Friday, October 26, 2018

भाजपा और सुहास भगत का परिवारवाद


ठीक ढाई साल पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रांत प्रचारक की जिम्मेदारी से मुक्त होकर भाजपा के प्रदेश संगठन महामंत्री जैसे घनघोर राजनीतिक दायित्व पर आए थे प्रचारक सुहास भगत। आते ही पहली बैठक में उन्होंने पार्टी में परिवार भाव से काम करने की मंशा जताई थी और पदाधिकारियों से भी यही अपेक्षा की थी। लेकिन, भगत का परिवार भाव देखने की कार्यकर्ताओं की अभिलाषा कोरी अभिलाषा ही लगने लगी थी। भगत ने अपने आसपास ऐसा एकांतवाद रच रखा था कि सत्ताधारी दल के नेताओं को भी उनके तिलस्म को भेदने का औजार नहीं मिल रहा था। नंदकुमार सिंह चौहान के प्रदेशाध्यक्ष रहते तक भगत का भगतभाव ही नजर आता रहा। इस दौरान उन्हें भाजपा के लिए अनुपयुक्त निरुपित करने वाले भी बहुत से लोग हो गए थे।  
कांधे पर झोला टांगे और हाथ में स्मार्टफोन लिए संघ शैली के भाजपाई सुहास जी से करीब से मिलने में कार्यकर्ता तो क्या नेता तक संकोच करने लगे थे। वही सुहास भगत आज प्रदेश भाजपा कार्यालय में खुला दरबार सजा रहे हैं, जो कुछ दिन पहले तक अबूझ पहेली से थे। भगत के इस दरबार में पार्टी का हर आम और खास हाजिरी लगा रहा है और उनकी सहजता का कायल हो रहा है। उन्होंने इसके लिए गोल कार्यालय के अपने कक्ष को नहीं चुना। वीआईपी कक्ष की आलीशान बैठक या निवास के नीचे बना नया मीटिंग रुम सह निजी कार्यालय भी उनके दरबार का स्थान नहीं बना। दरबार लगता है उस स्थान पर जो उनके निवास और गोल बिल्डिंग के बीच का गलियारा है। प्लास्टिक की कुर्सी पर बैठ भगत टिकटार्थियों से मिलते हैं। टिकट मांगने वाला केदारनाथ शुक्ल जैसा दो बार का विधायक हो, पूर्व मंत्री हो या फिर कोई नया टिकिटार्थी। सभी के साथ है उनका समान भाव। सुबह से गलियारे में मजमा लगने लगता है। सुहास जी जब-तब कुर्सी पकड़ कर इसी स्थान पर लोगों की सुनते हैं। उसी शांत भाव से, जैसे वे भाजपा में आने के समय थे, लेकिन नारेबाजी न करने की कड़ी नसीहत के साथ। आवेदन लेना, दावे सुनना, विचार करने का दिलासा देना और उठ कर मीटिंग के लिए चले जाना। कार्यालय में टिकट मांगने वालों का मेला लगने के साथ उनका यह रोज का उपक्रम हो गया है।  कल शाम ही सागर से कुछ संत-महात्मा लेकर ब्राह्मण समाज के दावेदार आए थे। महात्मा बंद कमरे में बात करना चाहते थे और भगत के निवास के दरवाजे तक भी पहुंच गए। भगत ने उनसे खुले दरबार में मिलना श्रेयस्कर समझा, जहां बाकी लोगों की सुनते-सुनाते हैं। क्या बातें हुईं, वहां मौजूद तमाम लोग सुन और गुन रहे थे। यह क्रम सुबह से रात तक कई बार चलता है। लोगों को भी उनका ठीया दिख गया है। अब तो गलियारे में ही दावेदार और मुलाकाती इंतजार करते हैं। जिस जगह पर संगठन मंत्री की कार खड़ी होती थी वो टिकट बंटवारे तक तीर्थ सी बन गई है। वजह, राष्ट्रीय संगठन महामंत्री रामलाल हों या कोई अन्य बड़ा नेता, महत्वपूर्ण रणनीतिक बैठकें इसी गलियारे से सटे भगत के निजी मीटिंग हॉल में जो होती है। यहां लगे चैनल गेट पर कार्यालय के कर्मचारियों के साथ संगीनधारी पुलिस का जवान इसकी महत्ता की गवाही भी देता है। यह और बात है कि गाहे बगाहे गलियारे पर पर्दे की आड़ भी की जाती है, लेकिन दरबारी तो दरबार खोज ही लेते हैं।
प्रदेश संगठन महामंत्री की यह शैली भाजपा के सत्ता में आने के बाद से तो कतई नहीं रही। 2002-03 में कप्तान सिंह सोलंकी के तेज के सामने आम दावेदार तो क्या अच्छे अच्छे नेताओं की भी हिम्मत नहीं पड़ती थी कि उनसे सहजता से अपनी बात कह सकें। उनके पूर्ववर्ती कृष्णमुरारी मोघे सहज थे तो कप्तान के बाद आए माखन सिंह इतने सरल कि उनकी जगह दावेदार सह संगठन महामंत्रियों अरविंद मेनन और भगवतशरण माथुर की शरण लेना ज्यादा पसंद करते थे। फिर आया मेनन युग, कुछ कुछ सोलंकी काल जैसा, लेकिन कप्तान से बहुत जुदा। मेनन के पास सबकी कुंडली थी और सामने वाले के लिए कोई न कोई नुस्खा या पहेलीनुमा नसीहत भी। पसंद और नापसंद जताने के उनके तरीके के साथ उनकी तेजी बहुतों को रास नहीं आई। मेनन के उत्तराधिकारी सुहास भगत तो पक्के भगत निकले और करीब दो साल तक शांति से पार्टी की परख करते रहे। देश-दुनिया और पार्टी के घटनाक्रम से हमेशा अपडेट रखने वाले अपने स्मार्टफोन की तर्ज पर उन्होंने नेताओं और पदाधिकारियों की भी रैम और मेमोरी खंगाल ली, फिर अपना अंदाज दिखाना शुरू किया। राकेश सिंह के अध्यक्ष बनते ही भगत की सक्रियता प्रस्फुटित होने लगी और अब मुखरित भी। यह कारक ही भगत की असली छवि का निर्माण कर रहा है।

Tuesday, October 23, 2018

अथ कम्प्यूटर बाबा कथाः शिव-राज को नफा कम, नुकसान ज्यादा




हर कम्प्यूटर का अपना अलग कन्फिगरेशन होता है और समय के साथ उसका साफ्टवेयर अपडेट होता है, तो कभी हैंग भी। कम्प्यूटर पर ज्यादा सर्फिंग की और सही एंटीवायरस नहीं रखा तो वायरस की मार से उसका इन्फेक्टेड होना भी स्वाभाविक है। अपनी तेज रफ्तार जीवन शैली और कम्प्यूटर का कथित एडिक्शन होने के कारण दिगंबर अखाड़ा के संत नामदेव त्यागी का नाम ही कम्प्यूटर बाबा हो गया। वे भी खुद को इसी नाम से पुकारा जाना पसंद करते हैं क्योंकि यह उन्हें अलग पहचान देता है।

कम्प्यूटर बाबा की महत्वाकांक्षा का संपूर्ण परिचय इतने शब्दों में ही समाहित हो सकता है। लेकिन नहीं, कम्प्यूटर चलाते-चलाते बाबा समय के साथ इतने लय-ताल में हैं कि उन्होंने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की नर्मदा सेवा यात्रा की कमजोर नस ऐसी पकड़ी कि उन्हें ही चकरघिन्नी बना रखा है। कभी कम्प्यूटर बाबा को साधने के लिए बड़े और नामी संत-महात्माओं की मदद लेने की चर्चा होती है तो कभी बाबाओं का जमावड़ा लगा कर प्रशस्तिगान कराना पड़ रहा है। लेकिन त्यागी बाबा हैं कि कम्प्यूटर के शुद्ध हिंदी नाम संगणक जैसे ही अबूझ बने हुए हैं। वे अहसास करा रहे हैं कि क्षणिक लाभ के लिए बैरागी बाबाओं से नजदीकी और सत्ता की राह दिखाने के कितने फायदे हैं और कितना ज्यादा नुकसान है।
 सिंहस्थ के दौरान अपनी नाराजगी और मान-मनौव्वल से चर्चित हुए कम्प्यूटर बाबा की सियासत कथा महज छह माह पुरानी है। पहले सधे हुए अंदाज में बाबा ने नर्मदा सेवा की असलियत खोलने का दम भरा तो उनके साथ चार और संतों को तत्काल नर्मदा की सेवा के लिए बनी एक समिति का सदस्य बना कर शिवराज ने राज्यमंत्री दर्जा और इस दर्जे की तमाम सुख सुविधाएं तोहफे में दे दीं। सत्ता का साथ मिला तो महत्वाकांक्षाओं ने ऐसी उड़ान भरी कि बाबा को चुनावी अखाड़ा दिखने लगा। उनका कम्प्यूटर राजनीति का दुर्गम प्रमेय नहीं तोड़ पाया तो बाबा को मंत्री दर्जे और सरकार प्रेम से ही विरक्ति हो गई। उन्होंने फिर दम भर दिया नर्मदा की असलियत उजागर करने का। इंदौर में बाबा का सरकार विरोधी धार्मिक मंच सजने से पहले ही उनके साफ्टवेयर को डिकोड करने और वायरस का तोड़ निकालने के जतन होने लगे थे। इसी कड़ी में गत दिवस भोपाल में हुई संत सभा में साधु संतों ने शिवराज का ऐसा यशोगान किया कि राजवंशी परंपरा लोगों को याद आ गई। शिवराज के 13 साल के कार्यकाल में धर्म और समाज के लिए हुए कार्यों को गिनाने के लिए बनाए गए कीर्तिपत्र के लिए संतों को आठ पेज भी कम लगने लगे थे। संत परंपरा के इन सियासती साधकों में उस मुख्यमंत्री के साथ सेल्फी खिंचाने की होड़ लगी रही, जो उनकी चरणवंदना करता है।
सवाल यह है कि क्या एक कम्प्यूटर बाबा इतने सक्षम हैं कि सरकार उनसे धर्मभीरू होने की पराकाष्ठा से भी आगे बढ़ कर भयग्रस्त है। जब बाबा ने विरोध का बिगुल फूंका तो शांत करने मंत्री दर्जा और शॉल श्रीफल थमा दिया और आंख मींच लीं। बाबा फिर रुष्ट हुए और अबकी नहीं मानेंगे, लगा तो उनके मुकाबले संतों की संगोष्ठी उतार दी। सरकारी और राजनीतिक कार्यक्रमों में मुख्य मंच के आसपास बने चबूतरेनुमा मंच पर पूरे समय शोभा के फूल बनने वाले ये संत महात्मा क्या समाज सुधारक संतों का प्रतिनिधित्व करते हैं? सबका साथ सबका विकास का नारा बुलंद करने वाली पार्टी के नेता क्यों इनको साधना से भटका कर सियासती मोहरे बनाते हैं ? काम बोलता है तो फिर इन लटकों झटकों की जरूरत क्यों पड़ती है। क्यों कोई बाबा कभी सरकार विरोधी और कभी अचानक सरकार भक्त हो जाता है ! और क्यों समय के साथ उसे नेताओं की भक्ति से विरक्ति हो जाती है। नेता और संतों का यह मेल-बेमेल गठबंधन क्या उचित है, यह मतदाताओं को ही तय करना होगा।     

Sunday, October 21, 2018

आइडिया में तो है दम.....नो उल्लू बनाविंग!



बेटी, बुजुर्ग और कमंडल के बाद अब शिवराज के टारगेट पर स्मार्टयुवा


प्रदेश में चौथी बार सरकार बनाने के लिए भारतीय जनता पार्टी ने आज एक नया पांसा फेंका है। एक आइडिया जो बदल दे आपकी दुनिया... एक मशहूर मोबाइल कंपनी के विज्ञापन का यह स्लोगन ही भाजपा को चुनाव के दौरान नए वोटबैंक को खींचने का आइडिया दे गया। हर हाथ में स्मार्ट फोन वाली नई जनरेशन के लिए भाजपा आइडिया में है दम? पूरा करेंगे हम!स्लोगन के साथ समृद्ध मध्यप्रदेशअभियान लेकर आई है।
व्हाट एन आइडिया सर जी! स्मार्ट फोन और गूगल बाबा के दम पर खुद को दुनिया भर का बुद्धिमान मानने वाली युवा पीढ़ी को लुभाने का इससे बेहतर आइडिया कोई और नहीं हो सकता, वो भी ऐन चुनाव के मौके पर। भाजपा के अत्याधुनिक संचार सुविधाओं से युक्त रथ यूथ हंटिंग पर निकल गए हैं। कॉलेज परिसर, यूथ कैंपस के साथ सार्वजनिक स्थान पर यह रथ युवाओं को आकर्षित करेंगे और मध्यप्रदेश को बदलने का सुझाव लेंगे। इस आइडिया के साथ कि आइडिया में है दम? पूरा करेंगे हम! 
 मजे की बात है कि भाजपा का यह विज्ञापन बनाने वालों ने ही आइडिया की दमदारी पर प्रश्नवाचक चिन्ह (?) लगा दिया है। इतना ही नहीं पूरा करेंगे हम उद्घोष भी विस्मयबोधक चिन्ह (!) के साथ है। यदि थोड़ा और विस्तार में जाएं तो इस अभियान से मिलने वाले सुझाव घोषणापत्र में शामिल करने से भाजपा प्रदेश चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष नरेंद्र सिंह तोमर साफ इंकार कर चुके हैं। उनकी सफाई है कि घोषणापत्र तैयार करने की उनकी अलग व्यवस्था है। समृद्ध मध्यप्रदेश अभियान में मिले सुझाव सरकार बनने के बाद विचार में आएंगे। तोमर अपनी बात को वजन देने के लिए सीएम हाउस में हुई पंचायतों से निकले आइडिया पर अमल की दुहाई देते हैं।
 बहरहाल, सरकार फिर भाजपा की बनी तो उम्मीद की जानी चाहिए कि प्रदेश के युवाओं के आइडिया से चलेगी और राज्य को समृद्ध बनाएगी। लेकिन उसके लिए जो प्रयत्न किए जा रहे हैं और जो टारगेट ग्रुप चुना गया है वह भाजपा के योजनाकारों के दमदार आइडिया की दाद देने लायक है। सरकार में रहते हुए 2008 के चुनाव में भाजपा ने प्रदेश की आधी आबादी यानी नारी शक्ति पर फोकस कर चुनाव लड़ा था और लाडली लक्ष्मी योजना, मुख्यमंत्री कन्यादान योजना जैसी सामाजिक सरोकारों की योजनाओं के जरिए पहली बार चौके-चूल्हे तक पहुंच बनाई थी। इसके बाद 2013 के चुनाव में पुरानी योजनाओं को मुख्यमंत्री तीर्थदर्शन योजना, अंत्योदय अन्न योजना की चाशनी में पगा कर बुजुर्ग और उनके बेटे-बेटियों तक को लुभाया था। कभी सड़क, बिजली, पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं के विकास तक सीमित रहने वाली सरकार को लोगों के सुख-दुख का सहभागी बनाने का यह सफल आइडिया भाजपा को खूब रास आया।  
 इस बार सिंहस्थ और नर्मदा सेवा यात्रा के जरिए धार्मिक रुझान दिखाने के साथ किसान और गरीबों के लिए बिजली बिल माफी और संबल योजना का सहारा तो है ही, एट्रोसिटी एक्ट और प्रमोशन में आरक्षण को लेकर सबसे ज्यादा मुखर युवाओं को इन मुद्दों से हटा कर आइडिया के दम पर खुद से जोड़ने का तरीका भाजपा ने खोजा है। 
रथ को झंडी दिखाते शिवराज सिंह चौहान और नरेंद्र सिंह तोमर
 यह अभियान चौथी बार शिव-राजके लिए एक नया वोटबैंक खड़ा करने की कोशिश है। इसीलिए मेरा सुझाव, मेरा चुनावजैसा आकर्षक जुमला ईजाद किया गया है। जिसकी जद में 40 साल से कम उम्र के प्रदेश के 56 फीसदी मतदाता हैं। इनमें भी खास फोकस 18 से 29 साल के एक करोड़ 53 लाख से अधिक वोटर पर है, जिनमें से करीब आधे ऐसे हैं जो पहली बार मताधिकार का प्रयोग करेंगे।
  रोजगार तलाशते-तलाशते परंपरागत प्रचार के तरीकों के बीच सत्ता में सहयोग के लिए अपनी आवाज का रास्ता खोज रही हंगरी क्यावाली पीढ़ी को भाजपा का यह आइडिया खुशियों की होम डिलीवरीकी राइट च्वाइसलग सकता है। बस, ध्यान रखना होगा कि चुनाव नतीजे आने के बाद यही पीढ़ी कहीं बोलने को मजबूर न हो जाए.... नो उल्लू बनाविंग

अशोक, तुम्हारे हत्यारे हम हैं...

अशोक से खरीदा गया वो आखिरी पेन आज हाथ में है, लेकिन उससे कुछ लिखने का मन नहीं है। अशोक... जिसे कोई शोक न हो। यही सोच कर नामकरण किया होगा उसक...