Monday, September 28, 2015

डर की सियासत और मानवता


ऐसा तो सिर्फ फिल्मों में होता है...कि शादी के मंडप में पुलिस आ धमके। रील लाइफ की कहानी रियल लाइफ में उतरे तो बवाल तो मचना ही था। सो मच गया। हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के घर सीबाआई की छापेमारी का यह एंगल घर-घर की कहानी और सास-बहू छाप सीरियल देखने की आदी भारतीय महिलाओं और कई पुरूषों को हजम नहीं होगा। सोचिए, किसी बाप ने कितने अरमानों से बेटी के विवाह की तैयारियां की होंगी। इस मौके को यादगार बनाने के हर संभव इंतजाम किए जाते हैं। फिर यह तो एक मुख्यमंत्री और बड़े नेता की लाड़ली की शादी थी...अविस्मरणीय बनाने के सारे जतन किए ही होंगे, लेकिन ये न सोचा होगा कि ऐन फेरे के वक्त उनके घर पर सीबीआई जैसी 'प्रतिष्ठित' जांच एजेंसी धावा बोलेगी।
घटना ड्रामेटिक है...नाराज करने वाली है और विस्मित करने वाली भी... कुछ दिन बाद लोग सीरियल की कहानी की तरह इसे भी भूल जाएंगे। पर क्या वीरभद्र और उनका परिवार इसे कभी भुला पाएगा। अरे भाई छापा मारने...कार्रवाई करने के लिए केवल एक यही दिन बचा था क्या? वीरभद्र सिंह कहीं भागे जा रहे थे या फिर सीबीआई को उम्मीद थी शादी के मौके पर उनकी वो धन संपदा बेपर्दा मिलेगी, जिसकी शिकायत पर जांच चल रही है। ये कोई सतयुग तो है नहीं। साहब को क्या अंदेशा नहीं रहा होगा खुद पर होने वाली छापेमारी का! सादगी से मंदिर में सप्तपदी करा रहे थे बिटिया की। इस समारोह के लिए वो परिवार समेत घर से निकलते इससे पहले छापा डल गया। रंग में भंग पड़ गया। वीरभद्र तो वीरभद्र हैं। छठवीं बार मुख्यमंत्री बने हैं। राजनीतिक डगर पर संभलने और फिसलने के अनुभवी हैं। इसलिए छापे से डरे नहीं, डिगे नहीं। बेटी को विदा करने के बाद सीबीआई वालों से मिले। पूरे विषाद और क्षोभ के साथ। खुशी के मौके पर अपमान के बाद यही चीजें तो बची हैं उनके पास। यह पहला मौका नहीं है जब किसी बड़े नेता को सीबीआई ने लपेटा है। पर इस तरह से किसी को नहीं लपेटा जैसा वीरभद्र के साथ हुआ।
 बात यहीं नहीं थमती। बात निकली है तो दूर तलक जाएगी वाला मामला है यह। आज जो लोग इस घटना पर खुश हैं कल दुखी हो सकते हैं। आखिर मामला 'तोते' के कटखना होने का जो है। तोता यानी सीबीआई। जिसे सुप्रीम कोर्ट ने पिंजरे का तोता कह कर नया मुहावरा गढ़ा था। उसी सीबीआई ने 'मानवता' को ताक पर रख कर हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के एक दर्जन ठिकानों पर छापा मार दिया। वो भी उस दिन जब उनकी बेटी की शादी थी। अब इस घटना पर कहने वाले कह रहे कि ऐसा तो कोई दुश्मन के साथ भी नहीं करता... दुश्मन भी बेटी की शादी में सहयोग करता है...आदि, इत्यादि। आरोप लग रहे हैं कि सीबीआई में जरा सी भी मानवता नहीं है। पुलिस और पुलिस वालों से बनी इस जांच एजेंसी से मानवता की अपेक्षा भी क्यों? ये कोई आईपीएल मार्का भगोड़े ललित मोदी और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के बीच वाला 'मानवता' का मामला थोड़े ही है। स्वराज ने मानवीयता के नाते एक बीमार महिला की मदद की तो विपक्ष ने संसद सिर पर उठा ली थी। अरे भाई, माना ललित मोदी की पत्नी है वह महिला पर इसमें मानवीयता भी तो थी। यही तर्क दिया था न लोकसभा में वक्तृत्व कला की माहिर सुषमा स्वराज ने। उनकी पार्टी, जिसकी सरकार है, उसने भी इसी तर्क के सहारे उनका हौसला बढ़ाया था कांग्रेस के आरोपों का मुकाबला करने में। उसी मानवता और मानवीयता की उम्मीद कांग्रेस वीरभद्र के मामले में कर रही थी और सीबीआई में इसका नितांत अभाव निकला।
 भ्रष्टाचार के मामले में पड़े इस छापे पर कोई गुरेज नहीं...ऐतराज है तो उसकी टाइमिंग पर। शादी के मौके पर किसी के घर भी कोई ऐसे धमकता है क्या? सवाल इसी बात को लेकर है। यदि टाइमिंग सही होती तब भी छापे के खिलाफ आवाज उठती, लेकिन उसमें पब्लिक अपील नहीं होती। आखिर हम उस समाज में रहते हैं, जहां किसी बड़े अपराध का आरोपी भी चुनाव जीत जाए तो वह सीना फुला कर दावा करता है कि जनता की अदालत ने उसे बरी कर दिया है। अदालत में चल रहा मामला तो विपक्षी पार्टी का षड़यंत्र है। वीरभद्र के मामले में भी यही दावे हो रहे हैं। होते भी रहेंगे। आखिर जिस मामले में सीबीआई ने उनके खिलाफ प्रकरण दर्ज किया है वह पुराना है, साल 2009 से 2011का। जब वो केंद्र सरकार में मंत्री थे। इन आरोपों का सामना करते हुए उनकी अगुवाई में कांग्रेस ने 2012 में हिमाचल का चुनाव लड़ा और जीत कर सरकार बनाई। उस चुनाव में भ्रष्टाचार ही मुख्य मुद्दा था। दोनों तरफ से आरोप-प्रत्यारोप चल रहे थे। फैसला वीरभद्र के पक्ष में सुनाया था जनता ने। ऐसे ही जनता से अपने हक में फैसले की दुहाई के उदाहरण भरे पड़े हैं भारतीय सियासत में। अब वीरभद्र के खिलाफ सीबीआई की कार्यवाही से उनकी पार्टी की भवें तनना स्वाभाविक है। उस सीबीआई ने यह कार्यवाही की है, जिसे पिजरे का तोता बताया जाता है। यानी केद्र में जिस पार्टी की सरकार होगी सीबीआई उसके इशारे पर काम करेगी। यह जांच एजेंसी इस आरोप को पुष्ट करने के सिवा और कर भी क्या सकती, उस पर बंधन ही इतने ज्यादा हैं। वाकई पिंजरे में कैद।
सीबीआई की वीरभद्र सिंह पर की गई कार्यवाही से भारतीय राजनीति में वह रास्ता और मजबूत हो रहा है, जिस पर वर्तमान में बीजेपी शासित राज्यों की सरकारें चल रही हैं। विरोधी दल के नेताओं पर शिकंजा कसना। मध्यप्रदेश में 12 साल से भी ज्यादा पुराने भर्ती मामले में पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह से लेकर तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष श्रीनिवास तिवारी तक आरोपी हैं। ऐसे में एक वर्तमान मुख्यमंत्री पर सीबीआई का फंदा पड़ना आगे की राह दिखाता है। कांग्रेस नेता 'आरोप राग' आलाप रहे हैं कि सीबीआई की रेड बीजेपी के मुख्यमंत्रियों के घर क्यों नहीं पड़ रही। उन पर भी भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं। आज स्थितियां भले ही अलग हों, लेकिन एक बात तो तय है कि एक मुख्यमंत्री पर छापेमारी से रिवेंज पॉलिटिक्स का एक नया अध्याय भारतीय राजनीति में खुल गया है। सरकार बदलते ही गड़े मुर्दे उखाड़ कर सीबीआई के तोते से फिर किसी को नहीं कटवाया जाएगा, इसकी गारंटी है क्या? होगी भी कैसे? डर की सियासत में मानवता की गुंजाइश हो भी तो कैसे? राजनीति में बदलापुर संस्कृति जो घर कर गयी है। चलो इसी बहाने राजनीति और सिस्टम की गंदगी छंटती है तो यही सही। कुछ तो सुधार होगा....कोई तो डरेगा...या शर्म खाएगा....

Tuesday, September 22, 2015

बकरा किश्तों पर....

ये पाकिस्तानी हास्य कलाकार उमर शरीफ के मशहूर स्टेज शो का टाइटिल जरूर है....लेकिन मामला कहीं से भी पाकिस्तानी नहीं है। पूर्ण स्वदेशी है। गांधी के स्वराज की तरह स्वदेशी। भारत के संविधान में दिए गए अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार जैसा...बकरा किश्तों पर।

तो साहब, हनुमानजी के दिन यानी मंगलवार को भारत भूमि के एक बकरे को जीवनदान मिलने का फरमान मिल गया। पता नहीं वो बकरा इसे सुन कर कितना खुश हुआ होगा। उसके लिए तो कोई विधानसभा चुनाव जीतने के बाद मिलने वाली खुशी जैसी होगी ये खुशी। राजनीतिक दल में कोई उच्च प्रभावशाली पद हासिल होने पर मिलने वाली प्रसन्नता जैसी अनुभूति हो रही होगी उसे। आखिर वो बकरा किसी गांव खेड़े या गली मोहल्ले का तो है नहीं। उसका नाता तो देश के ह्दयप्रदेश मध्यप्रदेश के ह्दय क्षेत्र में स्थित एक गौरवशाली राजनीतिक दल से जुड़ गया है। उसे बकरीद के दिन राष्ट्रीय दल के इसी प्रादेशिक कार्यालय के सामने कुर्बान करने का जो तय हुआ था। पता नहीं क्यों और कैसे...उसकी इस स्थल पर कुर्बानी देने की ठानने वालों का मन पलट गया। और...वह इतिहास में अपना नाम दर्ज कराने से चूक गया। अब बकरे को जान बचने की खुशी है तो इतिहास के पन्नों तक नहीं पहुंच पाने का गम भी। बेचारा करे तो क्या करे ! उसके बस में होता तो लिंक रोड पर किसी बस के नीचे आकर जान दे देता...लेकिन उससे वह दुर्घटना में हलाक तो साबित हो सकता था...कुर्बान नहीं।
 खैर बकरे की बकरा जाने...हम तो उमर शरीफ के बकरा किश्तों वाले चुटीले हास्य को याद करते हैं...जिसमें एक प्रसंग में आग के चक्कर लगाते...लगाते अचानक नाटक का हीरो रूक जाता है...क्योंकि फेरे डालने से उसके हिंदू हो जाने का खतरा जो उसे दिखता है। बस सियासी बकरे की जान की शामत आने की वजह भी ऐसी ही है। लगातार तीन विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी से शिकस्त झेलने के बाद जब मध्यप्रदेश कांग्रेस के कर्णधारों ने बीजेपी के चाल, चरित्र और चेहरे के परे झांक कर देखा तो उन्हें वहां तंत्र, मंत्र और यंत्र के साथ आस्था नजर आई। बस अपने ग्रह नक्षत्र सुधारने के लिए प्रदेश कांग्रेस कार्यालय में भी बीजेपी टाइप टोटके किए गए। फायदा न हुआ तो दो साल से बीजेपी की तर्ज पर गणेशोत्सव मनाया जाने लगा। कांग्रेस तो 100 टका वाली धर्मनिरपेक्ष पार्टी है। गणेशजी बैठेंगे तो ईद भी मनेगी और क्रिसमस भी। सो भाई लोगों ने गणेश का जवाब बकरीद से देने का तय कर लिया।

ये त्योहार भी उस मौके पर आए, जब प्रदेश कांग्रेस में पदों की रेवड़ी बंटने के बाद कलह के कैक्टस उगे हुए हैं। जिन्हें पद नहीं मिला भोपाल और दिल्ली के बीच चलने वाली शान-ए-भोपाल एक्सप्रेस को ही घरौंदा बनाए हुए हैं। एक टांग यहां दूसरी दिल्ली में। इन्हीं में से कुछ पक्के कांग्रेसियों ने विरोध का तरीका ढूंढा। गणेश स्थापना के जवाब में पार्टी कार्यालय के सामने बकरीद मनाने का ! सच है। कोई वहां शंख झालर बजा कर सुबह शाम गणेश भगवान की आराधना कर सकता है तो दूसरे को अपनी आस्था के प्रदर्शन से कैसे रोका जा सकता है। बकरीद पर बकरे की कुर्बानी के जज्बे ने इस पार्टी की साख बढ़ा ही दी होगी ! इसे लेकर नाटक नौटंकी जितनी हो सकती थी, सब हुई। किसी से बकरे की जान को खतरे की चिंता जताई गई तो किसी पर शक जताया गया। कुल जमा उमर शरीफ को शर्मिंदा करने लायक सारे आइटम थे। खैर कोई आकाशवाणी हुई...कोई संदेश आया। या फिर सद्बुद्धि। अचानक कार्यालय में बकरे की कुर्बानी का आइडिया ड्राप कर दिया गया। बाकायदा प्रेस नोट जारी कर 'शाकाहारी ईद मिलन' की घोषणा हो गई। साल भर पहले भी ऐसा ही एपिसोड हुआ था। तब बकरा तो नहीं आया था, पर उसके गोस्त से बने कबाब के चर्चे जरूर थे। धन्य हैं सोशल मीडिया पर छाए एक महानगर के वो बाशिंदे जिन्होंने नमाज अता करते वक्त आधी सड़क गणेश जी के लिए छोड़ दी थी। धन्य वो गणेश भक्त भी, जिन्होंने नमाज का सम्मान करते हुए शांति से जुलुस निकाला। उन्होंने भी तो बकरा किश्तों पर... देखा होगा। हमने भी देखा, पर शायद हमारे चश्मे का नंबर अलग था। 
( संदर्भ- मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल स्थित प्रदेश कांग्रेस कार्यालय में गणेश स्थापना और बकरीद मनाने को लेकर कांग्रेस नेताओं के बीच मचा घमासान और उसका उतना ही रोचक पटाक्षेप।)

Monday, September 21, 2015

रसगुल्ला किसका? हमारा और किसका!


माना, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृह प्रदेश गुजरात की सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी मध्यप्रदेश को एशियाटिक लॉयन यानी गिर के बब्बर शेर सिर्फ इसलिए नहीं दे रही, क्योंकि बड़ी बिल्लियों की यह प्रजाति गुजरात की अस्मिता से जुड़ गई है। गिर के जंगल में इन शेरों के कुनबों को स्वच्छंद विचरण करते देखने देश-विदेश से सैलानी आते हैं। इनसे गुजरात के पर्यटन को बढ़ावा मिलता है। शेर मध्यप्रदेश के बाशिंदे हो गए तो गुजरात का 'गौरव' ही नहीं पर्यटन से होने वाली कमाई भी बंट जाएगी। पर...रसगुल्ला तो शेर नहीं है। इसे तो कहीं भी बनाया और हजम किया जा सकता है। फिर क्यों ओडिसा और पश्चिम बंगाल की सरकारें आमने-सामने हैं...?
यदि रसगुल्ले को 'गुजराती गौरव' चश्मे से देखें तो...आने वाले समय में एक खास प्रदेश से बाहर के बाशिंदे इसका रसास्वादन नहीं कर पाएंगे ! यदि रसगुल्ला उड़िया निकला तो सिर्फ कलिंग प्रदेश के रहवासियों का राजकीय मिष्ठान बन कर रह जाएगा। और यदि पश्चिम बंगाल मूल का हुआ तो केवल बंगालियों को ही नसीब होगा। दीगर राज्य के निवासी यदि रसगुल्ला बनाते या खाते हैं तो उन्हें एक नए किस्म का टैक्स...रायल्टी चुकानी पड़ेगी।
रसगुल्ला महिमा गान ! ये शक-शुभहा ! इसलिए क्योंकि 21 वीं सदी में विकास की होड़ में लगे दो राज्य रसगुल्ले को लेकर तलवारें खींचे हुए हैं। जर,जाेरू और जमीन के लिए झगड़ों की बात पुरानी हो गई। ऩए दौर में इंटलेक्चुअल प्रापर्टी राइट, पेटेंट और जियोग्राफिकल इंडिकेशन (जीआई ) टैग को लेकर झगड़े हो रहे हैं.....ये संघर्ष का नया दौर है।कुछ समय पहले भारत ने अमेरिका से खुशबूदार बासमती चावल के पेटेंट की जंग जीती तो मध्यप्रदेश राज्य ने अपने बासमती के लिए जीआई टैग हासिल कर पाकिस्तान को नाराज कर दिया। अब इसे लेकर विश्व बिरादरी में एक नई जंग छिड़ गई है कि बासमती किसका असली है....मध्यप्रदेश का या पाकिस्तान का ?  बस ऐसा ही एक संघर्ष हम सब का पसंदीदा रसगुल्ला भी झेल रहा है। ओडिसा सरकार ने इस सफेद, गोल मटोल, रसभरे और मीठे  मिष्ठान पर अपना दावा जताया है। ओडिसा  ने इसके लिए जीआई टैग क्या मांगा हंगामा मच गया। ग्रामीण उत्सवों में बंगाली मिठाई का पर्याय रसगुल्ला...विवाद का गोला बन गया। इसकी मिठास में  कसैलापन आ गया...नर्म मुलायम रसगुल्ला अचानक रूखा और बेस्वाद लगने लगा ! न जाने कब इसे गप करना बौद्धिक संपदा अधिकार कानून का उल्लंघन हो जाए। किसी मेहमान को रसगुल्ला परोस कर पता नहीं कौन सा अपराध हो जाए? डर हो भी क्यों ना! ओडिसा सरकार ने रसगुल्ले के जन्मस्थान की तलाश और उस पर अधिकार जताने के लिए जांच कमेटी गठित कर दी हैं। एक नहीं, दो नहीं। तीन-तीन समितियां रसगुल्ला मामले की जांच करेंगी। हर पहलू की जांच होगी। सरकार की गंभीरता का अंदाजा इसी से लग जाता है कि समितियों में सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग विभाग के साथ संस्कृति विभाग के अफसर होंगे। पहली समिति ओडिसा में रसगुल्ला के उद्भव से जुड़े तथ्यों और सबूतों को देखेगी। दूसरी समिति रसगुल्ले पर पश्चिम बंगाल के दावे की पड़ताल करेगी। तीसरी समिति ओडिसा के दावे को स्थापित करने के लिए जरुरी दस्तावेज जुटाएगी। मतलब रसगुल्ला अब सिर्फ मिठाई की दुकान पर मिलने वाला मीठा गोला नहीं रहा। उसके व्यवसायिक पहलू को देखा जा रहा है। जीआई टैग क्या ऐसे वैसे ही मांगा जा रहा है?
 ये लालू यादव या किसी और राजनेता की जन्मतिथि का विवाद होता तो समझ आता कि राजनीति है, ये तो रसगुल्ले का मामला है। जलेबी से भी ज्यादा उलझना ही था। इमरती का सिरा पकड़ने से भी ज्यादा कठिन होना ही था। सो हो गया। गुजराती पाककला विशेषज्ञ तरला दलाल से लेकर पंजाबी शेफ संजीव कपूर और विकास खन्ना तक की रेसिपी में कोहिनूर की तरह जगमगाते रसगुल्ले की आखिर हकीकत क्या है? इसे तो हर हलवाई बनाता है। अब तो इंस्टेंट मिक्स भी मिलता है। देशी से लेकर मल्टीनेशनल कंपनियां तक मिक्स बेच मुनाफा कमा रहीं हैं। घर पर भी दूध फाड़ कर इसे बना लिया जाता है। इतना सुलभ...इतना सहज रसगुल्ला आखिर है किसका?  
पश्चिम बंगाल का दावा है कि कलकत्ता के नबीन चंद्र दास ने इस मिठाई की खोज की थी। न्यूटन और आइंस्टीन द्वारा धोखे से की गई बड़ी खोजों की ही तर्ज पर नबीन बाबू बनाते तो प्रसिद्ध बंगाली मिठाई 'सोन्देश' थे पर साल 1868 में एक दिन रोसोगुल्ला की ईजाद हो गई। अब उनके वारिस और बड़े रोसोगुल्ला कारोबारी के.सी. दास इस पर अपना अधिकार जताने और बांग्ला गौरव से इसे जोड़ने इसका इतिहास लिखवा रहे हैं। जिसे पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को सौंपा जाएगा। पड़ोसी से बड़ा जलकुकड़ा भी कोई हो सकता है क्या? ओड़िसा ने भी दांव चल दिया कि रोसोगुल्ला के बंगाली अविष्कार से बहुत पहले से रसगुल्ला उनके घर बनता आ रहा है। तुर्रा ये कि अपने भात के लिए जगप्रसिद्ध पुरी के भगवान जगन्नाथ को इसका भोग लगभग 300 साल से लग रहा है। यानी बंगाल से 150 साल पहले से। इतिहास का कोई जानकर एक हजार साल पुरानी परम्परा की दुहाई दे रहा है तो कोई 13 वीं तो कोई 18 वीं सदी के प्रमाण बता रहा है। धार्मिक आख्यान भी हैं, दलील को मजबूती देने। इसका जन्मस्थान भी खोज लिया गया। कटक और भुवनेश्वर के बीच नेशनल हाइवे नंबर 5 पर स्थित पाहाल गांव को जन्मस्थली बताया जा रहा है, जहां के रसगुल्ले काफी मशहूर हैं। ओडिसा सरकार इसी गांव के रसगुल्ले को जीआई मान्यता दिलाना चाहती है। तो बात बस इतनी सी ही है जियोग्राफिकल इंडिकेशन की। ये हुआ तो...!
न जी बात इतनी सी नहीं है! बात अस्मिता की है। राजनीति की है। जनता को भरमाने की है। गुम हो चुकी सड़क, कागजों में बन रही नहर या हवा में खुद रहे सरकारी कुओं को तलाशने का ऐसा जज्बा क्यों नहीं होता जैसा रसगुल्ले को लेकर है। आम आदमी, विकास और सुविधाएं बेमानी हैं इसकी मिठास के सामने। सरकारों को खोजना है तो सड़क, बिजली और पानी क्यों नहीं खोजा जाता। रसगुल्ले का इतिहास खंगालने की इतनी मशक्कत से हासिल क्या होगा ! जिसकी रेसिपी पर किसी सरकार का कण्ट्रोल नहीं। जिसका जब मन करे खरीद कर लाए...घर में बनाए और गप कर जाए। रसगुल्ला तो रसगुल्ला ही रहेगा। इसकी मिठास, मुलायम सफेदी और लज्जत पर रसगुल्ले के सिवा किसी और का पेटेंट हो सकता है क्या? चिंता नको।वाह रसगुल्ला। वाह रोसोगुल्ला।


Thursday, September 10, 2015

दाग अच्छे भी हों, बुरे होते हैं

विश्व हिंदी सम्मेलन में आए देश और दुनिया भर के हिंदी प्रेमियों के बीच आंध्रप्रदेश से आए एक सज्जन अनायास भोजनशाला में टकरा गए। पंडाल से लेकर सम्मेलन की तमाम विशेषताओं और स्वागत सत्कार के लिए उन्होंने मध्यप्रदेश की तारीफ की। लेकिन, प्रदेश की पहचान के सवाल पर बोले, व्यापमं से है मध्यप्रदेश की पहचान।
तेलगु लहजे की हिंदी बोलने वाले उन विद्वान ने यह बात आयोजनकर्ताओं या इस आयोजन से जुड़े किसी व्यक्ति के सामने कही होती तो शायद तत्काल वापसी का टिकट मिल गया होता। वो खुशकिस्मत थे। पर क्या इतना बड़ा वैश्विक आयोजन करने के बाद भी मध्यप्रदेश खुशकिस्मत बन पाया ? इस प्रदेश पर 31 साल पहले गैस काण्ड का ग्रहण लगा था। गूगल देवता से मध्यप्रदेश या मध्यप्रदेश की राजधानी के बारे में पूछो तो गैस त्रासदी का चेहरा दिखाते अनगिनत पेज वो सामने फेंक देता था। मानो भोपाल जिंदा लोगों का शहर नहीं लाशों का कब्रिस्तान हो! दुनिया भर में काम कर रहे कई एनजीओ से लेकर पर्यावरणवादी, मानवतावादी और मानववादी संगठन और लोग भोपाल को सिर्फ और सिर्फ गैस काण्ड की वजह से जानते आए हैं...पीढी बदलने के बावजूद यह पहचान नहीं बदल सकी थी। उड़ीसा के कालाहांडी जिले के साथ जैसे भुखमरी की पहचान चिपकी हुई है ठीक वही हाल भोपाल का था।
बीमारू प्रदेश की लिस्ट से खुद बाहर होकर इस बीमारू राज्य शब्द का आस्तित्व समाप्त कराने वाले मध्यप्रदेश का यह दुर्भाग्य ही है कि उसे सकारात्मक पहचान मिल ही नहीं पा रही। अब बीमारू नहीं रहा, कहने से काम नहीं चलता। विकासशील हो गया है, कहना भी कोई प्रभाव नहीं डालता। मध्यप्रदेश को नई पहचान मिली है व्यापमं से। इस घोटाले ने लोगों पर जो प्रभाव डाला हो वो अपनी जगह, इसने नकारात्मक ढंग से पूरे प्रदेश को प्रभावित कर दिया है। घोटालेबाजों को सलाखों के पीछे भेजने वाली सरकार की मंशा का भी इसमें अच्छा या बुरा... योगदान तो है ही। क्या कोई अपना ही घाव दुनिया के सामने उघारता है ? नहीं न! घाव का इलाज किया जाता है। डॉक्टर को दिखाया जाता है और मर्ज के कारणों को दूर किया जाता है। घाव की नुमाइश नहीं की जाती। व्यापमं मामले में इलाज की तुलना में नुमाइश ज्यादा हो गई और ये वो नासूर बन गया जिसका दाग आसानी से नहीं मिटता।
शायद ये किस्मत का ही लेख है कि प्रदेश को प्रसिद्धि 'सद्' कार्यों के लिए नहीं मिलती। राष्ट्रीय मीडिया के मित्र बताते हैं कि मध्यप्रदेश की सकारात्मक खबरों के लिए उनके संस्थान में स्थान नहीं है। हां, नकारात्मक समाचार हो तो खूब चलता है। अब विश्व हिंदी सम्मलेन को ही देख लीजिए। वो तवज्जो नहीं, जो होनी चाहिए थी इस अंतर्राष्ट्रीय आयोजन की। इसीलिए गेंहू की पैदावार में पंजाब को पीछे छोड़ने वाला मध्यप्रदेश। देश को लाड़ली लक्ष्मी योजना देने वाला मध्यप्रदेश। कई विशेषताओं वाला प्रदेश जाना जाता है तो व्यापमं घोटाले से। उम्मीद की जानी चाहिए कि आंध्रप्रदेश से आए उन महानुभाव की तरह बाकी भद्रजन सम्मेलन से जब लौटें तो मध्यप्रदेश की नई पहचान लेकर जाएं....कि ये हिंदी प्रदेश है। देश का ह्रदयप्रदेश है। व्यापमं प्रदेश नहीं। ये दाग अच्छा नहीं है। व्यापमं का भर्ती घोटाला भले ही सीबीआई तक पहुंच गया हो, उसके आगे भी मध्यप्रदेश है। आखिर दाग कैसे भी हों वो हमेशा अच्छे नहीं होते। कुछ दाग इतने बुरे होते हैं कि पहचान बदल देते हैं। 

विवादों का जनरल


कुछ लोगों को बखेड़ा खड़ा करने में आनंद आता है। भारत के विदेश राज्य मंत्री जनरल विजय कुमार सिंह भी ऐसे ही लोगों में शुमार हैं। देश में 32 साल बाद हो रहे विश्व हिंदी सम्मलेन से ठीक एक दिन पहले  जनरल
साहब के श्रीमुख पर फिर सरस्वती की जगह कोई आसुरी शक्ति विराजमान हो गई और उन्होंने दे डाला एक और विवादित बयान....जी हां, विवादित बयान, जो इनकी आदत में शुमार रहा है।
जनरल वीके सिंह उस टीम के अहम अंग हैं, जो सम्मेलन का काम देख रही है। वे कुछ दिनों से भोपाल में ही डेरा डाले बैठे हैं और उस मीडिया को घूम-घूम कर इंटरव्यू दे रहे हैं...जिसके लिए उन्हें 'प्रोस्टीट्यूट' जैसे शब्दों के इस्तेमाल से भी परहेज नही रहा है। जनरल साहब ने हिंदी सम्मेलन का उद्घाटन करने आ रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आने से एक दिन पहले वो बयान दे दिया, जिसने साहित्य जगत में हलचल मचा दी है। इस आयोजन में आमंत्रित नहीं किए जाने से खफा बैठे कई साहित्य मनीषियों के माथे पर जनरल की बातों से बल पड़ गए हैं। लोग पूछ रहे हैं कि क्या साहित्यकार केवल खाने और दारू पीने ऐसे आयोजनों में आते थे ? आते भी थे तो क्या सरकार उनकी खातिरदारी इसी तरह करती थी ?
बंदूक से निकली गोली लौट कर नहीं आती। इस तथ्य से तो सेना प्रमुख रहे वी के सिंह बखूबी वाकिफ होंगे, लेकिन जुबान से निकली बोली का भी यही अंदाज और अंजाम होता है...ये जानने समझने में उन्हें समय लगता है। फौजी जो ठहरे। फौज में राजनीति का स्थान नहीं होता।आम फौजी राजनीति कर भी नहीं सकता। लेफ्ट, राईट, कदमताल, दाहिने मुड़, तेज चल...से समय मिले तो राजनीति करे। पर विजय कुमार तो विजय कुमार हैं। हिंदी सम्मेलन का समापन करने आ रहे महानायक अमिताभ बच्चन की सिल्वर जुबली फिल्मों में हीरो का नाम यूंही तो नहीं विजय रखा जाता था। इस नाम में दम है। सो जनरल भी दमदारी से बोल बचन कर लेते हैं। ये अलग बात है कि नौसिखुआ राजनेता होने के कारण मिसफायर ज्यादा होता है। 
भोपाल से ही पीएचडी कर चुके वी के सिंह तब भी विवाद में थे जब पूरा जीवन नौकरी और कई प्रमोशन लेने के बाद रिटायरमेंट की बेला में उन्हें अपनी असली जन्मतिथि पता चली। शायद कभी जन्मकुंडली बचवाने की जरुरत नहीं पड़ी होगी। विवाद तब भी उनके साथ थे। अब भी हैं। विवाद ही वो वजह हो सकते हैं जिनसे बीजेपी का दिल इन पर आया और फौजी नेता बन गया। जो मन में आए बोलो और बाद में पलट जाओ। नेतागिरी के लिए इससे बड़ा और कौन सा गुण चाहिए ! अतिरिक्त योग्यता अण्णा आंदोलन से मिल गयी। विशेष अहर्ता ये कि जनरल की सरकार जब फौजियों को वन रैंक वन पेंशन पर अड़ रही थी जनरल नींद में थे और उनकी बिटिया पूर्व सैनिकों के साथ धरने पर। यानी राजनीति के सारे गुण सिंह साहब की कुंडली में मौजूद हैं। फिर डर काहे का। बोलिए जो मर्जी हो। दोष दीजिए उस बिरादरी को जिसके दम पर हिंदी सम्मेलन की और खुद की ब्रांडिंग कर रहे हैं। सुर्खियों में बने रहना है... तो बने रहेंगे।

Tuesday, September 8, 2015

घुसपैठिया कौन...'शेरखान' या 'हम' ?

ये मारीशस या किसी अफ्रीकी देश से अपने पूर्वजों की जमीन की तलाश में आने वाले राजनेता का मामला नहीं है, जो पॉजीटिव न्यूज बने। ये तो उस शेरखान की अपनी जमीन की तलाश है...जिसके डीएनए में उसके पूर्वज लिख गए थे कि ये जमीन...ये टेरेटरी तुम्हारी है। लेकिन वही शेरखान...वही जंगल का राजा आज अपनी ही जमीन पर अतिक्रामक हो गया है। किसी गांव के अनपढ़ किसान की तरह जिसकी जमीन पटवारी ने किसी रसूखदार के नाम चढ़ा दी और वो अपनी ही पूर्वजों की माटी में अतिक्रमणकारी साबित कर दिया गया।
 जी हां, मध्यप्रदेश  की राजधानी भोपाल में आजकल यही हो रहा है। इस माटी की जिन विशेषताओं को देख कर 1956 में इसे राजधानी बनाने का निर्णय लिया गया था, पानी, जमीन और हरी भरी सुरम्य वादियां। शेरखान के पूर्वजों ने ही तो इसे संभाला था और आज वही यहां घुसपैठिया हो गया ! भारत का राष्ट्रीय पशु होने का गौरव भी आज उसके लिए ठीक वैसे ही बेमानी है...जैसे देश की सीमा पर शहीद हुए किसी सैनिक के परिवार के लिए वो गौरव बेमानी होते हैं, जो परिवार की गाड़ी न खीच सकें। तो साहब, भोपाल में राष्ट्रीय पशु बाघ के लिए जगह नहीं। राजधानी के आसपास के उन जंगलों में भी नहीं, जहां कभी उनका राज चलता था। कलियासोत बांध हो या केरवा या फिर कोलार बांध का एरिया। हर उस इलाके में इंसानों ने बस्ती बसा ली है...जहां कभी बाघ स्वच्छंद विचरण करता था।
खबरें आ रही हैं कि भोपाल के आसपास सात बाघ आ गए हैं। कभी ये कलियासोत डैम के पास मार्निंग और इवनिंग वॉक करने वालों को देखते हैं। तो कभी सरकार और साहबबहादुरों की कृपा से जंगल की सुरम्य भूमि में गुरुकुल की तर्ज पर बन गए कॉलेज और स्कूल के रास्ते में स्टूडेंट्स की आती-जाती गाड़ियो को देख सड़क छोड़ देते हैं। सुनहरी खाल पर काली पट्टियों वाले इस शानदार जानवर को अपनी जमीन पर आने वाले घुसपैठियों से भय ही तो है...जो वह इंसानों के लिए अदब से रास्ता छोड़ देता है। घंटों झाड़ियों में दुबक कर भूखा-प्यासा बैठा रहता है। इंतजार करता है कि दो पैर वाला ये खतरनाक जानवर चला जाए फिर वो अपना ठौर तलाशे। जगह बदले। लेकिन जाए तो जाए कहां। अपने ही विचरण स्थल में बेगाना हो गया है। आखिर ये जगह टूरिस्ट स्पॉट जो बन गयी है और वो अपनी ही जमीन में अवांछित।
शेर के लिए शेर होना ही काफी नहीं है। उसके लिए तो आगे कुआं और पीछे खाई वाली स्थिति है। जंगल में जहां वो पैदा हुआ..पला बढ़ा, वहीं पर उससे बलशाली शेर का कब्जा है। उसने ही तो धकिया कर इंसानों की बस्ती के करीब विरल जंगल की ओर धकेला है। सरकारी रिकार्ड में कभी यह जंगल ही था। छोटे झाड़ का या फिर बड़े झाड़ का।लेकिन अब पता नहीं कैसे कंक्रीट का जंगल हो गया है।शायद... किसी "राजा" को केरवा का यह जंगल भा गया और उन्होंने अपनी कोठी तान दी। कोठी भी ऐसी जिसमें शेर का निवाला बनने वाले हिरण मनोरंजन के लिए पाले गए थे...याद है ना, कैद में बेजार हुए एक कृष्ण मृग ने यहां तैनात एक संतरी के पेट में अपने ऐेसे सींग घोंप दिए थे कि मौके पर ही उसके प्राण पखेरू उड़ गए। वो हिरण तो शाकाहारी था....पता नहीं इंसानों की सोहबत में हिंसक कैसे हुआ। हिंसक हुआ तो इतना हिंसक कैसे हुआ कि....? इस कोठी की देखादेखी और भी रसूखदारों ने अपने बंगले और कोठियां तान दीं...बिर्री-बिर्री...छिछली-छिछली...इतनी दूर-दूर...मानो ये जंगल उनकी टेरेटरी हो।बीच-बीच में कुकुरमुत्तों की तरह और भी घर उग गए। शहर के शोरशराबे से दूर शांति से रिटायर्ड लाइफ जीने के लिए कई वो नौकरशाह भी आ बसे, जिन पर कभी जंगल और जंगली जानवरों की सुरक्षा का दायित्व था। जो कानून और सरकारी जमीन बचाते थे। इन्हें देख एक सवाल उठता है। पर इस सवाल का जवाब आज तक नहीं मिला कि जंगल और पहाड़ तो सरकारी संपत्ति हैं फिर इन पर निजी मालिकाना हक कैसे हो जाता है ? क्यों हरे भरे पहाड़ धीरे-धीरे कॉलोनी में तब्दील हो जाते हैं और क्यों सरकारी जंगल पर निजी बंगले बन जाते हैं? आखिर पटवारी के बस्ते में ऐसा कौन सा जादू है ! 
चलें फिर शेरखान की ओर... कभी इसी मध्यप्रदेश की धरती पर रूडयार्ड किपलिंग ने कालजयी किताब 'जंगल बुक' की रचना की थी।उनका हीरो "मोगली" हर कहानी में शेरखान यानी जंगल के राजा बाघ पर भारी पड़ता था। शेर आज भी मोगली की प्रजाति के इंसानों से हार रहा है। इंसानों की बदौलत ही मध्यप्रदेश का टाइगर स्टेट का दर्जा छिन गया। 2003 तक 712 टाइगर थे, जो घट कर अब 300 के आंकड़े पर डांवाडोल हो रहे हैं। दुनिया भर में 'सेव द टाइगर' का कैंपेन चल रहा है और टाइगर अपने को सेव करने के लिए नई जगह जाए तो अतिक्रमणकारी....घुसपैठिया हो जाता है। पन्ना नेशनल पार्क तो याद होगा ही। एक जमाने में 35 बाघ थे वहां और इंसानों ने एक को भी नहीं छोड़ा था। फिर ! उन्हें शर्म आई और कान्हा, बांधवगढ़ जैसे जंगलों से यहां बाघ भेजे गए। बाघ को क्या चाहिए ? घना जंगल, खुली हवा और पानी। शिकार तो अपने आप आ जाते हैं, सो पन्ना में टाइगर रि-लोकेशन के नाम पर लोग पुरस्कृत हो रहे हैं। उनका सिर गर्व से तन रहा है...लेकिन जब वही टाइगर भोपाल के आसपास अपने पुरखों की जमीन पर अपनी टेरेटरी बनाता है तो उनकी भवें तन जाती हैं। इंसान की जात को भी कोई समझ पाया है, जो बाघ समझे ! व्यथा समझें...बाघ की। उस पर नहीं तो कम से कम राष्ट्रीय गौरव पर तो रहम खाएं...।

Sunday, September 6, 2015

हिंदी....मन की या बेमन की


दसवां विश्व हिंदी सम्मेलन अब इतने करीब आ गया है कि दिन गिनने के लिए उंगलियों की भी जरूरत नहीं है...करोड़ों रूपए खर्च कर हो रहे इस  महा आयोजन के जरिए महिमामंडित होने के सिवा इस सम्मेलन से और क्या हासिल होगा ? महिमामंडित कौन होंगे ? आयोजक....आयोजन कराने वाले...या फिर इसका श्रेय लेने वाले...!
जवाब तलाशना बेमानी है....चर्चा है कि मध्यप्रदेश के विदिशा संसदीय क्षेत्र से लोकसभा सदस्य विदेश मंत्री सुषमा स्वराज दक्षिण भाषी महानगर हैदराबाद में होने वाले इस आयोजन को भोपाल खींच लाईं। वजह ! उनके निर्वाचन क्षेत्र विदिशा का भोपाल से सटा होना है। यदि विदिशा में इतनी तादाद में आ रहे विदेशी और देशी मेहमानों के आवागमन और रात्रि विश्राम का बंदोबस्त होता तो यकीनन यह महासम्मेलन सम्राट अशोक की ससुराल भेलसा यानी विदिशा में ही हो रहा होता। मजबूरी या मुसीबत में पड़ोसी ही काम आता है सो भोपाल ने यह भार उठा लिया। मन से या बेमन से! आखिर मामला मध्यप्रदेश से ताल्लुक रख रहीं नेता की पसंद का था इसीलिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी तमाम संसाधन झोंक दिए दसवें विश्व हिंदी सम्मेलन को यादगार बनाने में।
यह सम्मेलन यादगार भी सिर्फ इसी मायने में है। क्योंकि मध्यप्रदेश की सरकारी और भारतीय जनता पार्टी की इवेंट मैनेजमेंट टीम (जी हां, यह शब्द भी प्रदेश की हिंदी में शामिल हो चुका है...आयोजनकर्ताओं के लिए)  को बड़े आयोजन सुरूचिपूर्ण ढंग से संपादित करने का तगड़ा अनुभव जो प्राप्त हो चुका है, बीते दस-बारह सालों में। खैर बात हिंदी की...इस आयोजन का उद्घाटन करने 10 सितंबर को भोपाल आ रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सम्मेलन से महज पांच दिन पहले बौद्ध गया में अंग्रेजी में गर्वीला भाषण दिया। ये वही मोदी हैं जिन्होंने विदेशी धरती पर जाकर संयुक्त राष्ट्र महासभा में हिंदी में भाषण देकर वाहवाही लूटी थी। आयोजन समिति की अध्यक्ष सुषमा स्वराज को भी हिंदी के अलावा अंग्रेजी में भाषण देने में आपत्ति नहीं होती। वित्त मंत्री अरूण जेटली को तो हिंदी की तुलना में अंग्रेजी ज्यादा अनुकूलता देती है। बात मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की...उन्हें हिंदी रास आती है...पर, उनके अफसर अंग्रेजी को ज्यादा महत्व देते हैं। यही वजह है कि हिंदी सम्मेलन से पहले भी ठीक उसी प्रकार के "हिंदी सेवा" के निर्देश जारी किये गये जैसे हर साल 'हिंदी पखवाड़ा' से पहले होते हैं। वेबसाइट को हिंदी में भी बनाएं। दुकान के बोर्ड और सड़क संकेतक को हिंदी में भी लिखें आदि इत्यादि....। पर क्या इतने से ही हिंदी सेवा हो जायेगी।
हिंदी को अपनाना है तो दिल से अपनाएं।सच्चे मन से। दिखावे के लिए नहीं। आज हिंदी सम्मेलन के लिए जो संकेतक अंग्रेजी और हिंगलिश से बदल कर हिंदी में लगाये गए हैं। सम्मलेन खत्म होने के बाद उनके बरकरार रहने की चिंता करें। वर्ना सितम्बर खत्म होते होते हिंदी प्रेम भी मानसून की तरह लुप्त हो जाएगा। सारे बोर्ड फिर इंग्लिश में नजर आएंगे। सरकारी फाइलों की तरह, जिनकी भाषा कोई नहीं बदल पाया। अंग्रेजों ने हिंदी बोलने वालों पर राज करने के लिए सिविल सर्वेन्ट्स की फौज खड़ी की थी जो आज भी गुलामी की भाषा को अपना गौरव समझती है। अफसर पुत्र कान्वेंट में शिक्षित होता है और नेता पुत्र भी। इनके लिए अमल की भाषा अलग और वोटबैंक को हांकने की भाषा अलग होती है। जब इतना भेदभाव...इतना परहेज...तो कल्पना कीजिए भला किसका होगा। चीन, जापान से लेकर रूस तक तो दकियानूसी देश हैं जहां के डॉक्टर, इंजीनियर और अफसर उनकी अपनी भाषा में बनते हैं। भारत में तो इम्पोर्टेड लेंग्वेज के बिना कोई डॉक्टर नहीं बन सकता। देशी भाषा पढ़ कर यहां वैद्य, ओझा, हकीम ही तैयार हो सकता है। कोई वैज्ञानिक और विशेषज्ञ नहीं...भले ही ये धरती धनवंतरि और आर्यभट्ट की हो।

सरकारी राष्ट्रभाषा विभाग में उन लोगों को जगह मिलती है जो अपनी बोली और भाषा के साथ हिंदी बोलना, लिखना और पढ़ना सीख गए। ये वही लोग हैं जिन्हें सालाना हिंदी पखवाड़े के दौरान नवाजा जाता है क्योंकि वो हिंदी जानते हैं। मतलब! हिंदी आत्मसात करने की नहीं बल्कि प्रदर्शन की चीज है...विषय वस्तु है। आत्मसात करने की सरकारी और उच्चवर्गीय भाषा तो इंग्लिश ही है। सुना है ठेठ हिंदी भाषी क्षेत्र से चुने जाने वाले देश के एक सर्वोच्च नेता के घर दिन भर इंग्लिश बोलने की अनुमति थी। बस रात्रि के भोजन के समय हिंदी में बात करना अनिवार्य था।खैर ये आयोजन मध्यप्रदेश के जिम्मे आया है तो शानदार आवभगत की जाए अतिथियों की। तीन दिन ही सही हिंदी में बोलने का अभ्यास तो कर ही लें। बाद में तो बनारसी पान भंडार और अंग्रेजी शराब दुकान ही हिंदी में रह जाएगा, क्योंकि इनके ज्यादातर ग्राहक हिंदीभाषी हैं, सम्मेलन में आने वाले गणमान्य विद्वानों की तरह हिंदी सेवी नहीं। जो आम बोलचाल में भी बरतानिया की गुलामी करते हैं। विदेशी भाषा ही उनका मान है। सम्मान है। देशी तो सिर्फ चमड़ी है उनकी। उनके लिए ही तात्या टोपे नगर टीटी नगर हो गया और महाराणा प्रताप नगर एमपी नगर। इन शहीदों को यदि भान होता कि जिनके लिए उन्होंने अपना जीवन न्यौछावर किया वे उनका नाम भी नहीं संभाल सके ...वो इंडियन, हिंदी और  हिंद को क्या संभालेंगे। देव भाषा संस्कृत की भांति विलुप्तता में ही देवनागरी लिपि वाली हिंदी का सम्मान है तो यही सही। चलो इसी बहाने ही गाहे बगाहे हिंदी बोली जाती रहेगी। इसी बहाने लोग कभी कभार कहते रहेंगे हिंदी है हम....!
        

अशोक, तुम्हारे हत्यारे हम हैं...

अशोक से खरीदा गया वो आखिरी पेन आज हाथ में है, लेकिन उससे कुछ लिखने का मन नहीं है। अशोक... जिसे कोई शोक न हो। यही सोच कर नामकरण किया होगा उसक...