीदारी सौंपता था उससे अपनी टेरेटरी वापस
लेने लौटता नहीं था। कई बार तो पुराना चौकीदार नई बनी कॉलोनी में अपनी नई चौकीदारी
जमाते दिख जाता। लगता था जैसे काशी और प्रयागराज के पंडों की तरह उसने भी अपने
यजमान दूसरे को सौंप दिए हों। यदि नए चौकीदार के एरिया में चोरी हो जाए और शक उसी
पर हो तब पुराना चौकीदार बिरादर के निर्दोष होने का भरोसा दिलाने घर-घर फेरे लगाता
दिखता था। मजाल है कि कभी किसी चौकीदार ने अपनी बिरादरी के किसी दूसरे चौकीदार पर
चोर होने की तोहमत लगाई हो। लगाता भी क्यों, यह उसके
पेशे और पीढियों से कमाई गई ईमानदारी की दौलत का सवाल जो था। भरोसे की इसी फसल के
दम पर कई दशकों से वो लोग दूर देश से आकर यहां गुजर-बसर करते हुए अपने परिवार के
लालन-पालन का प्रबंध कर रहे थे। उन्हीं की तरह भरोसा देश की जनता ने राजनीतिक चौकीदारों पर किया। हर
पांच साल में किया। फिर क्यों आज के नए चौकीदार अपनी ही बिरादरी वाले को चोर की
नजर से देखते हैं? किस पर एतबार करें और किस पर न करें! आज वाला
चौकीदार पुराने को चोर कह रहा है और पुराना नए को। कहीं ऐसा न हो जाए कि लोगों का
पूरी चौकीदार बिरादरी से ही भरोसा उठ जाए और ‘चोर-चोर
मौसेरे भाई’ की जगह देश में नया मुहावरा सुनने मिलने लगे ‘चौकीदार-चौकीदार मौसेरे भाई।‘