Monday, November 30, 2015

यूंही दिग्विजयी नहीं हुए शिवराज...

‘पांव में चक्कर...मुंह में शक्कर...माथे पर बर्फ...और सीने में आग’। ये शिवराज सिंह चौहान के पसंदीदा डायलॉग में से एक है। पार्टी का कोई कार्यक्रम हो या फिर जनता के बीच भाषण शिवराज लोगों को ये नसीहत देना नहीं भूलते। शायद उनकी सफलता का राज भी यही है। इसी ‘पांव में चक्कर...मुंह में शक्कर’ ने उन्हें 60 साल पूरे कर रहे मध्यप्रदेश का पहला ऐसा मुख्यमंत्री बना दिया है, जो दस साल का कार्यकाल पूरा करने के बाद भी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान है।

शिवराज ने वो इतिहास रच दिया। जिसकी चाह हर मुख्यमंत्री को होती है, लेकिन अवसर किसी बिरले को ही मिलता है। शिवराज मध्यप्रदेश के 17 वें मुख्यमंत्री हैं...कार्यकाल के लिहाज से गिनें तो 30 वें। दस साल तक मुख्यमंत्री निवास में रहने वाले के तौर पर देखें तो दूसरे और दस साल का कार्यकाल पूरा करने के बाद भी मुख्यमंत्री होने के नाते पहले और अब तक के एकमात्र। उनसे पहले कांग्रेस के दिग्विजय सिंह ने लगातार दो कार्यकाल तक मुख्यमंत्री रहते हुए दस साल पूरे किए थे, लेकिन कांग्रेस पार्टी के चुनाव हारने के कारण दिग्विजय सिंह केवल दस साल वाले मुख्यमंत्री बन कर रह गए और 29 नवंबर 2005 को शपथ लेने वाले शिवराज ने मुख्यमंत्री के तौर पर दिग्विजयी पताका फहरा दी। ये तो रही तथ्य और आंकड़ों की जुबान। सवाल ये है कि शिवराज में ऐसा क्या है? जो उनसे पहले के मुख्यमंत्रियों में नहीं था! क्या समीकरण और कारण हैं जिन्होंने शिवराज को प्रदेश के मुख्यमंत्रियों में सिकंदर बना दिया।
मुकद्दर के सिकंदर तो शिवराज शुरूआत से ही हैं। सरस्वती की कृपा की बात वे करते हैं। उन पर सरस्वती ने इतनी कृपा की है कि शुरूआती अभावों के बावजूद उन्होंने दर्शनशास्त्र में स्नातकोत्तर की डिग्री ली, वह भी गोल्ड मेडल के साथ। जिव्हा में सरस्वती का ऐसा वास है कि दस साल से शिवराज का भाषण सुनने के बाद भी प्रदेश की जनता में ऊब नहीं हुई। आरएसएस, जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी की रीढ़ रहे नेताओं के सानिध्य में राजनीति का ककहरा सीखते-सीखते शिवराज ने कब राजनीति का गोल्ड मेडल भी अपने नाम कर लिया उनके संगी-साथियों को भी इसका भान नहीं हुआ। बुधनी से पहली बार चुनाव लड़ने के चंद महीनों बाद विदिशा में अटलबिहारी वाजपेयी द्वारा खाली की गई लोकसभा सीट के उपचुनाव से संसद तक का उनके सफर को गंभीरता से नहीं लेने वाले नेताओं ने शिवराज के मुख्यमंत्री बनने के बाद जरूर इस 'बायचांस' हुए बदलाव को गंभीरता से लिया होगा। शिवराज की मुख्यमंत्री के तौर पर ताजपोशी से ठीक एक दिन पहले प्रदेश भाजपा कार्यालय दीनदयाल परिसर में विधायक दल नेता के चुनाव के मौके पर अनुशासित बीजेपी के कार्यकर्ताओं के विरोध और शक्ति प्रदर्शन ने साबित कर दिया था कि शिवराज कोई पैराशूट सीएम नहीं हैं। मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद उनके पहले विदिशा प्रवास में उमड़े जनसैलाब और उसके बाद जनता के बीच जाने के उनके सतत कार्यक्रम ने शिवराज को वो नेता बना दिया कि भोपाल के अन्नानगर झुग्गी बस्ती की आंगनवाड़ी की अबोध बिटिया से लेकर दूरदराज के मंडला, अलीराजपुर या फिर बुंदेलखंड के किसी गांव के बच्चों तक शिवराज की पैठ हो गई। मुख्यमंत्री बनने के पहले तक पांव-पांव वाले भैया के नाम से विदिशा और सीहोर में मशहूर रहे शिवराज की अब पहचान बदल गई है। वे महिलाओं के भाई हैं तो प्रदेश भर के बच्चों के मामा। इन दस सालों में रिश्तों की ऐसी जबरदस्त कशीदाकारी शिवराज ने की है कि उनकी पैठ अनपढ़ किसानों से लेकर गांव के चूल्हे-चौके तक हो गई है। सोशल इंजीनियरिंग के इस नायाब खेल में शिवराज ने सरकार की प्राथमिकताएं ही बदल डालीं। उनसे पहले सड़क, बिजली, पानी और शिक्षा के विकास को आम आदमी की सेवा माना जाता था। प्रदेशवासियों की भलाई की इस स्कीम में शिवराज ने लोगों को सीधे और नकद लाभ पहुंचाने की चाशनी डाली और विकास की वो मिठाई तैयार की है, जिसकी काट फिलवक्त तक किसी के पास नहीं दिखती।
अपने इस हुनर के दम पर ही शिवराज उस भारतीय जनता पार्टी के लिए अपरिहार्य बन गए हैं, जिसने 2003 में सरकार बनने के दो साल के भीतर तीन मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश को दिए। प्रदेश में भाजपा और उसकी पूर्वज सरकारों का इतिहास भी यही रहा है। इमरजेंसी के बाद जब सरकार बनी तो तीन साल में तीन मुख्यमंत्री बनाने पड़े थे। 1990 में बनी सुंदरलाल पटवा सरकार भी ढाई साल में चलती बनी थी। पटवा शिवराज के सियासी गुरू हैं और गुरू की गलतियों से सबक लेकर शिवराज ने अपनी अलग सोशल इंजीनियरिंग चलाई। वे कन्यादान योजना लाए। लाडली लक्ष्मी योजना लाए। विभिन्न वर्ग की पंचायतों के जरिए सीएम हाउस के दरवाजे आम लोगों के लिए खोले गए। इन सबसे ऊपर उन्होंने‘पांव में चक्कर’ रखा गांव-खेड़े के गरीब-गुरबों के बीच पहुंचे और ‘मुंह में शक्कर’ घोली। पार्टी के बड़े नेता हों या हमउम्र सबके साथ भी शिवराज ठीक वैसे ही पेश आते रहे जैसा व्यवहार रखने की वे कार्यकर्ताओं को सीख देते हैं। नतीजा..! मध्यप्रदेश भाजपा में आज शिवराज की कोई काट नहीं है। उनका कोई विरोधी नहीं। कम से कम खुलेआम विरोध करने वाला तो कोई भी नहीं है। सबको सम्मान देने और खुश करने के अपने हुनर से उन्होंने उन नेताओं को भी जीत लिया जो कभी शिवराज को नापसंद करते रहे थे। 'मुंह में शक्कर' और 'माथे पर बर्फ' के कारण आज पार्टी के भीतर या बाहर उनकी कद काठी का कोई नेता नहीं है, जो उन्हें टक्कर दे सके।  
शिवराज सिंह चौहान को यह स्वीकारने में कोई हर्ज नहीं होता कि जब वे मुख्यमंत्री बने थे तब उनका प्रशासनिक अनुभव शून्य था। उन्होंने लगातार मंत्रालय में बैठ कर प्रशासनिक बारीकियां सीखने के बजाए खुद को जननेता बनाना बेहतर समझा। प्रशासनिक कामकाज उन्हें अभी भी रास आता नहीं दिखता। वे जब मीटिंग लेते हैं तो चुनाव प्रचार की तर्ज पर धुआंधार बैठकों की झड़ी लगा देते हैं। नहीं तो मेल मुलाकात फाइलों पर भारी पड़ जाती है। शायद सीएम सचिवालय में आला अफसरों की फौज की मुख्य वजह भी यही है। दस साल पुराने मुख्यमंत्री शिवराज का मिजाज अफसरों पर रूआब गांठने वाला कभी नहीं रहा और न ही यह कला वो सीख पाए। आज भी शिवराज जब अफसरों को हड़काते दिखते हैं तो असामान्य लगते हैं। लेकिन, वही शिवराज किसान, महिलाओं या फिर आम लोगों के बीच होते हैं तो उनके सच्चे हितचिंतक दिखते हैं। उनके बीच के ही नजर आते हैं। कोई बनावट और बुनावट नहीं दिखती। शिवराज की यूएसपी भी यही है।
चुनाव लड़ते शिवराज को देखने का भी अपना अलग अनुभव है। 2005 में मुख्यमंत्री बनने के बाद जब वो उसी बुधनी से उपचुनाव लड़ रहे थे, जो उनका घर है और जहां से 1990 में वे पहली बार विधायक चुने गए थे, तब उनकी घबराहट देखने लायक थी। मुख्यमंत्री का गांव-गांव जाकर वोट मांगना....लोगों से ध्यान रखने की बात कहना...दिन-रात मेहनत करना...अजीब लगता था। वोट मांगने का ये क्रम इन दस सालों में चलता ही रहा है। 2008 की जनआशीर्वाद यात्रा और 2013 के चुनावी रथ में शिवराज की रिपोर्टिंग करने के दौरान तक शिवराज का जननायक विशाल हो चुका था। रथ में सवार शिवराज बाहर से मामा की आवाज आने पर गाड़ी रूकवा कर बातें करने से खुद को रोक नहीं पाते थे। रथ की खिड़की से हाथ निकाल कर लोगों के हाथ मिलाने का कष्ट झेलना भी केवल उनके बस की बात है। गांव वालों के रूखे नाखूनों से पड़ती खरोंच और उनसे छलक आई खून की बूंदों के बावजूद शिवराज का हाथ रूका नहीं....हर उस शख्स तक पहुंचा जो उनसे हाथ मिलाना चाहता था या फिर छूकर देखना चाहता था। शुजालपुर के बाजार में अल्पसंख्यकों की पुष्पवर्षा देख कर शिवराज ने सवाल किया था -'अब बताओ कौन रोक पाएगा इस रथ को?' उनका यह आत्मविश्वास सच साबित हुआ और तीसरी बार शिवराज मुख्यमंत्री बने। इसके साथ ही प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के पर्याय भी वही हो गए। अब तो पंचायत के चुनाव तक में शिवराज की डिमांड होती है। रतलाम-झाबुआ के उपचुनाव में भी शिवराज के इसी जादू के दम पर भाजपा ने किला लड़ाया था, लेकिन देवास विधानसभा के उपचुनाव को जीतने वाली भाजपा रतलाम हार गई तो क्या शिवराज के चुनावी मायाजाल की मियाद पूरी हो गई है! क्या 'माथे पर बर्फ' और 'सीने में आग' वाले शिवराज के पांव का चक्कर थम गया? जवाब किसी के पास नहीं है। होगा भी कैसे, शिवराज का जादू...शिवराज के तिलिस्म का तोड़ हर किसी के बस की बात भी नहीं है।
मसला शिवराज के दस साल का है। मील का यह पत्थर गाड़ने के लिए उन्होंने खासी मेहनत की है। यह शिवराज की खूबी है कि वो विपरीत परिस्थितियों को भी अपने पक्ष में करने की काबिलियत रखते हैं। डंपर कांड हो या व्यापमं घोटाला। ऐसे मामले किसी भी नेता के राजनीतिक कैरियर पर विराम लगाने के लिए पर्याप्त होते। लेकिन ये शिवराज की खासियत है कि डंपर संबंधी आरोपों के दाग को जनता के बीच जाकर धोने में कामयाब रहे और 2008 में भाजपा की सरकार बनवा ली। ये और बात है कि अदालत ने भी उनके पक्ष को सही माना। 2013 के चुनाव से पहले व्यापमं का जिन्न सामने आया और शिवराज ने फिर इस मामले को भी अपने पक्ष में कर डाला। तमाम विरोधी, तमाम दावेदार और तमाम राजनीतिक पंडितों की तमाम कयासबाजी और अभिलाषाएं धरी की धरी रह गयीं। सूखे से पीड़ित किसान हों अथवा खड़ी फसल पर ओलों की मार। कहीं कोई सड़क हादसा हो या कोई और आफत आए। शिवराज के खजाने के हाथ जनता के लिए खुले ही रहते हैं। सदाव्रत बांटने की यह अदा और सभी के सुख-दु:ख में सहभागी बनने की शिवराज की खासियत ही वो नुस्खा है, जिसने उन्हें ऐसा 'दिग्विजयी' बनाया है कि दिग्विजय सिंह का रिकार्ड भी टूट गया। प्रदेश में सिंहस्थ का मिथक तो भाजपा सरकार पहले ही तोड़ चुकी है...देखना है सिंहस्थ कराने वाले मुख्यमंत्री से जुड़ा मिथक शिवराज तोड़ते हैं या नहीं।

Wednesday, November 4, 2015

शेरखान पर धारा- 144

 तो साहब, भारत के केंद्र में बसे भोपाल शहर में इन दिनों दहशत और कौतूहल का माहौल है...कोई आतंकवादी नहीं घुसा है मध्यप्रदेश की राजधानी में ! लेकिन आतंक उससे भी कहीं ज्यादा है। खतरा एक नहीं है, एक जैसे अनेक हैं। चिंता में हैं लोग तो सरकार भी चिंतित है। सभी की चिंता का विषय वो बाघ...वो शेरखान है, जो पता नहीं किस सहज वृत्ति से यहां आ टिका है। कभी लोग उसे देखने सड़क की खाक छानते हैं तो कभी वह भी लोगों को देखने सड़क तक चला आता है कि भीड़ छंटे तो वह अपनी प्यास बुझा सके। लेकिन वाह रे हम दो पैर वाले जानवर! हमें अपने भूख-प्यास की तो चिंता है....उस निरीह प्राणी की नहीं, जिसे जंगल का राजा कहा जाता है।
भोपाल और बाघ आजकल एकदूसरे के पर्यायवाची से लगने लगे हैं। अखबारों में नियमित कॉलम फिक्स हो गया है। न्यूज चैनलों के बुलेटिन में बाघ की खबर फर्स्ट सेगमेंट में जरूरी हो गई है। वैसे भी भोपाल के बाशिंदे बाघ से अपरिचित नहीं है। इसी शहर में वन विहार नामक चिड़ियाघरनुमा नेशनल पार्क है, जहां बाड़े में कैद बाघ लोग सालों से देखते आ रहे हैं। लेकिन, ये बाघ महाशय तो पता नहीं क्या खाकर आए हैं चले आए सीधे आबादी के समीप। बिना ये जाने कि जिनके बीच आ धमके हैं वे लोग उनसे भी खतरनाक हैं। दो पैर पर चलने वालों की सुरक्षा के लिए आग उगलने वाली बंदूकों का जखीरा इनके पास है और खाकी वर्दी वालों को किसी को भी मारने का लायसेंस भी। गनीमत है शहरी आबादी के बीच आने के बावजूद बाघ के जंगल के संस्कार अभी तक बचे रह गए हैं। उसने इंसानों से उनकी आदतें नहीं सीखीं। शायद इसीलिए किसी पर अब तक हमलावर नहीं हुआ। लोगों को देख कर खुद छिप जाता है। उनकी नजरों से ओझल रहने की पूरी कोशिश करता है। बावजूद इसके नजर में आ ही जाता है। नजर में आया सो संकट में भी फंसा। अब उसे खदेड़ने के लिए हाथी बुलाए गए हैं। प्रशिक्षित हाथी।

मां-बाप भी शेरखान की तरह किताबी ज्ञान से अनजान थे इसलिए बचपन में उसका नामकरण संस्कार नही हो पाया था। इंसानों के बीच आया तो उसे नाम भी मिल गया टी-1 भले ही वो खुद अपने नाम से अनजान हो, लेकिन उसे इतना तो मालूम होना ही चाहिए कि उसके एक जोड़ीदार को शहर के दूसरे इलाके के एक सुरम्य स्थान में बलात प्रवेश करने की सजा मिल चुकी है। पीटी-1 पुकारे गए इस युवा बाघ को नौ घंटे की मशक्कत के बाद सुरक्षित जिंदा पकड़ लिया गया था। साहब खुशकिस्मत थे जो उन्हें कुछ दिनों की कैद के बाद 400 किमी दूर पन्ना नेशनल पार्क में स्वच्छंद विचरण के लिए छोड़ दिया गया। मेहरबानी देखिए इंसानों की। किसी ने यह सोचने की जहमत नहीं उठाई कि बाघ जंगल छोड़ कर शहर का रूख क्यों कर रहे हैं। आदमखोर हुए होते तो किसी इंसान को मारते, लेकिन किसी को टच तक नहीं किया उन्होंने। उनकी जरूरत बेशक दूसरी है। वो है पानी। सूखे की मार अकेले खेतों पर ही नहीं पड़ी जंगल पर भी पड़ी है, लेकिन खेतों की बदहाली देखने गए जंगलात महकमे के आला अफसरों को अपने मातहत आने वाले जंगलों का सूखा नहीं दिख रहा। सूख चुके तालाब और जलकुण्ड नहीं दिख रहे। ऐसे में पानी की तलाश में अकेले बाघ ही बाहर नहीं निकले होंगे। और भी चौपाये आते होंगे शहरों और बस्तियों की तरफ। लेकिन वो बाघ जितने खुशकिस्मत नहीं। पलायन करने वाली दूसरी नस्लें इतनी भाग्यशाली नहीं....पता नहीं हिरण कहां शिकार हो जाते हों, या खदेड़ दिए जाते हों। चतुर सुजान और सतर्क होने के साथ बलशाली होना बाघ के लिए फायदेमंद साबित हुआ। एक तो वो खुद बच-बच के संभल के चलता है, दूसरे उसका डर। लेकिन बाघ भी कहां सुरक्षित है! इसी भोपाल के पास पहले भी एक शेरखान अपनी सल्तनत जमाने आया था। नाखून और खाल के लालच में इंसानों के फरेब का शिकार हुआ। मारा भी ऐसा गया कि दो टुकड़ों में मिला था। सो भयभीत होने और घबराने की जरूरत बाघ को है न कि इंसानों को। 
बाघ से जुड़ी नकारात्मक खबरों के बीच एक खबर यह भी आई है कि राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण की भोपाल बेंच को उसके दिन भर प्यासे भटकने की खबरों से रहम आया है। कलेक्टर को तलब कर बाघ के इलाके में इंसानी दखल कम करने के लिए प्रतिबंधात्मक धारा-144 के तहत उपाय करने का फरमान सुनाया गया है। इसके साथ ही यह भी सुनिश्चित माना जा सकता है कि कलियासोत का बाघ अब बस कुछ दिन का ही मेहमान है। बालीवुड के सुपर स्टार की तरह फेमस होने के बाद अब वह शिकारियों के हाथों में आने से तो रहा....लेकिन भोपाल की सीमा में भी नहीं रह पाएगा। उसे उसके पुरखों की जमीन से बेदखल होना ही होगा। बाहर से बुलाए गए हाथियों के यहां डेरा डालने का यह साफ संदेशा है। पर मुसीबत....बाघ तक यह खबर पहुंचाए तो कौन पहुंचाए? उसे समझाए तो कौन समझाए कि भैया निकल लो। होगे तुम जंगल के राजा। यहां के राजा तो इंसान ही हैं। जिन्होंने जंगल के बीच घर बना कर तुम्हारी टेरेटरी छीन ली है। इसलिए धारा-144 इंसानों के लिए अभी भले लग जाए, लेकिन असलियत में वह लग रही है बाघ के लिए।

अशोक, तुम्हारे हत्यारे हम हैं...

अशोक से खरीदा गया वो आखिरी पेन आज हाथ में है, लेकिन उससे कुछ लिखने का मन नहीं है। अशोक... जिसे कोई शोक न हो। यही सोच कर नामकरण किया होगा उसक...