Tuesday, July 5, 2016

“75 पार” शिकार: लोग तो कहेंगे ही....



आखिरकार वही हुआ! जिसके कयास लग रहे थे। केंद्र सरकार यानी मोदी कैबिनेट में उम्र के 75 बसंत देख चुके लोग भी मंत्री पद पर बरकरार रखे गए। फिर चाहे वो उत्तरप्रदेश से चुन कर आए कलराज मिश्र हों या मध्यप्रदेश से राज्यसभा में भेजी गईं नजमा हेपतुल्ला। बीजेपी का 75 पार का फार्मूला इनके मंत्री पद के आड़े नहीं आया। केंद्रीय मंत्रिमंडल विस्तार से महज चार रोज पहले मध्यप्रदेश में इसी 75 पार” फार्मूले की बलि चढ़ाए गए वरिष्ठ नेता बाबूलाल गौर और सरताज सिंह को अब अहसास हो रहा है कि वे ठगे गए...उनसे छल हुआ है और ये छल किया है उनकी अपनी पार्टी ने। आलाकमान ने या राज्य इकाई ने? इस सवाल का जवाब गौर और सरताज के साथ बहुत से लोग तलाश रहे हैं।
बस इसीलिए कांग्रेस की प्रतिक्रिया आई है कि उम्रदराज मंत्रियों को विश्राम देने का बीजेपी का फार्मूला व्यक्तिगत कुंठा निकालने का हथियार से ज्यादा कुछ भी नहीं है। ऐसी ही सोच 30 जून तक मध्यप्रदेश कैबिनेट के सबसे वरिष्ठ सदस्य रहे पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर और उनसे एक दशक छोटे, लेकिन 76 साल के एकमात्र सिक्ख मंत्री रहे सरताज सिंह की भी होगी। शिवराज सिंह चौहान की कैबिनेट की जवानी निखारने के फेर में इन दोनों को जून माह के आखरी दिन बेमन से मंत्री पद छोड़ना पड़ा था। वह भी सठियाने की आयु में खुद को युवा मानने वाले बीजेपी के प्रदेश प्रभारी विनय सहस्त्रबुद्दे के दबाव-प्रभाव में। तब गौर और सरताज को यही बताया गया कि बीजेपी ने 75 साल की उम्र पूरी कर चुके नेताओं को घर बिठाने का निर्णय लिया है। क्या वाकई ये हथियार केंद्र ने विनय को देकर भेजा था या फिर हथियार भोपाल में उठाया गया और आड़ आलाकमान की ली गई?  दो साल पहले ही इसी फार्मूले के दम पर आज की भारतीय जनता पार्टी को गढ़ने वाले वरिष्ठतम नेता लालकृष्ण आडवाणी और पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष मुरलीमनोहर जोशी सत्ता की मुख्य धारा से बाहर कर दिए गए थे। उनके लिए एक मार्गदर्शक मंडल बनाया गया था। ठीक ओल्ड एज होम की तर्ज पर। ऐसी जगह जहां वो लोग गाहे बगाहे ही जाते हैं, जिन्होंने अपनों को वहां भेजा होता है।
मध्यप्रदेश में 75 पार फार्मूले का शिकार होते-होते बचीं मंत्री कुसुम महदेले की चिंता भी मोदी मंत्रिमंडल के गठन के साथ दूर हो गई होगी। उनकी भी समझ में आ ही गया होगा कि मध्यप्रदेश में 75 पार का यह महानाट्य सिर्फ बाबूलाल गौर को ठिकाने लगाने के लिए खेला गया था। वो तो सरताज सिंह की बदकिस्मती थी कि वे भी 75 पार निकले। ठीक उसी तरह जैसे आडवाणी के लिए दिल्ली में इसका मंचन हुआ था। लेकिन गौर से खतरा किसे?  बाबूलाल गौर ऐसे नेता हैं जो मुख्यमंत्री थे तब भी भोपाल के सीएम कहलाते थे। नगरीय प्रशासन मंत्री रहे हों या गृह मंत्री तब भी भोपाल के बाहर गौर के कदम गाहे-बगाहे ही पड़ते थे। उन्हें भोपाल और अपने विधानसभा क्षेत्र से ही मतलब रहा है। 2003 के चुनाव में उनका टिकट काटने का पार्टी ने खूब जतन किया था, जब नतीजे आए तो प्रदेश में सर्वाधिक मतों से गौर ही जीते थे। दस बार लगातार विधानसभा का चुनाव जीतने का कमाल प्रदेश में तो कम-से-कम किसी और नेता ने नहीं किया। पचास साल से अधिक समय तक राजनीति ओढ़ी-बिछाई थी, सो जुबानी जमाखर्च में परहेज नहीं करते। जो बोलना है बेलौस बोलते रहे हैं और अब भी बोल रहे हैं। कुछ लोग कहते हैं कि गौर तोल-मोल के बोलते हैं। फिर चाहे उत्तरप्रदेश विधानसभा के पिछले चुनाव हों, जिसमें बीजेपी के लिए प्रचार करने के बाद लौटते ही उन्होंने समाजवादी पार्टी की सरकार बनने की भविष्यवाणी कर दी थी, जो सच भी साबित हुई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सीधे फोन लगा कर बधाई देने की हिम्मत भी मध्यप्रदेश में सिर्फ गौर ही दिखाते रहे हैं।
तो क्या, विनय सहस्त्रबुद्धे ने जो तलवार भांजी थी, वो बीजेपी आलाकमान की नहीं थी! आलाकमान की थी तो उसका निर्माण केवल व्यक्तिगत ईर्ष्या और द्वेष को साधने के लिए ही किया गया है। 75 पार वाली इस तलवार को चलाने वाले राजा में समदृष्टि का अभाव है? या फिर इसका समयानुकूल अपने हित में उपयोग करने की छूट बीजेपी ने अपने क्षत्रपों को दे रखी है। 75 पार की मार से दिल्ली वाले तो इस बार बच गए। अब देखना है ये हथियार फिर कौन किसे निपटाने के लिए उठाता है। 

Sunday, July 3, 2016

मान गए शिवराज, क्या बिछाई है बिसात!

अभी कुछ दिन पहले ही की बात है मध्यप्रदेश बीजेपी का कोर ग्रुप बना था। उसमें सभी पूर्व मुख्यमंत्री शामिल किए गए थे सिर्फ बाबूलाल गौर और उमा भारती को छोड़ कर। उमा तो खैर अब उत्तरप्रदेश की हो गईं लेकिन गौर तो यहीं एमपी में थे । शिवराज सिंह सरकार के वरिष्ठतम मंत्री। कोर कमेटी में पूर्व मुख्यमंत्रियों के साथ दो वरिष्ठ मंत्री को रखने की परंपरा बीजेपी की है। दोनों ही क्राइटेरिया में फिट गौर साहब को कोर कमेटी में जगह नहीं मिली थी। वो संकेत थे। परिणाम 30 जून को सामने आया और गौर साहब को बड़े ही बेदर्द तरीके से कैबिनेट से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। 75 पार के उसी हथियार से, जिससे नरेंद्र मोदी ने बीजेपी के सर्वमान्य नेता लालकृष्ण आडवाणी का शिकार किया था। तब इस राजनीतिक आखेट में आडवाणी के साथ खेत हुए थे मुरलीमनोहर जोशी। अब मध्यप्रदेश में गौर के साथ शिकार हुए कैबिनेट का एकमात्र सिख चेहरा सरताज सिंह। 
लेकिन मिशन-2018 के लिए अपनी सेना का पुनर्गठन कर रहे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की बिसात की यह बानगी भर है। शिवराज ने अपने नए मंत्रिमंडल के सदस्यों को विभाग बांटने में इससे भी ज्यादा चतुराई की है। पहली बार सभी राज्यमंत्रियों को स्वतंत्र प्रभार देकर सभी को एक प्लेटफार्म पर खड़ा कर दिया। क्या 13 साल के अनुभवी मंत्री और क्या नौसिखुए सभी एक बराबर। लेकिन राज्यमंत्रियों को जहां स्वतंत्र प्रभार वाले विभागों में खुल कर काम करने की स्वतंत्रता दी तो,उन्हें किसी न किसी वरिष्ठ मंत्री के साथ अटैच कर पुराने अनुभवी मंत्रियों को परेशान रखने का जतन भी कर दिया। अब राज्यमंत्रियों के सबसे ज्यादा मजे।अपने विभाग के वे अकेले मालिक और दूसरे मंत्रियों के काम के साझीदार। 
इस विभाग वितरण से पहले शिवराज साफ कर चुके हैं कि सभी मंत्रियों का परफार्मेन्स ऑडिट होगा। उन्हें हर तीसरे माह अपने विभाग की परफार्मेन्स रिपोर्ट भी देनी होगी। मतलब मंत्री का रुतबा बरकरार रहेगा या नहीं इसका तिमाही इम्तिहान सभी को देना होगा।अब राज्यमंत्री ठहरे राज्यमंत्री मंत्री ने उनके साथ कामकाज और अधिकारों का बंटवारा ढंग से नहीं किया तो शिकायत।विभाग का परफार्मेन्स बिगड़ा तो ठीकरा मंत्री के सिर। लेकिन टेंशन बढ़ाने के लिए राज्यमंत्री का साथ बरकरार। जब पहली बार सरकार चलाने आ रहे लोगों को स्वतंत्र प्रभार वाले विभाग दिए गए हैं तो सीनियर मंत्रियों को भी अपने विभाग की इंडिपेंडेंट जिम्मेदारी क्यों नहीं दी ? ढाई साल से यही मंत्री दो से ज्यादा विभाग अकेले ही संभाल रहे थे। अचानक ही वो अब अकेले एक विभाग संभालने लायक नही रहे! 2003 में बीजेपी की सरकार बनने के बाद सहकारिता को कांग्रेस मुक्त करने वाले गोपाल भार्गव की पसंद सहकारिता उनसे छीन ली गयी। भार्गव अब सामाजिक न्याय और निशक्त कल्याण के साथ उस पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग के मंत्री रह गए जिसका अप्रत्यक्ष नियंत्रण किसी और के पास है। एम्पावर कमेटियों से कसे इस विभाग के असली 'भगवान'अफसर ही हैं। तिस पर राज्यमंत्री भी साथ हैं। यशोधरा राजे सिंधिया को जिस खूबी के कारण 2013 में उद्योग विभाग दिया गया था, उस पर अफसरशाही की शिकवा शिकायतें भारी पड़ गईं। अब श्रीमन्त से बड़ा और प्रभावी विभाग उनकी मामीजी यानी माया सिंह के पास है। यशोधरा खेल , युवा कल्याण और धार्मिक धर्मस्व विभाग की मंत्री हैं तो माया सिंह उस नगरीय विकास विभाग की मंत्री जो सभी की पसंद था।शिक्षा विभाग में सख्ती दिखाना उमाशंकर गुप्ता को राजस्व तक ले आया। विजय शाह भी खाद्य विभाग से स्कूल शिक्षा तक जा पहुंचे। फायदे में वो मंत्री रहे जो मुख्यमंत्री के करीबी हैं। अपवाद हैं तो कुसुम महदेले, जिनकी कुर्सी भी बची और बड़ा विभाग भी। लेकिन हैप्पी वो भी नहीं जिनके विभाग बचे रह गए। खुश वो भी नहीं जिनके विभाग बदल गए। शायद इसीलिए वादा करने के बाद भी शिवराज हैप्पीनेस मंत्रालय अब तक नहीं बना पाए। हो सकता है खुशी मंत्रालय के लिए उन्हें अब तक कोई खुशमिजाज मंत्री न मिला हो!
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विश्वास:  क्या बनेंगे सहकारिता किंग !
पहली बार मंत्री बनने के साथ विश्वास सारंग को सहकारिता विभाग देकर मुख्यमंत्री ने नया प्रयोग किया है। विश्वास लघु वनोपज संघ के पहले निर्वाचित अध्यक्ष रहे हैं। तब इसी सरकार ने उन्हें राज्यमंत्री दर्जा देना उचित नहीं समझा था। सहकारिता के अनुभव और युवा मोर्चा की प्रदेश भर में फैली टीम के दम पर विश्वास सहकारिता में बीजेपी का स्थायी आधार तैयार कर सकते हैं। उनसे पहले सहकारिता मंत्री रहे गोपाल भार्गव और गौरीशंकर बिसेन वो मुकाम हासिल नही कर पाए जो कांग्रेस के सहकारी नेताओं ने किया था। विश्वास के पास अवसर है कि वो कांग्रेस के सहकारिता पुरुष सुभाष यादव जैसा नाम और मुकाम हासिल करें।

अशोक, तुम्हारे हत्यारे हम हैं...

अशोक से खरीदा गया वो आखिरी पेन आज हाथ में है, लेकिन उससे कुछ लिखने का मन नहीं है। अशोक... जिसे कोई शोक न हो। यही सोच कर नामकरण किया होगा उसक...