Saturday, April 25, 2015

भूकंप: झटके का बूमरैंग !




वैशाख, शुक्ल पक्ष, सप्तमी, संवत 2072...पूर्वान्ह 11.40 का समय। मध्यप्रदेश के ऐतिहासिक राज्य मंत्रालय वल्लभ भवन की पांचवी मंजिल पर स्थित वातानुकूलित कक्ष में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सिंचाई मंत्री जयंत मलैया और आला अधिकारियों के साथ जलसंसाधन विभाग की समीक्षा कर रहे थे....अचानक मेज पर रखी फाइलें और नाश्ते की प्लेट हिलने लगी। सीएम समेत बैठक में मौजूद सभी लोगों की भी कुर्सी हिलती नजर आई...शिवराज ने स्वीकार भी किया कि उनकी कुर्सी हिलने लगी थी। ये  हलचल कुछ सेकंड ही रही...लेकिन दहशत...! दहशत तो दोपहर बाद तक तारी रही। दहशत ऐसी कि मुख्यमंत्री समेत तमाम अधिकारी सीढ़ियों से लगभग दौड़ते हुए पांच मंजिल नीचे उतरे। प्रदेश का आपदा प्रबंध विभाग भले ही नाकारा हो, लेकिन उसने आला अधिकारियों को सालाना प्रशिक्षण में इतना तो सिखा दिया है कि वे दूसरों की जान भले न बचा सकें...अपनी जान बचाने के उपाय क्या हैं। सो, अफसरों ने सूबे के वजीरे आजम को भी लिफ्ट के बजाए आपदा की घड़ी में सीढ़ियों का प्रयोग करने को विवश कर दिया।
जान बची सो लाखों पाए....। मंत्रालय का नजारा कुछ ऐसा ही था। चारों तरफ भगदड़...सामान्य प्रशासन विभाग का एक बाबू बड़े गर्व से बता रहा था कि वो लिफ्ट से ऊपर जा रहा था और सीढ़ियों से उतरते मुख्यमंत्री ने उससे कहा कि ऊपर कहां जा रहे हो। हम बेवकूफ हैं क्या जो नीचे जा रहे हैं....भूकंप आया है। बेवकूफी वाली बात पर जोर देकर पूछने पर उसने स्पष्ट किया कि ये मुख्यमंत्री के शब्द नहीं थे...लेकिन इशारा कुछ ऐसा ही था। गृह विभाग के एक कर्मचारी की आपबीती सुनिए....मेरा कम्प्यूटर खुला था और अचानक स्क्रीन पर शब्द टाइप होने लगे! चौथी मंजिल पर बैठे एक अन्य कर्मचारी की टेबल हिल गई। जितने मुंह उतनी बातें। हर किसी का अपना अनुभव। आमतौर पर मंत्रालय आकर भी छुट्टी के मूड में रहने वाले कर्मचारियों को आज की आधे दिन की छुट्टी रास नहीं आई। वे सधे हुए अंदाज में मीडिया वालों को अपने-अपने अनुभव सुनाते रहे। अंदर का सच ये है कि यहां किसी को खरोंच तक नहीं आई। आती भी कैसे? एक तो भोपाल में झटके हल्के थे, दूसरे मंत्रालय की इमारत बूढ़ी भले होने लगी हो पर उसकी बुनियाद इतनी मजबूत है कि वहां बैठने वाले आसानी से नहीं हिलते।
भूकंप केवल मंत्रालय में ही नहीं आया था। उसका केंद्र तो नेपाल में था लेकिन झटके वल्लभ भवन और सतपुड़ा एवं विंध्याचल भवन में ही नहीं आए। झटके हर उस व्यक्ति या संस्था के पास आए जो थोड़ा भी पापुलर था। सभी अपना अनुभव बयां करना चाहते थे।
भूगर्भीय हलचल से आए इन झटकों के अलावा प्रदेश में एक और झटका आया हुआ है। आगामी 29 नवंबर को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर दस साल पूरे करने जा रहे शिवराज को व्यापमं मामले में आरोपों के झटके दे रहे दिग्विजय सिंह को भूकंपीय झटके से ठीक एक दिन पहले जोर का झटका लगा है। जिस पेन ड्राइव और एक्सलशीट की मिरर इमेज के दम पर वे शिवराज को हटाने की मुहिम में जुटे थे। उनके वे हथियार। वो पेन ड्राइव और एक्सलशीट फर्जी करार दी गई। उसी एसआईटी ने इसे नकली, भ्रामक माना है, जिसके सामने दिग्विजय ने शपथपत्र के साथ ये प्रमाण प्रस्तुत किए थे। हालांकि हाईकोर्ट का फैसला 'मिस्टर एक्स' के मामले में था, जो दिग्विजय सिंह का वही सूत्र है जिसने ये प्रमाण उन्हे मुहैया कराए थे। झटके का बूमरैंग होना क्या असर दिखाएगा ? किस-किस पर असर होगा ? कहानी में अब नया ट्विस्ट क्या आएगा ? ये तो मैं समय हूं....कहने वाला महाभारत सीरियल का पर्दे के पीछे का पात्र या वो संजय भी नहीं बता सकता, जिसने धृतराष्ट्र को महाभारत का आंखों देखा हाल सुनाया था....लेकिन दिग्विजय को लगे झटके का जश्न बीजेपी ने मनाना शुरू कर दिया है....मिठाई और बयानों के दौर चल रहे हैं....अपना-अपना भाग्य है किसी के हिस्से मिठास और किसी के कसक। मिठास और कसक का ये खेल कब तक चलेगा ...ये भी समय ही बताएगा। तभी तो बड़े बुजुर्ग कह गए हैं....समय होत बलवान।

Monday, April 20, 2015

काकी : एक अमृतधारा

क्वांर करेला, कातिक मही...चैते गुड़, बैसाखे तेल....। कल ही की तो बात है। मुनमुन रात में दही खा रही थी। पिताजी ने टोका बेगुन भोजन नहीं करते। इसके साथ ही "काकी" से अपने बचपन में कई बार सुना हुआ ये कवित्त उन्होंने सुनाया...

चैते गुड, वैसाखे तेल,
जेठे केंथ, अषाडै बेल;
साउन साग, भादौं दही,
क्वांर करेला, कातिक मही;
अगहन जीरा, पूसै धना,
माघै मिसरी, फागुन चना;
जो यह बारह देई बचाय,
ता घर वैद कभऊं नइं जाए!!
बच्चों के लिए ये कोई ओल्ड एज 'रैपर' था। यो यो हनी सिंह और मीका सिंह के फॉलोअर्स के लिए ये किसी और दुनिया का गीत था। आश्चर्य से आंखें फाड़ पिताजी को देख रही मुनमुन शायद यही बोलना चाहती थी।  
खैर बात काकी की....काकी यानी पिताजी की चाची मां। सिंगारदान कहें या मसालदानी की तरह गुणवान। अक्षर ज्ञान में जीरो, क्योंकि उनके जमाने में लड़कियों के स्कूल जाने का चलन नहीं था। पर ज्ञान में उन पर कोई इक्कीस तो क्या... बीस भी नहीं पड़ा। काकी हमारे लिए सदैव कौतूहल का विषय रहीं....नेत्रज्योति जाने के बाद भी जैसे दीवार पर टंगी घड़ी उनसे ही पूछ कर समय बताती थी। दिन हो या रात....काकी ने कहा इतने बजे होंगे तो उतने ही बजे की सुईयां दिखतीं....पांच- दस मिनट का हेरफेर हो जाए, लेकिन घंटे की सुई तो मानो उनकी गुलाम ही थी।बचपने में जब गांव जाते... गर्मियों की रात में आसमान के तारे देख टाइम बताना भी हमारे लिए अबूझ पहेली था, लेकिन काकी के लिए तो ये सब सहज ज्ञान... सामान्य सी रोज की दिनचर्या का हिस्सा।
दुबली पतली इकहरी काकी खाने में पथ्य अपथ्य को लेकर जो छंद और कवित्त सुनातीं उन पर अमल भी खूब करतीं थीं...क्या खाना है, कैसे खाना है और कब खाना है। ये उनको देख कर सीखा जा सकता था। रसोई गैस के चूल्हे की रोटी पेट के लिए अच्छी नहीं सो शहर मे चूल्हे की भरपाई कोयले की सिगड़ी पर मिट्टी का तवा लगा कर कराती थीं। टीकमगढ़ के किले में राजपरिवार की राजकुमारियों के साथ पली बढ़ी काकी का राजसी लहंगा आज भी उनके सुनहरे दिनों की आभा बयां करता है। लेकिन मिट्टी से उनका लगाव भी ऐसा था कि लोहिया तवे की जगह माटी का तवा....कढ़ी बनाने के लिए माटी की हांडी और सब्जी छौेकने माटी की कढ़ाई ....इससे पकी उनकी रसोई का स्वाद ही अलग था...यही वजह रही कि मंदिर मे भोग के लिए भोजन उनकी रसोई से ही जाता था। और हां, नेत्रज्योति जाने के बाद भी हमने उन्हें रोटी सेंकते देखा है...वो सब्जी काटना, भाजी को साफ करना ही नहीं...चावल से कंकड़ बीनने का काम भी अपने मन की आंखों से इतनी बखूबी कर लेती थीं कि कोई एक कंकड़ भी खोज कर नहीं निकाल सकता था..उनके हाथों साफ हुए चावल में से। ऐसी थी हमारी काकी....यादें इतनी हैं कि लिखना और कहना मुश्किल। हवा के चलने और उसकी गंध से पानी बरसने का दिन और समय भी भला बता सकता है कोई ! काकी के लिए यह भी सामान्य ज्ञान था। पानी किस दिशा से आएगा...आज आएगा या दो दिन बाद। कितने दिन तक गिरेगा।
 काकी की पाककला हो या किसी काम को करने का हुनर...बेजोड़ था।उनके पास एक ऐसी संदूकची भी थी जिसमें कई मर्ज की दवा कैद रहती थी। घर परिवार या गांव का कोई बीमार पड़े तो काकी की संदूकची से ही आराम पाता था। काकी तो नहीं रहीं पर उनकी यह संदूकची आज भी गांव के हमारे घर के किसी कोने में विराजमान है...शायद अलमारी में या ताक में। अमृतधारा पर तो जैसे काकी का पेटेंट ही था। काग लगी छोटी सी शीशी में बिसलरी की तरह साफ इस लिक्विड की डिमांड भी खूब रहती थी। अजवाइन का सत, पिपरमेंट और कपूर की समान मात्रा को बोतल में भर कर तैयार इस दवा के आगे झंडू बाम और अमृतांजन भी फेल थे। सिर दर्द, पेट दर्द, बिच्छू या किसी कीड़े के काटने पर, उल्टी दस्त से लेकर हैजा तक का प्राथमिक या पूर्ण उपचार थी ये अमृतधारा ( बाबा रामदेव के पतंजलि के प्रोडक्ट्स लिस्ट में भी ये शामिल है)। ये नुस्खा याद इसलिए है कि बिलासपुर आने के बाद एक बार उन्होंने अमृतधारा मुझसे ही बनवाई थी और अजवाइन का सत परचून के साथ जड़ी-बूटी बेचने वाली शहर की नामी अमरनाथ की दुकान पर पहली बार देखा था। सारा सामान जोड़ कर भी आश्चर्य होता था कि बिना पानी मिलाए ये लिक्विड कैसे बनेगा? पर, शीशी ने धूप की गर्मी देखी या काकी का जादू जो सब पिघल कर बन गया अमृतधारा...
 काकी की खूबियां क्या गिनाएं। सैकड़ों बीमारी के नुस्खे उन्हें मुंहजुबानी याद थे। पेट में मरोड़ हो तो भुनी अजवाईन चबा लो...तलवे में जलन तो नाखून पर चूना लगा लो...पता नहीं क्या सिस्टम था...पर असर तो होता था। नफासत से रहना। नफासत से भोजन ( खाना कहने पर प्रतिबंध था) पकाना वह भी मौसम के अनुसार। लेकिन काकी का जादू केवल घड़ी या चूल्हे पर ही नहीं चलता था। किस्से कहानियों से जीवन जीने के तरीके सिखाने वाली काकी पर पंचांग भी मेहरबान था। आज कौन सा दिन है....प्रदोष किस दिन आएगा.... होली या दीवाली कब की है...ऐसे सभी तीज-त्योहार कब आएंगे ये पहले वो बतातीं फिर पंचांग या कैलेंडर से दिखवा कर अपनी जानकारी को क्रासचेक करतीं। अधिमास आएगा या दिन छोटे अथवा बड़े होने लगे। सब काकी को ज्ञात था, वो भी स्कूल जाए बिना। यादों के किस्से सुनाते हुए उन्होंने हमें ये कभी नहीं बताया कि भैया यानि उनके इकलौते बेटे और हमारे पिताजी को पढ़ाने के लिए वे दिन भर स्कूल के बाहर भी बैठी हैं। रात में भैया के पढ़ने के दौरान उनके साथ सारी सारी रात लालटेन और चिमनी रोशन करती रही हैं...क्योंकि तब रौशनी के साधन यही थे।  राजघराने से लेकर गांव और गांव से शहर के सफर में काकी ने हम बच्चों को भी वैसे ही पढ़ाने की कोशिश की थी। बुढ़ापे में वो हमारे साथ अ, आ, इ, ई... लिखना सीखतीं और हम हंसते कि दादी आप पढ़ी लिखी नहीं हो...पर क्या पता था कि काकी ने जो पढ़ाई की थी वह चार-चार डिग्रियां हासिल करने के बावजूद आज तक हम नहीं कर पाए...किस्से कहानी में बताए गए जीवन के नुस्खे याद नहीं रख पाए...और तो और उनका सिखाया ये कवित्त भी याद नहीं रख सके कि...क्वांर करेला...कातिक मही...। अलमारी में भुला दी गई... सालों से बंद पड़ी काकी की संदूकची की तरह ही उनकी सीख और नुस्खों को भी हम भुला बैठे। आज महसूस हो रहा है कि काकी कितनी गुणी थीं और हम मुफ्त मिलते उनके गुणों की कदर नहीं कर पाए। काकी के जाने के साथ ही हमारे घर से दादी का वो खजाना भी चला गया....वो विरासत...वो अमृतधारा चली गई....जो उन्हें उनकी दादी से मिली थी।


Friday, April 17, 2015

काली ओ काली...

काली, जी हां! यही नाम था उसका। कभी वह अपने नाम के अनुरूप ही कोयले की तरह काली थी...लेकिन उसके ऊपर झलकती सफेदी चुगली करने लगी थी कि अब वह काली नहीं रही....अब वो बूढ़ी हो गई है...और अचानक एक दिन काली गायब! उसका कोई पता ठिकाना नहीं मिला...आज तक कोई सुराग नहीं दिया काली ने...

काली की आज याद आने का एक कारण उज्जैन में होने वाला सिंहस्थ भी है...2004 सिंहस्थ के पहले शाही स्नान के दिन 13 अप्रेल को ही तो वह चार माह बाद घर लौटी थी...काली से नाराज होकर हमारे घर के ही कुछ सदस्य उसे कार में बिठा कर ले गए और 35-40 किमी दूर एक गांव में छोड़ आए थे। इधर कुंभ में नम: शिवाय करते हुए डुबकी लगा कर निकले और उधर घर से फोन आया कि काली आ गई है....पिताजी का हुक्म हुआ आ गई तो स्वागत करो...खोल दो गेट। काली ने आमद की सूचना कॉलबेल बजा कर नहीं दी थी...वह कॉलबेल बजा भी नहीं सकती थी। उसने लोहे के बड़े गेट को झिंझोड़ कर वो कोहराम मचाया था कि घर पर जो लोग मौजूद थे उनका भी कलेजा मुंह को आ गया था। ये तो उसके आमद की सूचना देने का तरीका था। वर्ना हमारे घर का गेट उसे कभी रोक नहीं पाया। गेट की डिजाइनदार जाली में बने सूराख के अनुपात में अपने शरीर को सिकोड़ कर..नया आकार देकर वह बेखटेक प्रवेश किया करती थी...इस सूराख में बांधे गए लोहे के तार भी वह अपने दांतों से पता नहीं कैसे कतर डालती...ये रहस्य आज तक नहीं समझ पाया कि काली आखिर ऐसा कर कैसे लेती थी। जब वो मिली तो इतनी शिकायतें अपनी जुबान में कर डालीं कि ऐसा लगा यदि वो हमारी भाषा में बोल पाती तो सबके गुनाह गिनाकर सभी को सजा दिलवाती...पर वो आई...उसने सबसे लिपट कर खुशी जताई और कालापानी देने वालों को भी माफ कर दिया। ये और बात है कि हमारे बागीचे से फूल चोरी करने वालों को वो कभी माफ नहीं कर पाई।
काली आखिर 'काली' क्यों थी...? एक शाम घर के दरवाजे पर बैठे दादाजी अपने चलना सीख रहे पोते-पोतियों को खिला रहे थे कि एक नन्हीं सी काली को बच्चों के पास धकेल कर काली की ही तरह काली उसकी मां न जाने कहां से आई और न जाने कहां गायब हो गई। बच्चों को खिलौना मिल गया और काली को नाम के साथ ठौर। वो कब पालतू हो गई पता ही नहीं चला...बीच-बीच में उसकी मां आती उसे दुलारती सहलाती और गायब हो जाती। काली जब खुद मां बनने वाली थी तब उसकी मां लगातार हमारे बागीचे में दिखने लगी और जब काली के नन्हें नन्हें चार बच्चे हुए, उनके साथ काली की मां भी खेलती...लेकिन जैसे आती थी वैसे ही चली जाती...पूरा कुनबा पीछे छोड़ कर। दिन बीते साल बीते काली के बच्चे बंटते रहे..मरते रहे...काली जस की तस घर पर मौजूद रही। टेलीविजन पर चलते प्रोग्राम देखती...कोई न हो तो सोफे पर बैठती और जब सब सामने हों दुलार पाने के लिए पैरों के पास लोटती काली...आदत बन गई। ऐसी आदत कि घर में कभी सेंट्रल ल़ॉक भी लगवाना है इस बारे में सोचने की जहमत नहीं उठानी पड़ी। घर से बाहर जाना हो तो काली को गेट के भीतर करो और बेखटेक घंटों घूम आओ। न कभी ज्यादा भोजन की चाह और न कभी सामने रखी थाली में मुंह मारने की ललक। काली पता नहीं कैसे इतनी समझदार थी कि उसे श्वान कहने से पहले सोचना पड़ता था। एक और मौका ऐसा आया कि किसी घर के सदस्य ने उसे डंडा मार भगा दिया। बस वो दिन था कि काली आधा किमी दूर के एक और घर के सामने की वासी हो गई। उसे मना कर लाने की तमाम कोशिशें बेकार। वो मानी तब जब घर के मुखिया ने जाकर फटकार लगाई और वापस आने को कहा। सच में कुत्ते भी इतने स्वाभिमानी हो सकते हैं? जब इंसान का स्वाभिमान न बचा हो। खैर काली तो काली थी...सफेदी बढ़ने के साथ उसकी भूख भी बढ़ गई। अब वो अपने उन्हीं बच्चों के हिस्से की रोटी छीन कर खा जाती थी...कभी जिनके लिए अपनी रोटी बचा कर रखती थी...बीमार हो तो बिना नखरे इंजेक्शन लगवाने वाली काली बुढ़ापे में बाहर कम और घर के भीतर अधिक रहना चाहती थी...कूलर की हवा...बैठने के लिए आसन...नर्म रोटी...उसकी फरमाईशें बताई नहीं जाती थीं...जतलाई जातीं थीं। घर आने वाले मेहमानों के बीच चर्चा का विषय हो गई थी वह। एक देशी नस्ल के सड़क छाप कुत्ते पर घर के हर सदस्य के पास कहने के लिए हमेशा कुछ न कुछ नया रहता था। आज अगले साल होने वाले सिंहस्थ को लेकर कार्यक्मों का सिलसिला शुरू हो रहा है...और शाही स्नान के दिन घर वापसी करने वाली काली फिर याद आ गई....सिंहस्थ नहाने जाना है...काली नहीं है ना..इसलिए घर पर सेंट्रल लॉकिंग सिस्टम भी लगवाना है...ये खर्चा भी काली की देन है....उसके रहते जो चैन की नींद आती थी वह उसके जाने के बाद कई रातों तक नहीं आई....कोई खटका हो तो उसका भी दोष काली के सिर..."कहां मर गई"...वो रहती थी तो भरोसा रहता था। इतने भरोसे की काली...अपनी उम्र पूरी कर चुकी काली...एक दिन बिना कुछ संकेत दिए कहीं चली गई। खोज की गई...इंतजार किया गया...उसको नहीं आना था सो वह नहीं आई, कहीं दिखी भी नहीं....पिताजी ने कहा यही प्रकृति का नियम है। जानवरों को मौत का पूर्वाभास हो जाता है। मौत आने पर वे आबादी से दूर चले जाते हैं। वह भी दूर चली गई, इतनी दूर कि अब मेहमान उसके बारे में पूछते हैं तो काली को याद करना पड़ता है। सिंहस्थ की हलचल में वह याद आती है....काली..ओ..काली... अनुसुनी होते-होते, रात घिरते ही घर के बाहर गूंजने वाली ये आवाज भी अब बंद हो गई है।

अशोक, तुम्हारे हत्यारे हम हैं...

अशोक से खरीदा गया वो आखिरी पेन आज हाथ में है, लेकिन उससे कुछ लिखने का मन नहीं है। अशोक... जिसे कोई शोक न हो। यही सोच कर नामकरण किया होगा उसक...