ठीक ढाई साल पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रांत प्रचारक की जिम्मेदारी से मुक्त होकर भाजपा के प्रदेश संगठन महामंत्री जैसे घनघोर राजनीतिक दायित्व पर आए थे प्रचारक सुहास भगत। आते ही पहली बैठक में उन्होंने पार्टी में परिवार भाव से काम करने की मंशा जताई थी और पदाधिकारियों से भी यही अपेक्षा की थी। लेकिन, भगत का परिवार भाव देखने की कार्यकर्ताओं की अभिलाषा कोरी अभिलाषा ही लगने लगी थी। भगत ने अपने आसपास ऐसा एकांतवाद रच रखा था कि सत्ताधारी दल के नेताओं को भी उनके तिलस्म को भेदने का औजार नहीं मिल रहा था। नंदकुमार सिंह चौहान के प्रदेशाध्यक्ष रहते तक भगत का भगतभाव ही नजर आता रहा। इस दौरान उन्हें भाजपा के लिए अनुपयुक्त निरुपित करने वाले भी बहुत से लोग हो गए थे।
कांधे पर झोला टांगे और हाथ में स्मार्टफोन लिए संघ शैली के भाजपाई सुहास जी से करीब से मिलने में कार्यकर्ता तो क्या नेता तक संकोच करने लगे थे। वही सुहास भगत आज प्रदेश भाजपा कार्यालय में खुला दरबार सजा रहे हैं, जो कुछ दिन पहले तक अबूझ पहेली से थे। भगत के इस दरबार में पार्टी का हर आम और खास हाजिरी लगा रहा है और उनकी सहजता का कायल हो रहा है। उन्होंने इसके लिए गोल कार्यालय के अपने कक्ष को नहीं चुना। वीआईपी कक्ष की आलीशान बैठक या निवास के नीचे बना नया मीटिंग रुम सह निजी कार्यालय भी उनके दरबार का स्थान नहीं बना। दरबार लगता है उस स्थान पर जो उनके निवास और गोल बिल्डिंग के बीच का गलियारा है। प्लास्टिक की कुर्सी पर बैठ भगत टिकटार्थियों से मिलते हैं। टिकट मांगने वाला केदारनाथ शुक्ल जैसा दो बार का विधायक हो, पूर्व मंत्री हो या फिर कोई नया टिकिटार्थी। सभी के साथ है उनका समान भाव। सुबह से गलियारे में मजमा लगने लगता है। सुहास जी जब-तब कुर्सी पकड़ कर इसी स्थान पर लोगों की सुनते हैं। उसी शांत भाव से, जैसे वे भाजपा में आने के समय थे, लेकिन नारेबाजी न करने की कड़ी नसीहत के साथ। आवेदन लेना, दावे सुनना, विचार करने का दिलासा देना और उठ कर मीटिंग के लिए चले जाना। कार्यालय में टिकट मांगने वालों का मेला लगने के साथ उनका यह रोज का उपक्रम हो गया है। कल शाम ही सागर से कुछ संत-महात्मा लेकर ब्राह्मण समाज के दावेदार आए थे। महात्मा बंद कमरे में बात करना चाहते थे और भगत के निवास के दरवाजे तक भी पहुंच गए। भगत ने उनसे खुले दरबार में मिलना श्रेयस्कर समझा, जहां बाकी लोगों की सुनते-सुनाते हैं। क्या बातें हुईं, वहां मौजूद तमाम लोग सुन और गुन रहे थे। यह क्रम सुबह से रात तक कई बार चलता है। लोगों को भी उनका ठीया दिख गया है। अब तो गलियारे में ही दावेदार और मुलाकाती इंतजार करते हैं। जिस जगह पर संगठन मंत्री की कार खड़ी होती थी वो टिकट बंटवारे तक तीर्थ सी बन गई है। वजह, राष्ट्रीय संगठन महामंत्री रामलाल हों या कोई अन्य बड़ा नेता, महत्वपूर्ण रणनीतिक बैठकें इसी गलियारे से सटे भगत के निजी मीटिंग हॉल में जो होती है। यहां लगे चैनल गेट पर कार्यालय के कर्मचारियों के साथ संगीनधारी पुलिस का जवान इसकी महत्ता की गवाही भी देता है। यह और बात है कि गाहे बगाहे गलियारे पर पर्दे की आड़ भी की जाती है, लेकिन दरबारी तो दरबार खोज ही लेते हैं।
प्रदेश संगठन महामंत्री की यह शैली भाजपा के सत्ता में आने के बाद से तो कतई नहीं रही। 2002-03 में कप्तान सिंह सोलंकी के तेज के सामने आम दावेदार तो क्या अच्छे अच्छे नेताओं की भी हिम्मत नहीं पड़ती थी कि उनसे सहजता से अपनी बात कह सकें। उनके पूर्ववर्ती कृष्णमुरारी मोघे सहज थे तो कप्तान के बाद आए माखन सिंह इतने सरल कि उनकी जगह दावेदार सह संगठन महामंत्रियों अरविंद मेनन और भगवतशरण माथुर की शरण लेना ज्यादा पसंद करते थे। फिर आया मेनन युग, कुछ कुछ सोलंकी काल जैसा, लेकिन कप्तान से बहुत जुदा। मेनन के पास सबकी कुंडली थी और सामने वाले के लिए कोई न कोई नुस्खा या पहेलीनुमा नसीहत भी। पसंद और नापसंद जताने के उनके तरीके के साथ उनकी तेजी बहुतों को रास नहीं आई। मेनन के उत्तराधिकारी सुहास भगत तो पक्के भगत निकले और करीब दो साल तक शांति से पार्टी की परख करते रहे। देश-दुनिया और पार्टी के घटनाक्रम से हमेशा अपडेट रखने वाले अपने स्मार्टफोन की तर्ज पर उन्होंने नेताओं और पदाधिकारियों की भी रैम और मेमोरी खंगाल ली, फिर अपना अंदाज दिखाना शुरू किया। राकेश सिंह के अध्यक्ष बनते ही भगत की सक्रियता प्रस्फुटित होने लगी और अब मुखरित भी। यह कारक ही भगत की असली छवि का निर्माण कर रहा है।


