Thursday, December 3, 2015

कुंभ : आस्था की ब्रांडिंग...

कुंभ, महाकुंभ और सिंहस्थ....भारत का प्राचीन और सबसे बड़ा धार्मिक आयोजन। आस्था का एक ऐसा महापर्व जो अनूठा है। सनातन धर्मावलंबियों का यह महापर्व वैदिक काल से देश के चार स्थानों पर होता रहा है। कुंभ कितना पुराना है इसकी गणना करना भी संभव नहीं। काल गणना के आधार पर होने वाले इन आयोजनों में श्रद्धालु स्वत: जुड़ते हैं। वैदिक काल से लेकर आज तक कभी कुंभ की मुकुटमणि माने जाने वाले नागा साधुओं को इसके लिए आमंत्रित करने की आवश्यकता नहीं पड़ी। आमतौर पर आबादी से दूर एकांतवास करने वाले नागाओं का हुजूम कुंभ में अपने आप प्रकट हो जाता है...जैसे ईश्वरीय शक्तियां उनका पथप्रदर्शन करती हों।  कहां कुंभ हो रहा है और कब शाही स्नान का पुण्य लाभ मिलना है, जंगलों में... कंदराओं में रहने वाले नागाओं को जैसे कोई अदृश्य ताकत बताती है और वे खिंचे चले आते हैं।
कुंभ का ऐसा क्या महत्व है? ऐसी क्या तासीर और ताकत है इस आयोजन की जो सब खिंचे चले आते हैं। कोई शहर अचानक कुंभ के दिनों में कैसे मानव महाप्रलय का नजारा पेश करने लगता है। कैसे सबको ईश्वरीय कृपा प्राप्त हो जाती है! कुंभ आखिर ऐसा कुंभ क्यों है? प्रयाग, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन के चारों कुंभ का लाभ लेने और दो बार प्रयाग कुंभ में शाही स्नान करने के बाद अब मन फिर उज्जैन सिंहस्थ का इंतजार कर रहा है। लेकिन कुंभ से जुड़ा यह सवाल और जिज्ञासा कम होने के बजाए और बढ़ती जा रही है। हाल ही में नासिक में सिंहस्थ कुंभ संपन्न हुआ और अब महाकाल की नगरी में उज्जैन में अप्रैल में होने वाले सिंहस्थ की तैयारियां हैं। मध्यप्रदेश सरकार इस आयोजन के लिए पिछले कई सालों से तैयारी कर रही है। लगभग 3000 करोड़ रूपए खर्च कर सड़क, घाट, पुल, पुलिया, आशियाने बनाए जा रहे हैं। मंदिरों को सजाया संवारा जा रहा है। सरकार ने और 500 करोड़ रूपए का प्रबंध सिंहस्थ आयोजन के लिए कर लिया है। निर्माण कार्य और जीर्णोद्धार के साथ ही सिंहस्थ की ब्रांडिंग भी की जा रही है। पर्यटन विभाग को इसमें पर्यटन की संभावनाएं दिख रही हैं। सवाल इसी ब्रांडिंग पर है। एक ऐसा आयोजन जिसमें साधु, सन्यासी ही नहीं श्रद्धालु भी बिना किसी निमंत्रण के पहुंचते हैं उसके लिए इतना प्रचार प्रसार...! प्रचार इसलिए क्योंकि सरकार लाखों करोड़ों लोगों के जमावड़े के प्रबंधन की अपनी विशेषज्ञता का डंका पीटना चाहती है। क्योंकि वो इसके जरिए पर्यटन के नए डेस्टिनेशन खोलना चाहती है। क्योंकि सरकार धार्मिक पर्यटन में हिस्सेदारी चाहती है। देशी ही नहीं विदेशी पर्यटकों को मध्यप्रदेश से जोड़ना चाहती है। कुंभ के साथ सरकारी पर्यटन का ये एंगल हर जगह जुड़ गया है। हरिद्वार हो या नासिक प्रयाग हो या उज्जैन हर बार प्रचार के नए तरीके अख्तियार किए जाते हैं। क्रिकेट के मैदान से हवा में उड़ते विमान तक ब्रांडिंग हो रही है सिंहस्थ की। इसमें कुछ गैरवाजिब भी नहीं। जब परचूनियां से लेकर होटल और धर्मशाला तक कमाई के लिए कुंभ का इंतजार होता है तो सरकार कैसे पीछे रह सकती है। तो तैयार हो जाइए सिंहस्थ में डुबकी लगा कर पुण्य लाभ लेने के लिए। उज्जैन तैयार हो रहा है। कमाने वाले भी और सरकार भी तैयार है। बस चिंता उनकी कीजिए जिन्हें इस आयोजन में भी खुद की ब्रांडिंग का कोई अवसर मिलता दिख रहा हो। जो ऐसे मौकों की तलाश में ही रहते हैं। जिनके कारण सहिष्णुता और असिहष्णुता को लेकर बहस छिड़ जाती है। उन्हें इससे दूर ही रखा जाए तो बेहतर है।
        
जानिए कुंभ को.. 👇


वैदिक जीवन पद्धति कुंभ जैसे आयोजनों का आदर्श रही है। देश को सांस्कृतिक एकसूत्रता में बांधने के लिए चारों कोनों में पीठों की स्थापना करने वाले आदिशंकराचार्य भी वैदिक जीवन के ही प्रचारक थे, इसलिए यह जानना दिलचस्प होगा कि कुंभ जैसे आयोजनों के बारें में वेदों में क्या कहा गया है। वैदिक स्थापनाओं से यह तो स्पष्ट है कि ऐसे आयोजन तब भी होते थे और बाद में आदिशंकराचार्य ने फिर से इस परम्परा को आगे बढ़ाया। वैदिक संस्कृति में जहां व्यक्ति की साधना, आराधना और जीवन पद्धति को परिष्कृत करने पर जोर दिया है, वहीं पवित्र तीर्थस्थलों और उनमें घटित होने वाले पर्वों व महापर्वों के प्रति आदर, श्रद्धा और भक्ति का पावन भाव प्रतिष्ठित करना भी प्रमुख रहा है। विश्व प्रसिद्ध सिंहस्थ महाकुंभ एक धार्मिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महापर्व है, जहां आकर व्यक्ति को आत्मशुद्धि और आत्मकल्याण की अनुभूति होती है। सिंहस्थ महाकुंभ महापर्व पर देश और विदेश के भी साधु-महात्माओं, सिद्ध-साधकों और संतों का आगमन होता है। इनके सानिध्य में आकर लोग अपने लौकिक जीवन की समस्याओं का समाधान खोजते हैं। इसके साथ ही अपने जीवन को ऊध्र्वगामी बनाकर मुक्ति की कामना भी करता है। मुक्ति को अर्थ ही बंनधमुक्त होना है और मोह का समाप्त होना ही बंधनमुक्त होना अर्थात् मोक्ष प्राप्त करना है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के चार पुरुषार्थों में मोक्ष ही अंतिम मंजिल है। ऐसे महापर्वों में ऋषिमुनि अपनी साधना छोड़कर जनकल्याण के लिए एकत्रित होते हैं। वे अपने अनुभव और अनुसंधान से प्राप्त परिणामों से जिज्ञासाओं को सहज ही लाभान्वित कर देते हैं। इस सारी पृष्ठभूमि का आशय यह है कि कुंभ-सिंहस्थ महाकुंभ जैसे आयोजन चाहे स्वरस्फूर्त ही हों, लेकिन वह उच्च आध्यात्मिक चिन्तन का परिणाम है और उसका सुविचारित ध्येय भी है। ऋग्वेद में कहा गया है -
जधानवृतं स्वधितिर्वनेव स्वरोज पुरो अरदन्न सिन्धून्।
विभेद गिरी नव वभिन्न कुम्भभा गा इन्द्रो अकृणुत स्वयुग्भिः।।
कुंभ पर्व में जाने वाला मनुष्य स्वयं दान-होमादि सत्कर्मों के फलस्वरूप अपने पापों को वैसे ही नष्ट करता है जैसे कुठार वन को काट देता है। जैसे गंगा अपने तटों को काटती हुई प्रवाहित होती है, उसी प्रकार कुंभ पर्व मनुष्य के पूर्व संचित कर्मों से प्राप्त शारीरिक पापों को नष्ट करता है और नूतन (कच्चे) घड़े की तरह बादल को नष्ट-भ्रष्ट कर संसार में सुवृष्टि प्रदान करता है।
कुम्भी वेद्या मा व्यधिष्ठा यज्ञायुधैराज्येनातिषित्का। (ऋग्वेद)
अर्थात्, हे कुम्भ-पर्व तुम यज्ञीय वेदी में यज्ञीय आयुधों से घृत द्वारा तृप्त होने के कारण कष्टानुभव मत करो।
युवं नदा स्तुवते पज्रियाय कक्षीवते अरदतं पुरंधिम्।
करोतराच्छफादश्वस्य वृष्णः शतं कुम्भां असिंचतसुरायाः।। (ऋग्वेद)
कुम्भो वनिष्ठुर्जनिता शचीभिर्यस्मिन्नग्रे योग्यांगमर्भो अन्तः।
प्लाशिव्र्यक्तः शतधारउत्सो दुहे न कुम्भी स्वधं पितृभ्यः।। (शुक्ल यजुर्वेद)
कुम्भ-पर्व सत्कर्म के द्वारा मनुष्य को इस लोक में शारीरिक सुख देने वाला और जन्मान्तरों में उत्कृष्ट सुखों को देने वाला है।
आविशन्कलशूं सुतो विश्वा अर्षन्नाभिश्रिचः इन्दूरिन्द्रायधीयतो। (सामवेद)
पूर्ण कुम्भोडधि काल आहितस्तं वै पश्चामो बहुधानु सन्तः।
स इमा विश्वा भुवनानिप्रत्यकालं तमाहूः परमे व्योमन। (अथर्ववेद)
हे सन्तगण! पूर्णकुम्भ बारह वर्ष के बाद आया करता है, जिसे हम अनेक बार प्रयागादि तीर्थों में देखा करते हैं। कुम्भ उस समय को कहते हैं जो महान् आकाश में ग्रह-राशि आदि के योग से होता है।
चतुरः कुम्भांश्चतुर्धा ददामि। (अथर्ववेद)
ब्रह्मा कहते हैं-हे मनुष्यों! मैं तुम्हें ऐहिक तथा आयुष्मिक सुखों को देने वाले चार कुम्भ पर्वों का निर्माण कर चार स्थानों हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में प्रदान करता हूं।
कुम्भीका दूषीकाः पीचकान्। (अथर्ववेद)
वस्तुतः वेदों में वर्णित महाकुम्भ की यह सनातनता ही हमारी संस्कृति से जुड़ा अमृत महापर्व है जो आकाश में ग्रह-राशि आदि के संयोग से ……………………….. की अवधि में उज्जैन में शिप्रा के किनारे मनाया जा रहा है।
माधवे धवले पक्षे सिंह जीवत्वेजे खौ।
तुलाराशि निशानाथे स्वातिभे पूर्णिमा तिथौ।
व्यतीपाते तु सम्प्राप्ते चन्द्रवासर-संचुते।
कुशस्थली-महाक्षेत्रे स्नाने मोक्षमवाच्युयात्।
अर्थात् जब वैशाख मास हो, शुक्ल पक्ष हो और बृहस्पति सिंह राशि पर, सूर्य मेष राशि पर तथा चन्द्रमा तुला राशि पर हो, साथ ही स्वाति नक्षत्र, पूर्णिमा तिथि व्यतीपात योग और सोमवार का दिन हो तो उज्जैन में शिप्रा स्नान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। विष्णु पुराण में कुम्भ के महात्म्य के संबंध में लिखा है कि कार्तिक मास के एक सहस्र स्नानों का, माघ के सौ स्नानों का अथवा वैशाख मास के एक करोड़ नर्मदा स्नानों का जो फल प्राप्त होता है, वही फल कुम्भ पर्व के एक स्नान से प्राप्त हो जाता है। इसी प्रकार एक सहस्र अश्वमेघ यज्ञों का फल या सौ वाजपेय यज्ञोें का फल अथवा सम्पूर्ण पृथ्वी की एक लाख परिक्रमाएं करने का जो फल होता है, वही फल कुम्भ के केवल एक स्नान का होता है।

Tuesday, December 1, 2015

चुनावी पंडित क्यों फेल, सट्टा बाजार पास क्यों...?


रतलाम चुनाव में सट्टा बाजार कांग्रेस को 30 पैसे का भाव दे रहा था तो बीजेपी को एक रूपया 20 पैसे। परिणाम आया तो सट्टा बाजार राजनीतिक पंडितों पर भारी पड़ा। यह पहली बार नहीं है कि सटोरियों का अनुमान सही बैठा हो। यह तो बार-बार की बात है।
सूचना क्रांति के इस युग में जब हर हाथ में स्मार्ट फोन और फोन में इंटरनेट पहुंच चुका है। जब चुनाव मैदान के साथ साथ वॉर रूम में लड़े जाते हैं और हर तबके, हर कुनबे के वोट का हिसाब रखा जाता है...तब कैसे चुनावी आंकलन की कोई वैज्ञानिक पद्धति नहीं जानने के बावजूद सटोरिये सही बैठते हैं। उन्होंने न तो चुनाव प्रबंधन सीखा है और न ही एक्जिट पोल या प्री पोल का कोई सिस्टम उनके पास है। फिर कैसे कोई सातवीं पास या मामूली ग्रेजुएट किसी पार्टी का भाव तय कर लेता है। भाव का अनुमान भी ऐसा कि बिल्कुल सटीक बैठे। यह कोई क्रिकेट का खेल नहीं है कि किसी सितारा खिलाड़ी के पांचवी गेंद पर आउट होने का भाव लगाने के लिए उसे पहले से खरीद लिया जाए। या फिर कैच छोड़ने का एडवांस में सेटलमेंट कर लिया गया हो। न जी न ये इलेक्शन का खेल सटोरिये तो कभी नहीं खरीद सकते....हाल-फिलहाल तो इसकी उम्मीद नहीं है, पर दांव यहां भी सटोरियों का ही भारी पड़ता है। आखिर क्यों?
मध्यप्रदेश में 12 साल पहले लगातार दो बार मुख्यमंत्री रहने वाले दिग्विजय सिंह उन दिनों गर्वोक्ति भरते थे कि चुनाव प्रबंधन से जीते जाते हैं। एक बार उन्होंने ऐसा कर भी दिखाया होगा, लेकिन इस बात पर उनकी आलाेचना करने वाली बीजेपी ने इलेक्शन मैनेजमेंट का अपना ऐसा तंत्र खड़ा किया कि वह लगातार तीसरी बार मध्यप्रदेश में सरकार ही नहीं चला रही। इलेक्शन स्पेशलिस्ट बन गई है। उपचुनाव जीतना हो या नगर निगम चुनाव बीजेपी का प्रबंधन हर बार सफल होता दिखता रहा है। रतलाम-झाबुआ के उपचुनाव में बीजेपी का प्रबंधन फेल हो गया। प्रबंधन फेल और पास होता रहे अपनी बला से। हमें तो चौंकाया है सट्टा बाजार ने। आखिर उसके पास ऐसा कौन सा मैकेनिज्म है जो सही अनुमान लगा लेता है! क्या तरीका है! क्या सट्टा खेलने वाले और खिलाने वाले भी पोलिंग बूथ पर या बस्तियों में जाकर मतदाताओं का मानस टटोलते हैं! नहीं ना...! फिर वो कैसे सटीक परिणान आंक लेते हैं और चुनावी पंडित लाखों करोड़ों रूपए लेने के बाद भी रिजल्ट आने तक संशय में रहते हैं। नाकाम भी होते हैं। आखिर कौन सी तकनीक है सट्टेवालों की? बीकानेर में बादल बरसे तो नाली बहेगी या नहीं....? इसी पर करोड़ों रुपए का सट्टा लग जाता है। क्रिकेट का सट्टा तो वर्ल्ड फेमस है। भारत में हर किसी "हट के" चीज पर शर्त या सट्टा खेला जा सकता है। ये जितना सच है उतना ही सच यह भी है कि सट्टेबाज - खाईवाल कभी घाटे का दांव नहीं लगाते। चुनावी परिणाम के मामले में उनका आकलन बाजार करने आने वाले लोग होते हैं। चाय पान की गुमटी पर खड़े लोग उन्हें चुनावी नब्ज बताते हैं। और परिणाम 100% सही आता है।
इसके उलट राजनीतिक दल जिन एजेंसियों की मदद लेती हैं वो वैज्ञानिक ढंग से सर्वेक्षण करती हैं। लोगों से प्रश्नावली भरवाती हैं। गणित के फार्मूले लगा कर अपना आकलन बिठाती हैं। और कभी पास तो कभी चारों खाने चित्त होती रहती हैं। तो क्यों नही राजनीतिक दल भी चुनावी विश्लेषकों और सर्वे करने वालों की जगह सटोरियों की मदद लेते। क्यों बेकार में मोटी रकम बर्बाद करते हैं। सीधे सीधे सट्टा बाजार के भाव देख लें अनावश्यक खर्चा बच जाएगा। या फिर सट्टा बाजार में ही कोई अनुसंधान कर लें। उसकी मदद से चुनावी ऊंट अपनी करवट बिठाने का प्रबंध कर ले। रतलाम का परिणाम तो यही इशारा कर रहा है। क्या विकल्प अपनाना है ये चुनाव लड़ने और लड़ाने वालों को सोचना है! लेकिन एक बात तो तय है कि आम आदमी की नब्ज नेता, सर्वेक्षण वालों से बेहतर वो समझते हैं जो किसी पर 30 पैसे का भाव लगाते है तो किसी दूसरे का 1 रुपया 20 पैसा। 

Monday, November 30, 2015

यूंही दिग्विजयी नहीं हुए शिवराज...

‘पांव में चक्कर...मुंह में शक्कर...माथे पर बर्फ...और सीने में आग’। ये शिवराज सिंह चौहान के पसंदीदा डायलॉग में से एक है। पार्टी का कोई कार्यक्रम हो या फिर जनता के बीच भाषण शिवराज लोगों को ये नसीहत देना नहीं भूलते। शायद उनकी सफलता का राज भी यही है। इसी ‘पांव में चक्कर...मुंह में शक्कर’ ने उन्हें 60 साल पूरे कर रहे मध्यप्रदेश का पहला ऐसा मुख्यमंत्री बना दिया है, जो दस साल का कार्यकाल पूरा करने के बाद भी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान है।

शिवराज ने वो इतिहास रच दिया। जिसकी चाह हर मुख्यमंत्री को होती है, लेकिन अवसर किसी बिरले को ही मिलता है। शिवराज मध्यप्रदेश के 17 वें मुख्यमंत्री हैं...कार्यकाल के लिहाज से गिनें तो 30 वें। दस साल तक मुख्यमंत्री निवास में रहने वाले के तौर पर देखें तो दूसरे और दस साल का कार्यकाल पूरा करने के बाद भी मुख्यमंत्री होने के नाते पहले और अब तक के एकमात्र। उनसे पहले कांग्रेस के दिग्विजय सिंह ने लगातार दो कार्यकाल तक मुख्यमंत्री रहते हुए दस साल पूरे किए थे, लेकिन कांग्रेस पार्टी के चुनाव हारने के कारण दिग्विजय सिंह केवल दस साल वाले मुख्यमंत्री बन कर रह गए और 29 नवंबर 2005 को शपथ लेने वाले शिवराज ने मुख्यमंत्री के तौर पर दिग्विजयी पताका फहरा दी। ये तो रही तथ्य और आंकड़ों की जुबान। सवाल ये है कि शिवराज में ऐसा क्या है? जो उनसे पहले के मुख्यमंत्रियों में नहीं था! क्या समीकरण और कारण हैं जिन्होंने शिवराज को प्रदेश के मुख्यमंत्रियों में सिकंदर बना दिया।
मुकद्दर के सिकंदर तो शिवराज शुरूआत से ही हैं। सरस्वती की कृपा की बात वे करते हैं। उन पर सरस्वती ने इतनी कृपा की है कि शुरूआती अभावों के बावजूद उन्होंने दर्शनशास्त्र में स्नातकोत्तर की डिग्री ली, वह भी गोल्ड मेडल के साथ। जिव्हा में सरस्वती का ऐसा वास है कि दस साल से शिवराज का भाषण सुनने के बाद भी प्रदेश की जनता में ऊब नहीं हुई। आरएसएस, जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी की रीढ़ रहे नेताओं के सानिध्य में राजनीति का ककहरा सीखते-सीखते शिवराज ने कब राजनीति का गोल्ड मेडल भी अपने नाम कर लिया उनके संगी-साथियों को भी इसका भान नहीं हुआ। बुधनी से पहली बार चुनाव लड़ने के चंद महीनों बाद विदिशा में अटलबिहारी वाजपेयी द्वारा खाली की गई लोकसभा सीट के उपचुनाव से संसद तक का उनके सफर को गंभीरता से नहीं लेने वाले नेताओं ने शिवराज के मुख्यमंत्री बनने के बाद जरूर इस 'बायचांस' हुए बदलाव को गंभीरता से लिया होगा। शिवराज की मुख्यमंत्री के तौर पर ताजपोशी से ठीक एक दिन पहले प्रदेश भाजपा कार्यालय दीनदयाल परिसर में विधायक दल नेता के चुनाव के मौके पर अनुशासित बीजेपी के कार्यकर्ताओं के विरोध और शक्ति प्रदर्शन ने साबित कर दिया था कि शिवराज कोई पैराशूट सीएम नहीं हैं। मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद उनके पहले विदिशा प्रवास में उमड़े जनसैलाब और उसके बाद जनता के बीच जाने के उनके सतत कार्यक्रम ने शिवराज को वो नेता बना दिया कि भोपाल के अन्नानगर झुग्गी बस्ती की आंगनवाड़ी की अबोध बिटिया से लेकर दूरदराज के मंडला, अलीराजपुर या फिर बुंदेलखंड के किसी गांव के बच्चों तक शिवराज की पैठ हो गई। मुख्यमंत्री बनने के पहले तक पांव-पांव वाले भैया के नाम से विदिशा और सीहोर में मशहूर रहे शिवराज की अब पहचान बदल गई है। वे महिलाओं के भाई हैं तो प्रदेश भर के बच्चों के मामा। इन दस सालों में रिश्तों की ऐसी जबरदस्त कशीदाकारी शिवराज ने की है कि उनकी पैठ अनपढ़ किसानों से लेकर गांव के चूल्हे-चौके तक हो गई है। सोशल इंजीनियरिंग के इस नायाब खेल में शिवराज ने सरकार की प्राथमिकताएं ही बदल डालीं। उनसे पहले सड़क, बिजली, पानी और शिक्षा के विकास को आम आदमी की सेवा माना जाता था। प्रदेशवासियों की भलाई की इस स्कीम में शिवराज ने लोगों को सीधे और नकद लाभ पहुंचाने की चाशनी डाली और विकास की वो मिठाई तैयार की है, जिसकी काट फिलवक्त तक किसी के पास नहीं दिखती।
अपने इस हुनर के दम पर ही शिवराज उस भारतीय जनता पार्टी के लिए अपरिहार्य बन गए हैं, जिसने 2003 में सरकार बनने के दो साल के भीतर तीन मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश को दिए। प्रदेश में भाजपा और उसकी पूर्वज सरकारों का इतिहास भी यही रहा है। इमरजेंसी के बाद जब सरकार बनी तो तीन साल में तीन मुख्यमंत्री बनाने पड़े थे। 1990 में बनी सुंदरलाल पटवा सरकार भी ढाई साल में चलती बनी थी। पटवा शिवराज के सियासी गुरू हैं और गुरू की गलतियों से सबक लेकर शिवराज ने अपनी अलग सोशल इंजीनियरिंग चलाई। वे कन्यादान योजना लाए। लाडली लक्ष्मी योजना लाए। विभिन्न वर्ग की पंचायतों के जरिए सीएम हाउस के दरवाजे आम लोगों के लिए खोले गए। इन सबसे ऊपर उन्होंने‘पांव में चक्कर’ रखा गांव-खेड़े के गरीब-गुरबों के बीच पहुंचे और ‘मुंह में शक्कर’ घोली। पार्टी के बड़े नेता हों या हमउम्र सबके साथ भी शिवराज ठीक वैसे ही पेश आते रहे जैसा व्यवहार रखने की वे कार्यकर्ताओं को सीख देते हैं। नतीजा..! मध्यप्रदेश भाजपा में आज शिवराज की कोई काट नहीं है। उनका कोई विरोधी नहीं। कम से कम खुलेआम विरोध करने वाला तो कोई भी नहीं है। सबको सम्मान देने और खुश करने के अपने हुनर से उन्होंने उन नेताओं को भी जीत लिया जो कभी शिवराज को नापसंद करते रहे थे। 'मुंह में शक्कर' और 'माथे पर बर्फ' के कारण आज पार्टी के भीतर या बाहर उनकी कद काठी का कोई नेता नहीं है, जो उन्हें टक्कर दे सके।  
शिवराज सिंह चौहान को यह स्वीकारने में कोई हर्ज नहीं होता कि जब वे मुख्यमंत्री बने थे तब उनका प्रशासनिक अनुभव शून्य था। उन्होंने लगातार मंत्रालय में बैठ कर प्रशासनिक बारीकियां सीखने के बजाए खुद को जननेता बनाना बेहतर समझा। प्रशासनिक कामकाज उन्हें अभी भी रास आता नहीं दिखता। वे जब मीटिंग लेते हैं तो चुनाव प्रचार की तर्ज पर धुआंधार बैठकों की झड़ी लगा देते हैं। नहीं तो मेल मुलाकात फाइलों पर भारी पड़ जाती है। शायद सीएम सचिवालय में आला अफसरों की फौज की मुख्य वजह भी यही है। दस साल पुराने मुख्यमंत्री शिवराज का मिजाज अफसरों पर रूआब गांठने वाला कभी नहीं रहा और न ही यह कला वो सीख पाए। आज भी शिवराज जब अफसरों को हड़काते दिखते हैं तो असामान्य लगते हैं। लेकिन, वही शिवराज किसान, महिलाओं या फिर आम लोगों के बीच होते हैं तो उनके सच्चे हितचिंतक दिखते हैं। उनके बीच के ही नजर आते हैं। कोई बनावट और बुनावट नहीं दिखती। शिवराज की यूएसपी भी यही है।
चुनाव लड़ते शिवराज को देखने का भी अपना अलग अनुभव है। 2005 में मुख्यमंत्री बनने के बाद जब वो उसी बुधनी से उपचुनाव लड़ रहे थे, जो उनका घर है और जहां से 1990 में वे पहली बार विधायक चुने गए थे, तब उनकी घबराहट देखने लायक थी। मुख्यमंत्री का गांव-गांव जाकर वोट मांगना....लोगों से ध्यान रखने की बात कहना...दिन-रात मेहनत करना...अजीब लगता था। वोट मांगने का ये क्रम इन दस सालों में चलता ही रहा है। 2008 की जनआशीर्वाद यात्रा और 2013 के चुनावी रथ में शिवराज की रिपोर्टिंग करने के दौरान तक शिवराज का जननायक विशाल हो चुका था। रथ में सवार शिवराज बाहर से मामा की आवाज आने पर गाड़ी रूकवा कर बातें करने से खुद को रोक नहीं पाते थे। रथ की खिड़की से हाथ निकाल कर लोगों के हाथ मिलाने का कष्ट झेलना भी केवल उनके बस की बात है। गांव वालों के रूखे नाखूनों से पड़ती खरोंच और उनसे छलक आई खून की बूंदों के बावजूद शिवराज का हाथ रूका नहीं....हर उस शख्स तक पहुंचा जो उनसे हाथ मिलाना चाहता था या फिर छूकर देखना चाहता था। शुजालपुर के बाजार में अल्पसंख्यकों की पुष्पवर्षा देख कर शिवराज ने सवाल किया था -'अब बताओ कौन रोक पाएगा इस रथ को?' उनका यह आत्मविश्वास सच साबित हुआ और तीसरी बार शिवराज मुख्यमंत्री बने। इसके साथ ही प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के पर्याय भी वही हो गए। अब तो पंचायत के चुनाव तक में शिवराज की डिमांड होती है। रतलाम-झाबुआ के उपचुनाव में भी शिवराज के इसी जादू के दम पर भाजपा ने किला लड़ाया था, लेकिन देवास विधानसभा के उपचुनाव को जीतने वाली भाजपा रतलाम हार गई तो क्या शिवराज के चुनावी मायाजाल की मियाद पूरी हो गई है! क्या 'माथे पर बर्फ' और 'सीने में आग' वाले शिवराज के पांव का चक्कर थम गया? जवाब किसी के पास नहीं है। होगा भी कैसे, शिवराज का जादू...शिवराज के तिलिस्म का तोड़ हर किसी के बस की बात भी नहीं है।
मसला शिवराज के दस साल का है। मील का यह पत्थर गाड़ने के लिए उन्होंने खासी मेहनत की है। यह शिवराज की खूबी है कि वो विपरीत परिस्थितियों को भी अपने पक्ष में करने की काबिलियत रखते हैं। डंपर कांड हो या व्यापमं घोटाला। ऐसे मामले किसी भी नेता के राजनीतिक कैरियर पर विराम लगाने के लिए पर्याप्त होते। लेकिन ये शिवराज की खासियत है कि डंपर संबंधी आरोपों के दाग को जनता के बीच जाकर धोने में कामयाब रहे और 2008 में भाजपा की सरकार बनवा ली। ये और बात है कि अदालत ने भी उनके पक्ष को सही माना। 2013 के चुनाव से पहले व्यापमं का जिन्न सामने आया और शिवराज ने फिर इस मामले को भी अपने पक्ष में कर डाला। तमाम विरोधी, तमाम दावेदार और तमाम राजनीतिक पंडितों की तमाम कयासबाजी और अभिलाषाएं धरी की धरी रह गयीं। सूखे से पीड़ित किसान हों अथवा खड़ी फसल पर ओलों की मार। कहीं कोई सड़क हादसा हो या कोई और आफत आए। शिवराज के खजाने के हाथ जनता के लिए खुले ही रहते हैं। सदाव्रत बांटने की यह अदा और सभी के सुख-दु:ख में सहभागी बनने की शिवराज की खासियत ही वो नुस्खा है, जिसने उन्हें ऐसा 'दिग्विजयी' बनाया है कि दिग्विजय सिंह का रिकार्ड भी टूट गया। प्रदेश में सिंहस्थ का मिथक तो भाजपा सरकार पहले ही तोड़ चुकी है...देखना है सिंहस्थ कराने वाले मुख्यमंत्री से जुड़ा मिथक शिवराज तोड़ते हैं या नहीं।

Wednesday, November 4, 2015

शेरखान पर धारा- 144

 तो साहब, भारत के केंद्र में बसे भोपाल शहर में इन दिनों दहशत और कौतूहल का माहौल है...कोई आतंकवादी नहीं घुसा है मध्यप्रदेश की राजधानी में ! लेकिन आतंक उससे भी कहीं ज्यादा है। खतरा एक नहीं है, एक जैसे अनेक हैं। चिंता में हैं लोग तो सरकार भी चिंतित है। सभी की चिंता का विषय वो बाघ...वो शेरखान है, जो पता नहीं किस सहज वृत्ति से यहां आ टिका है। कभी लोग उसे देखने सड़क की खाक छानते हैं तो कभी वह भी लोगों को देखने सड़क तक चला आता है कि भीड़ छंटे तो वह अपनी प्यास बुझा सके। लेकिन वाह रे हम दो पैर वाले जानवर! हमें अपने भूख-प्यास की तो चिंता है....उस निरीह प्राणी की नहीं, जिसे जंगल का राजा कहा जाता है।
भोपाल और बाघ आजकल एकदूसरे के पर्यायवाची से लगने लगे हैं। अखबारों में नियमित कॉलम फिक्स हो गया है। न्यूज चैनलों के बुलेटिन में बाघ की खबर फर्स्ट सेगमेंट में जरूरी हो गई है। वैसे भी भोपाल के बाशिंदे बाघ से अपरिचित नहीं है। इसी शहर में वन विहार नामक चिड़ियाघरनुमा नेशनल पार्क है, जहां बाड़े में कैद बाघ लोग सालों से देखते आ रहे हैं। लेकिन, ये बाघ महाशय तो पता नहीं क्या खाकर आए हैं चले आए सीधे आबादी के समीप। बिना ये जाने कि जिनके बीच आ धमके हैं वे लोग उनसे भी खतरनाक हैं। दो पैर पर चलने वालों की सुरक्षा के लिए आग उगलने वाली बंदूकों का जखीरा इनके पास है और खाकी वर्दी वालों को किसी को भी मारने का लायसेंस भी। गनीमत है शहरी आबादी के बीच आने के बावजूद बाघ के जंगल के संस्कार अभी तक बचे रह गए हैं। उसने इंसानों से उनकी आदतें नहीं सीखीं। शायद इसीलिए किसी पर अब तक हमलावर नहीं हुआ। लोगों को देख कर खुद छिप जाता है। उनकी नजरों से ओझल रहने की पूरी कोशिश करता है। बावजूद इसके नजर में आ ही जाता है। नजर में आया सो संकट में भी फंसा। अब उसे खदेड़ने के लिए हाथी बुलाए गए हैं। प्रशिक्षित हाथी।

मां-बाप भी शेरखान की तरह किताबी ज्ञान से अनजान थे इसलिए बचपन में उसका नामकरण संस्कार नही हो पाया था। इंसानों के बीच आया तो उसे नाम भी मिल गया टी-1 भले ही वो खुद अपने नाम से अनजान हो, लेकिन उसे इतना तो मालूम होना ही चाहिए कि उसके एक जोड़ीदार को शहर के दूसरे इलाके के एक सुरम्य स्थान में बलात प्रवेश करने की सजा मिल चुकी है। पीटी-1 पुकारे गए इस युवा बाघ को नौ घंटे की मशक्कत के बाद सुरक्षित जिंदा पकड़ लिया गया था। साहब खुशकिस्मत थे जो उन्हें कुछ दिनों की कैद के बाद 400 किमी दूर पन्ना नेशनल पार्क में स्वच्छंद विचरण के लिए छोड़ दिया गया। मेहरबानी देखिए इंसानों की। किसी ने यह सोचने की जहमत नहीं उठाई कि बाघ जंगल छोड़ कर शहर का रूख क्यों कर रहे हैं। आदमखोर हुए होते तो किसी इंसान को मारते, लेकिन किसी को टच तक नहीं किया उन्होंने। उनकी जरूरत बेशक दूसरी है। वो है पानी। सूखे की मार अकेले खेतों पर ही नहीं पड़ी जंगल पर भी पड़ी है, लेकिन खेतों की बदहाली देखने गए जंगलात महकमे के आला अफसरों को अपने मातहत आने वाले जंगलों का सूखा नहीं दिख रहा। सूख चुके तालाब और जलकुण्ड नहीं दिख रहे। ऐसे में पानी की तलाश में अकेले बाघ ही बाहर नहीं निकले होंगे। और भी चौपाये आते होंगे शहरों और बस्तियों की तरफ। लेकिन वो बाघ जितने खुशकिस्मत नहीं। पलायन करने वाली दूसरी नस्लें इतनी भाग्यशाली नहीं....पता नहीं हिरण कहां शिकार हो जाते हों, या खदेड़ दिए जाते हों। चतुर सुजान और सतर्क होने के साथ बलशाली होना बाघ के लिए फायदेमंद साबित हुआ। एक तो वो खुद बच-बच के संभल के चलता है, दूसरे उसका डर। लेकिन बाघ भी कहां सुरक्षित है! इसी भोपाल के पास पहले भी एक शेरखान अपनी सल्तनत जमाने आया था। नाखून और खाल के लालच में इंसानों के फरेब का शिकार हुआ। मारा भी ऐसा गया कि दो टुकड़ों में मिला था। सो भयभीत होने और घबराने की जरूरत बाघ को है न कि इंसानों को। 
बाघ से जुड़ी नकारात्मक खबरों के बीच एक खबर यह भी आई है कि राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण की भोपाल बेंच को उसके दिन भर प्यासे भटकने की खबरों से रहम आया है। कलेक्टर को तलब कर बाघ के इलाके में इंसानी दखल कम करने के लिए प्रतिबंधात्मक धारा-144 के तहत उपाय करने का फरमान सुनाया गया है। इसके साथ ही यह भी सुनिश्चित माना जा सकता है कि कलियासोत का बाघ अब बस कुछ दिन का ही मेहमान है। बालीवुड के सुपर स्टार की तरह फेमस होने के बाद अब वह शिकारियों के हाथों में आने से तो रहा....लेकिन भोपाल की सीमा में भी नहीं रह पाएगा। उसे उसके पुरखों की जमीन से बेदखल होना ही होगा। बाहर से बुलाए गए हाथियों के यहां डेरा डालने का यह साफ संदेशा है। पर मुसीबत....बाघ तक यह खबर पहुंचाए तो कौन पहुंचाए? उसे समझाए तो कौन समझाए कि भैया निकल लो। होगे तुम जंगल के राजा। यहां के राजा तो इंसान ही हैं। जिन्होंने जंगल के बीच घर बना कर तुम्हारी टेरेटरी छीन ली है। इसलिए धारा-144 इंसानों के लिए अभी भले लग जाए, लेकिन असलियत में वह लग रही है बाघ के लिए।

Monday, September 28, 2015

डर की सियासत और मानवता


ऐसा तो सिर्फ फिल्मों में होता है...कि शादी के मंडप में पुलिस आ धमके। रील लाइफ की कहानी रियल लाइफ में उतरे तो बवाल तो मचना ही था। सो मच गया। हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के घर सीबाआई की छापेमारी का यह एंगल घर-घर की कहानी और सास-बहू छाप सीरियल देखने की आदी भारतीय महिलाओं और कई पुरूषों को हजम नहीं होगा। सोचिए, किसी बाप ने कितने अरमानों से बेटी के विवाह की तैयारियां की होंगी। इस मौके को यादगार बनाने के हर संभव इंतजाम किए जाते हैं। फिर यह तो एक मुख्यमंत्री और बड़े नेता की लाड़ली की शादी थी...अविस्मरणीय बनाने के सारे जतन किए ही होंगे, लेकिन ये न सोचा होगा कि ऐन फेरे के वक्त उनके घर पर सीबीआई जैसी 'प्रतिष्ठित' जांच एजेंसी धावा बोलेगी।
घटना ड्रामेटिक है...नाराज करने वाली है और विस्मित करने वाली भी... कुछ दिन बाद लोग सीरियल की कहानी की तरह इसे भी भूल जाएंगे। पर क्या वीरभद्र और उनका परिवार इसे कभी भुला पाएगा। अरे भाई छापा मारने...कार्रवाई करने के लिए केवल एक यही दिन बचा था क्या? वीरभद्र सिंह कहीं भागे जा रहे थे या फिर सीबीआई को उम्मीद थी शादी के मौके पर उनकी वो धन संपदा बेपर्दा मिलेगी, जिसकी शिकायत पर जांच चल रही है। ये कोई सतयुग तो है नहीं। साहब को क्या अंदेशा नहीं रहा होगा खुद पर होने वाली छापेमारी का! सादगी से मंदिर में सप्तपदी करा रहे थे बिटिया की। इस समारोह के लिए वो परिवार समेत घर से निकलते इससे पहले छापा डल गया। रंग में भंग पड़ गया। वीरभद्र तो वीरभद्र हैं। छठवीं बार मुख्यमंत्री बने हैं। राजनीतिक डगर पर संभलने और फिसलने के अनुभवी हैं। इसलिए छापे से डरे नहीं, डिगे नहीं। बेटी को विदा करने के बाद सीबीआई वालों से मिले। पूरे विषाद और क्षोभ के साथ। खुशी के मौके पर अपमान के बाद यही चीजें तो बची हैं उनके पास। यह पहला मौका नहीं है जब किसी बड़े नेता को सीबीआई ने लपेटा है। पर इस तरह से किसी को नहीं लपेटा जैसा वीरभद्र के साथ हुआ।
 बात यहीं नहीं थमती। बात निकली है तो दूर तलक जाएगी वाला मामला है यह। आज जो लोग इस घटना पर खुश हैं कल दुखी हो सकते हैं। आखिर मामला 'तोते' के कटखना होने का जो है। तोता यानी सीबीआई। जिसे सुप्रीम कोर्ट ने पिंजरे का तोता कह कर नया मुहावरा गढ़ा था। उसी सीबीआई ने 'मानवता' को ताक पर रख कर हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के एक दर्जन ठिकानों पर छापा मार दिया। वो भी उस दिन जब उनकी बेटी की शादी थी। अब इस घटना पर कहने वाले कह रहे कि ऐसा तो कोई दुश्मन के साथ भी नहीं करता... दुश्मन भी बेटी की शादी में सहयोग करता है...आदि, इत्यादि। आरोप लग रहे हैं कि सीबीआई में जरा सी भी मानवता नहीं है। पुलिस और पुलिस वालों से बनी इस जांच एजेंसी से मानवता की अपेक्षा भी क्यों? ये कोई आईपीएल मार्का भगोड़े ललित मोदी और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के बीच वाला 'मानवता' का मामला थोड़े ही है। स्वराज ने मानवीयता के नाते एक बीमार महिला की मदद की तो विपक्ष ने संसद सिर पर उठा ली थी। अरे भाई, माना ललित मोदी की पत्नी है वह महिला पर इसमें मानवीयता भी तो थी। यही तर्क दिया था न लोकसभा में वक्तृत्व कला की माहिर सुषमा स्वराज ने। उनकी पार्टी, जिसकी सरकार है, उसने भी इसी तर्क के सहारे उनका हौसला बढ़ाया था कांग्रेस के आरोपों का मुकाबला करने में। उसी मानवता और मानवीयता की उम्मीद कांग्रेस वीरभद्र के मामले में कर रही थी और सीबीआई में इसका नितांत अभाव निकला।
 भ्रष्टाचार के मामले में पड़े इस छापे पर कोई गुरेज नहीं...ऐतराज है तो उसकी टाइमिंग पर। शादी के मौके पर किसी के घर भी कोई ऐसे धमकता है क्या? सवाल इसी बात को लेकर है। यदि टाइमिंग सही होती तब भी छापे के खिलाफ आवाज उठती, लेकिन उसमें पब्लिक अपील नहीं होती। आखिर हम उस समाज में रहते हैं, जहां किसी बड़े अपराध का आरोपी भी चुनाव जीत जाए तो वह सीना फुला कर दावा करता है कि जनता की अदालत ने उसे बरी कर दिया है। अदालत में चल रहा मामला तो विपक्षी पार्टी का षड़यंत्र है। वीरभद्र के मामले में भी यही दावे हो रहे हैं। होते भी रहेंगे। आखिर जिस मामले में सीबीआई ने उनके खिलाफ प्रकरण दर्ज किया है वह पुराना है, साल 2009 से 2011का। जब वो केंद्र सरकार में मंत्री थे। इन आरोपों का सामना करते हुए उनकी अगुवाई में कांग्रेस ने 2012 में हिमाचल का चुनाव लड़ा और जीत कर सरकार बनाई। उस चुनाव में भ्रष्टाचार ही मुख्य मुद्दा था। दोनों तरफ से आरोप-प्रत्यारोप चल रहे थे। फैसला वीरभद्र के पक्ष में सुनाया था जनता ने। ऐसे ही जनता से अपने हक में फैसले की दुहाई के उदाहरण भरे पड़े हैं भारतीय सियासत में। अब वीरभद्र के खिलाफ सीबीआई की कार्यवाही से उनकी पार्टी की भवें तनना स्वाभाविक है। उस सीबीआई ने यह कार्यवाही की है, जिसे पिजरे का तोता बताया जाता है। यानी केद्र में जिस पार्टी की सरकार होगी सीबीआई उसके इशारे पर काम करेगी। यह जांच एजेंसी इस आरोप को पुष्ट करने के सिवा और कर भी क्या सकती, उस पर बंधन ही इतने ज्यादा हैं। वाकई पिंजरे में कैद।
सीबीआई की वीरभद्र सिंह पर की गई कार्यवाही से भारतीय राजनीति में वह रास्ता और मजबूत हो रहा है, जिस पर वर्तमान में बीजेपी शासित राज्यों की सरकारें चल रही हैं। विरोधी दल के नेताओं पर शिकंजा कसना। मध्यप्रदेश में 12 साल से भी ज्यादा पुराने भर्ती मामले में पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह से लेकर तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष श्रीनिवास तिवारी तक आरोपी हैं। ऐसे में एक वर्तमान मुख्यमंत्री पर सीबीआई का फंदा पड़ना आगे की राह दिखाता है। कांग्रेस नेता 'आरोप राग' आलाप रहे हैं कि सीबीआई की रेड बीजेपी के मुख्यमंत्रियों के घर क्यों नहीं पड़ रही। उन पर भी भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं। आज स्थितियां भले ही अलग हों, लेकिन एक बात तो तय है कि एक मुख्यमंत्री पर छापेमारी से रिवेंज पॉलिटिक्स का एक नया अध्याय भारतीय राजनीति में खुल गया है। सरकार बदलते ही गड़े मुर्दे उखाड़ कर सीबीआई के तोते से फिर किसी को नहीं कटवाया जाएगा, इसकी गारंटी है क्या? होगी भी कैसे? डर की सियासत में मानवता की गुंजाइश हो भी तो कैसे? राजनीति में बदलापुर संस्कृति जो घर कर गयी है। चलो इसी बहाने राजनीति और सिस्टम की गंदगी छंटती है तो यही सही। कुछ तो सुधार होगा....कोई तो डरेगा...या शर्म खाएगा....

Tuesday, September 22, 2015

बकरा किश्तों पर....

ये पाकिस्तानी हास्य कलाकार उमर शरीफ के मशहूर स्टेज शो का टाइटिल जरूर है....लेकिन मामला कहीं से भी पाकिस्तानी नहीं है। पूर्ण स्वदेशी है। गांधी के स्वराज की तरह स्वदेशी। भारत के संविधान में दिए गए अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार जैसा...बकरा किश्तों पर।

तो साहब, हनुमानजी के दिन यानी मंगलवार को भारत भूमि के एक बकरे को जीवनदान मिलने का फरमान मिल गया। पता नहीं वो बकरा इसे सुन कर कितना खुश हुआ होगा। उसके लिए तो कोई विधानसभा चुनाव जीतने के बाद मिलने वाली खुशी जैसी होगी ये खुशी। राजनीतिक दल में कोई उच्च प्रभावशाली पद हासिल होने पर मिलने वाली प्रसन्नता जैसी अनुभूति हो रही होगी उसे। आखिर वो बकरा किसी गांव खेड़े या गली मोहल्ले का तो है नहीं। उसका नाता तो देश के ह्दयप्रदेश मध्यप्रदेश के ह्दय क्षेत्र में स्थित एक गौरवशाली राजनीतिक दल से जुड़ गया है। उसे बकरीद के दिन राष्ट्रीय दल के इसी प्रादेशिक कार्यालय के सामने कुर्बान करने का जो तय हुआ था। पता नहीं क्यों और कैसे...उसकी इस स्थल पर कुर्बानी देने की ठानने वालों का मन पलट गया। और...वह इतिहास में अपना नाम दर्ज कराने से चूक गया। अब बकरे को जान बचने की खुशी है तो इतिहास के पन्नों तक नहीं पहुंच पाने का गम भी। बेचारा करे तो क्या करे ! उसके बस में होता तो लिंक रोड पर किसी बस के नीचे आकर जान दे देता...लेकिन उससे वह दुर्घटना में हलाक तो साबित हो सकता था...कुर्बान नहीं।
 खैर बकरे की बकरा जाने...हम तो उमर शरीफ के बकरा किश्तों वाले चुटीले हास्य को याद करते हैं...जिसमें एक प्रसंग में आग के चक्कर लगाते...लगाते अचानक नाटक का हीरो रूक जाता है...क्योंकि फेरे डालने से उसके हिंदू हो जाने का खतरा जो उसे दिखता है। बस सियासी बकरे की जान की शामत आने की वजह भी ऐसी ही है। लगातार तीन विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी से शिकस्त झेलने के बाद जब मध्यप्रदेश कांग्रेस के कर्णधारों ने बीजेपी के चाल, चरित्र और चेहरे के परे झांक कर देखा तो उन्हें वहां तंत्र, मंत्र और यंत्र के साथ आस्था नजर आई। बस अपने ग्रह नक्षत्र सुधारने के लिए प्रदेश कांग्रेस कार्यालय में भी बीजेपी टाइप टोटके किए गए। फायदा न हुआ तो दो साल से बीजेपी की तर्ज पर गणेशोत्सव मनाया जाने लगा। कांग्रेस तो 100 टका वाली धर्मनिरपेक्ष पार्टी है। गणेशजी बैठेंगे तो ईद भी मनेगी और क्रिसमस भी। सो भाई लोगों ने गणेश का जवाब बकरीद से देने का तय कर लिया।

ये त्योहार भी उस मौके पर आए, जब प्रदेश कांग्रेस में पदों की रेवड़ी बंटने के बाद कलह के कैक्टस उगे हुए हैं। जिन्हें पद नहीं मिला भोपाल और दिल्ली के बीच चलने वाली शान-ए-भोपाल एक्सप्रेस को ही घरौंदा बनाए हुए हैं। एक टांग यहां दूसरी दिल्ली में। इन्हीं में से कुछ पक्के कांग्रेसियों ने विरोध का तरीका ढूंढा। गणेश स्थापना के जवाब में पार्टी कार्यालय के सामने बकरीद मनाने का ! सच है। कोई वहां शंख झालर बजा कर सुबह शाम गणेश भगवान की आराधना कर सकता है तो दूसरे को अपनी आस्था के प्रदर्शन से कैसे रोका जा सकता है। बकरीद पर बकरे की कुर्बानी के जज्बे ने इस पार्टी की साख बढ़ा ही दी होगी ! इसे लेकर नाटक नौटंकी जितनी हो सकती थी, सब हुई। किसी से बकरे की जान को खतरे की चिंता जताई गई तो किसी पर शक जताया गया। कुल जमा उमर शरीफ को शर्मिंदा करने लायक सारे आइटम थे। खैर कोई आकाशवाणी हुई...कोई संदेश आया। या फिर सद्बुद्धि। अचानक कार्यालय में बकरे की कुर्बानी का आइडिया ड्राप कर दिया गया। बाकायदा प्रेस नोट जारी कर 'शाकाहारी ईद मिलन' की घोषणा हो गई। साल भर पहले भी ऐसा ही एपिसोड हुआ था। तब बकरा तो नहीं आया था, पर उसके गोस्त से बने कबाब के चर्चे जरूर थे। धन्य हैं सोशल मीडिया पर छाए एक महानगर के वो बाशिंदे जिन्होंने नमाज अता करते वक्त आधी सड़क गणेश जी के लिए छोड़ दी थी। धन्य वो गणेश भक्त भी, जिन्होंने नमाज का सम्मान करते हुए शांति से जुलुस निकाला। उन्होंने भी तो बकरा किश्तों पर... देखा होगा। हमने भी देखा, पर शायद हमारे चश्मे का नंबर अलग था। 
( संदर्भ- मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल स्थित प्रदेश कांग्रेस कार्यालय में गणेश स्थापना और बकरीद मनाने को लेकर कांग्रेस नेताओं के बीच मचा घमासान और उसका उतना ही रोचक पटाक्षेप।)

Monday, September 21, 2015

रसगुल्ला किसका? हमारा और किसका!


माना, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृह प्रदेश गुजरात की सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी मध्यप्रदेश को एशियाटिक लॉयन यानी गिर के बब्बर शेर सिर्फ इसलिए नहीं दे रही, क्योंकि बड़ी बिल्लियों की यह प्रजाति गुजरात की अस्मिता से जुड़ गई है। गिर के जंगल में इन शेरों के कुनबों को स्वच्छंद विचरण करते देखने देश-विदेश से सैलानी आते हैं। इनसे गुजरात के पर्यटन को बढ़ावा मिलता है। शेर मध्यप्रदेश के बाशिंदे हो गए तो गुजरात का 'गौरव' ही नहीं पर्यटन से होने वाली कमाई भी बंट जाएगी। पर...रसगुल्ला तो शेर नहीं है। इसे तो कहीं भी बनाया और हजम किया जा सकता है। फिर क्यों ओडिसा और पश्चिम बंगाल की सरकारें आमने-सामने हैं...?
यदि रसगुल्ले को 'गुजराती गौरव' चश्मे से देखें तो...आने वाले समय में एक खास प्रदेश से बाहर के बाशिंदे इसका रसास्वादन नहीं कर पाएंगे ! यदि रसगुल्ला उड़िया निकला तो सिर्फ कलिंग प्रदेश के रहवासियों का राजकीय मिष्ठान बन कर रह जाएगा। और यदि पश्चिम बंगाल मूल का हुआ तो केवल बंगालियों को ही नसीब होगा। दीगर राज्य के निवासी यदि रसगुल्ला बनाते या खाते हैं तो उन्हें एक नए किस्म का टैक्स...रायल्टी चुकानी पड़ेगी।
रसगुल्ला महिमा गान ! ये शक-शुभहा ! इसलिए क्योंकि 21 वीं सदी में विकास की होड़ में लगे दो राज्य रसगुल्ले को लेकर तलवारें खींचे हुए हैं। जर,जाेरू और जमीन के लिए झगड़ों की बात पुरानी हो गई। ऩए दौर में इंटलेक्चुअल प्रापर्टी राइट, पेटेंट और जियोग्राफिकल इंडिकेशन (जीआई ) टैग को लेकर झगड़े हो रहे हैं.....ये संघर्ष का नया दौर है।कुछ समय पहले भारत ने अमेरिका से खुशबूदार बासमती चावल के पेटेंट की जंग जीती तो मध्यप्रदेश राज्य ने अपने बासमती के लिए जीआई टैग हासिल कर पाकिस्तान को नाराज कर दिया। अब इसे लेकर विश्व बिरादरी में एक नई जंग छिड़ गई है कि बासमती किसका असली है....मध्यप्रदेश का या पाकिस्तान का ?  बस ऐसा ही एक संघर्ष हम सब का पसंदीदा रसगुल्ला भी झेल रहा है। ओडिसा सरकार ने इस सफेद, गोल मटोल, रसभरे और मीठे  मिष्ठान पर अपना दावा जताया है। ओडिसा  ने इसके लिए जीआई टैग क्या मांगा हंगामा मच गया। ग्रामीण उत्सवों में बंगाली मिठाई का पर्याय रसगुल्ला...विवाद का गोला बन गया। इसकी मिठास में  कसैलापन आ गया...नर्म मुलायम रसगुल्ला अचानक रूखा और बेस्वाद लगने लगा ! न जाने कब इसे गप करना बौद्धिक संपदा अधिकार कानून का उल्लंघन हो जाए। किसी मेहमान को रसगुल्ला परोस कर पता नहीं कौन सा अपराध हो जाए? डर हो भी क्यों ना! ओडिसा सरकार ने रसगुल्ले के जन्मस्थान की तलाश और उस पर अधिकार जताने के लिए जांच कमेटी गठित कर दी हैं। एक नहीं, दो नहीं। तीन-तीन समितियां रसगुल्ला मामले की जांच करेंगी। हर पहलू की जांच होगी। सरकार की गंभीरता का अंदाजा इसी से लग जाता है कि समितियों में सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग विभाग के साथ संस्कृति विभाग के अफसर होंगे। पहली समिति ओडिसा में रसगुल्ला के उद्भव से जुड़े तथ्यों और सबूतों को देखेगी। दूसरी समिति रसगुल्ले पर पश्चिम बंगाल के दावे की पड़ताल करेगी। तीसरी समिति ओडिसा के दावे को स्थापित करने के लिए जरुरी दस्तावेज जुटाएगी। मतलब रसगुल्ला अब सिर्फ मिठाई की दुकान पर मिलने वाला मीठा गोला नहीं रहा। उसके व्यवसायिक पहलू को देखा जा रहा है। जीआई टैग क्या ऐसे वैसे ही मांगा जा रहा है?
 ये लालू यादव या किसी और राजनेता की जन्मतिथि का विवाद होता तो समझ आता कि राजनीति है, ये तो रसगुल्ले का मामला है। जलेबी से भी ज्यादा उलझना ही था। इमरती का सिरा पकड़ने से भी ज्यादा कठिन होना ही था। सो हो गया। गुजराती पाककला विशेषज्ञ तरला दलाल से लेकर पंजाबी शेफ संजीव कपूर और विकास खन्ना तक की रेसिपी में कोहिनूर की तरह जगमगाते रसगुल्ले की आखिर हकीकत क्या है? इसे तो हर हलवाई बनाता है। अब तो इंस्टेंट मिक्स भी मिलता है। देशी से लेकर मल्टीनेशनल कंपनियां तक मिक्स बेच मुनाफा कमा रहीं हैं। घर पर भी दूध फाड़ कर इसे बना लिया जाता है। इतना सुलभ...इतना सहज रसगुल्ला आखिर है किसका?  
पश्चिम बंगाल का दावा है कि कलकत्ता के नबीन चंद्र दास ने इस मिठाई की खोज की थी। न्यूटन और आइंस्टीन द्वारा धोखे से की गई बड़ी खोजों की ही तर्ज पर नबीन बाबू बनाते तो प्रसिद्ध बंगाली मिठाई 'सोन्देश' थे पर साल 1868 में एक दिन रोसोगुल्ला की ईजाद हो गई। अब उनके वारिस और बड़े रोसोगुल्ला कारोबारी के.सी. दास इस पर अपना अधिकार जताने और बांग्ला गौरव से इसे जोड़ने इसका इतिहास लिखवा रहे हैं। जिसे पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को सौंपा जाएगा। पड़ोसी से बड़ा जलकुकड़ा भी कोई हो सकता है क्या? ओड़िसा ने भी दांव चल दिया कि रोसोगुल्ला के बंगाली अविष्कार से बहुत पहले से रसगुल्ला उनके घर बनता आ रहा है। तुर्रा ये कि अपने भात के लिए जगप्रसिद्ध पुरी के भगवान जगन्नाथ को इसका भोग लगभग 300 साल से लग रहा है। यानी बंगाल से 150 साल पहले से। इतिहास का कोई जानकर एक हजार साल पुरानी परम्परा की दुहाई दे रहा है तो कोई 13 वीं तो कोई 18 वीं सदी के प्रमाण बता रहा है। धार्मिक आख्यान भी हैं, दलील को मजबूती देने। इसका जन्मस्थान भी खोज लिया गया। कटक और भुवनेश्वर के बीच नेशनल हाइवे नंबर 5 पर स्थित पाहाल गांव को जन्मस्थली बताया जा रहा है, जहां के रसगुल्ले काफी मशहूर हैं। ओडिसा सरकार इसी गांव के रसगुल्ले को जीआई मान्यता दिलाना चाहती है। तो बात बस इतनी सी ही है जियोग्राफिकल इंडिकेशन की। ये हुआ तो...!
न जी बात इतनी सी नहीं है! बात अस्मिता की है। राजनीति की है। जनता को भरमाने की है। गुम हो चुकी सड़क, कागजों में बन रही नहर या हवा में खुद रहे सरकारी कुओं को तलाशने का ऐसा जज्बा क्यों नहीं होता जैसा रसगुल्ले को लेकर है। आम आदमी, विकास और सुविधाएं बेमानी हैं इसकी मिठास के सामने। सरकारों को खोजना है तो सड़क, बिजली और पानी क्यों नहीं खोजा जाता। रसगुल्ले का इतिहास खंगालने की इतनी मशक्कत से हासिल क्या होगा ! जिसकी रेसिपी पर किसी सरकार का कण्ट्रोल नहीं। जिसका जब मन करे खरीद कर लाए...घर में बनाए और गप कर जाए। रसगुल्ला तो रसगुल्ला ही रहेगा। इसकी मिठास, मुलायम सफेदी और लज्जत पर रसगुल्ले के सिवा किसी और का पेटेंट हो सकता है क्या? चिंता नको।वाह रसगुल्ला। वाह रोसोगुल्ला।


Thursday, September 10, 2015

दाग अच्छे भी हों, बुरे होते हैं

विश्व हिंदी सम्मेलन में आए देश और दुनिया भर के हिंदी प्रेमियों के बीच आंध्रप्रदेश से आए एक सज्जन अनायास भोजनशाला में टकरा गए। पंडाल से लेकर सम्मेलन की तमाम विशेषताओं और स्वागत सत्कार के लिए उन्होंने मध्यप्रदेश की तारीफ की। लेकिन, प्रदेश की पहचान के सवाल पर बोले, व्यापमं से है मध्यप्रदेश की पहचान।
तेलगु लहजे की हिंदी बोलने वाले उन विद्वान ने यह बात आयोजनकर्ताओं या इस आयोजन से जुड़े किसी व्यक्ति के सामने कही होती तो शायद तत्काल वापसी का टिकट मिल गया होता। वो खुशकिस्मत थे। पर क्या इतना बड़ा वैश्विक आयोजन करने के बाद भी मध्यप्रदेश खुशकिस्मत बन पाया ? इस प्रदेश पर 31 साल पहले गैस काण्ड का ग्रहण लगा था। गूगल देवता से मध्यप्रदेश या मध्यप्रदेश की राजधानी के बारे में पूछो तो गैस त्रासदी का चेहरा दिखाते अनगिनत पेज वो सामने फेंक देता था। मानो भोपाल जिंदा लोगों का शहर नहीं लाशों का कब्रिस्तान हो! दुनिया भर में काम कर रहे कई एनजीओ से लेकर पर्यावरणवादी, मानवतावादी और मानववादी संगठन और लोग भोपाल को सिर्फ और सिर्फ गैस काण्ड की वजह से जानते आए हैं...पीढी बदलने के बावजूद यह पहचान नहीं बदल सकी थी। उड़ीसा के कालाहांडी जिले के साथ जैसे भुखमरी की पहचान चिपकी हुई है ठीक वही हाल भोपाल का था।
बीमारू प्रदेश की लिस्ट से खुद बाहर होकर इस बीमारू राज्य शब्द का आस्तित्व समाप्त कराने वाले मध्यप्रदेश का यह दुर्भाग्य ही है कि उसे सकारात्मक पहचान मिल ही नहीं पा रही। अब बीमारू नहीं रहा, कहने से काम नहीं चलता। विकासशील हो गया है, कहना भी कोई प्रभाव नहीं डालता। मध्यप्रदेश को नई पहचान मिली है व्यापमं से। इस घोटाले ने लोगों पर जो प्रभाव डाला हो वो अपनी जगह, इसने नकारात्मक ढंग से पूरे प्रदेश को प्रभावित कर दिया है। घोटालेबाजों को सलाखों के पीछे भेजने वाली सरकार की मंशा का भी इसमें अच्छा या बुरा... योगदान तो है ही। क्या कोई अपना ही घाव दुनिया के सामने उघारता है ? नहीं न! घाव का इलाज किया जाता है। डॉक्टर को दिखाया जाता है और मर्ज के कारणों को दूर किया जाता है। घाव की नुमाइश नहीं की जाती। व्यापमं मामले में इलाज की तुलना में नुमाइश ज्यादा हो गई और ये वो नासूर बन गया जिसका दाग आसानी से नहीं मिटता।
शायद ये किस्मत का ही लेख है कि प्रदेश को प्रसिद्धि 'सद्' कार्यों के लिए नहीं मिलती। राष्ट्रीय मीडिया के मित्र बताते हैं कि मध्यप्रदेश की सकारात्मक खबरों के लिए उनके संस्थान में स्थान नहीं है। हां, नकारात्मक समाचार हो तो खूब चलता है। अब विश्व हिंदी सम्मलेन को ही देख लीजिए। वो तवज्जो नहीं, जो होनी चाहिए थी इस अंतर्राष्ट्रीय आयोजन की। इसीलिए गेंहू की पैदावार में पंजाब को पीछे छोड़ने वाला मध्यप्रदेश। देश को लाड़ली लक्ष्मी योजना देने वाला मध्यप्रदेश। कई विशेषताओं वाला प्रदेश जाना जाता है तो व्यापमं घोटाले से। उम्मीद की जानी चाहिए कि आंध्रप्रदेश से आए उन महानुभाव की तरह बाकी भद्रजन सम्मेलन से जब लौटें तो मध्यप्रदेश की नई पहचान लेकर जाएं....कि ये हिंदी प्रदेश है। देश का ह्रदयप्रदेश है। व्यापमं प्रदेश नहीं। ये दाग अच्छा नहीं है। व्यापमं का भर्ती घोटाला भले ही सीबीआई तक पहुंच गया हो, उसके आगे भी मध्यप्रदेश है। आखिर दाग कैसे भी हों वो हमेशा अच्छे नहीं होते। कुछ दाग इतने बुरे होते हैं कि पहचान बदल देते हैं। 

विवादों का जनरल


कुछ लोगों को बखेड़ा खड़ा करने में आनंद आता है। भारत के विदेश राज्य मंत्री जनरल विजय कुमार सिंह भी ऐसे ही लोगों में शुमार हैं। देश में 32 साल बाद हो रहे विश्व हिंदी सम्मलेन से ठीक एक दिन पहले  जनरल
साहब के श्रीमुख पर फिर सरस्वती की जगह कोई आसुरी शक्ति विराजमान हो गई और उन्होंने दे डाला एक और विवादित बयान....जी हां, विवादित बयान, जो इनकी आदत में शुमार रहा है।
जनरल वीके सिंह उस टीम के अहम अंग हैं, जो सम्मेलन का काम देख रही है। वे कुछ दिनों से भोपाल में ही डेरा डाले बैठे हैं और उस मीडिया को घूम-घूम कर इंटरव्यू दे रहे हैं...जिसके लिए उन्हें 'प्रोस्टीट्यूट' जैसे शब्दों के इस्तेमाल से भी परहेज नही रहा है। जनरल साहब ने हिंदी सम्मेलन का उद्घाटन करने आ रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आने से एक दिन पहले वो बयान दे दिया, जिसने साहित्य जगत में हलचल मचा दी है। इस आयोजन में आमंत्रित नहीं किए जाने से खफा बैठे कई साहित्य मनीषियों के माथे पर जनरल की बातों से बल पड़ गए हैं। लोग पूछ रहे हैं कि क्या साहित्यकार केवल खाने और दारू पीने ऐसे आयोजनों में आते थे ? आते भी थे तो क्या सरकार उनकी खातिरदारी इसी तरह करती थी ?
बंदूक से निकली गोली लौट कर नहीं आती। इस तथ्य से तो सेना प्रमुख रहे वी के सिंह बखूबी वाकिफ होंगे, लेकिन जुबान से निकली बोली का भी यही अंदाज और अंजाम होता है...ये जानने समझने में उन्हें समय लगता है। फौजी जो ठहरे। फौज में राजनीति का स्थान नहीं होता।आम फौजी राजनीति कर भी नहीं सकता। लेफ्ट, राईट, कदमताल, दाहिने मुड़, तेज चल...से समय मिले तो राजनीति करे। पर विजय कुमार तो विजय कुमार हैं। हिंदी सम्मेलन का समापन करने आ रहे महानायक अमिताभ बच्चन की सिल्वर जुबली फिल्मों में हीरो का नाम यूंही तो नहीं विजय रखा जाता था। इस नाम में दम है। सो जनरल भी दमदारी से बोल बचन कर लेते हैं। ये अलग बात है कि नौसिखुआ राजनेता होने के कारण मिसफायर ज्यादा होता है। 
भोपाल से ही पीएचडी कर चुके वी के सिंह तब भी विवाद में थे जब पूरा जीवन नौकरी और कई प्रमोशन लेने के बाद रिटायरमेंट की बेला में उन्हें अपनी असली जन्मतिथि पता चली। शायद कभी जन्मकुंडली बचवाने की जरुरत नहीं पड़ी होगी। विवाद तब भी उनके साथ थे। अब भी हैं। विवाद ही वो वजह हो सकते हैं जिनसे बीजेपी का दिल इन पर आया और फौजी नेता बन गया। जो मन में आए बोलो और बाद में पलट जाओ। नेतागिरी के लिए इससे बड़ा और कौन सा गुण चाहिए ! अतिरिक्त योग्यता अण्णा आंदोलन से मिल गयी। विशेष अहर्ता ये कि जनरल की सरकार जब फौजियों को वन रैंक वन पेंशन पर अड़ रही थी जनरल नींद में थे और उनकी बिटिया पूर्व सैनिकों के साथ धरने पर। यानी राजनीति के सारे गुण सिंह साहब की कुंडली में मौजूद हैं। फिर डर काहे का। बोलिए जो मर्जी हो। दोष दीजिए उस बिरादरी को जिसके दम पर हिंदी सम्मेलन की और खुद की ब्रांडिंग कर रहे हैं। सुर्खियों में बने रहना है... तो बने रहेंगे।

Tuesday, September 8, 2015

घुसपैठिया कौन...'शेरखान' या 'हम' ?

ये मारीशस या किसी अफ्रीकी देश से अपने पूर्वजों की जमीन की तलाश में आने वाले राजनेता का मामला नहीं है, जो पॉजीटिव न्यूज बने। ये तो उस शेरखान की अपनी जमीन की तलाश है...जिसके डीएनए में उसके पूर्वज लिख गए थे कि ये जमीन...ये टेरेटरी तुम्हारी है। लेकिन वही शेरखान...वही जंगल का राजा आज अपनी ही जमीन पर अतिक्रामक हो गया है। किसी गांव के अनपढ़ किसान की तरह जिसकी जमीन पटवारी ने किसी रसूखदार के नाम चढ़ा दी और वो अपनी ही पूर्वजों की माटी में अतिक्रमणकारी साबित कर दिया गया।
 जी हां, मध्यप्रदेश  की राजधानी भोपाल में आजकल यही हो रहा है। इस माटी की जिन विशेषताओं को देख कर 1956 में इसे राजधानी बनाने का निर्णय लिया गया था, पानी, जमीन और हरी भरी सुरम्य वादियां। शेरखान के पूर्वजों ने ही तो इसे संभाला था और आज वही यहां घुसपैठिया हो गया ! भारत का राष्ट्रीय पशु होने का गौरव भी आज उसके लिए ठीक वैसे ही बेमानी है...जैसे देश की सीमा पर शहीद हुए किसी सैनिक के परिवार के लिए वो गौरव बेमानी होते हैं, जो परिवार की गाड़ी न खीच सकें। तो साहब, भोपाल में राष्ट्रीय पशु बाघ के लिए जगह नहीं। राजधानी के आसपास के उन जंगलों में भी नहीं, जहां कभी उनका राज चलता था। कलियासोत बांध हो या केरवा या फिर कोलार बांध का एरिया। हर उस इलाके में इंसानों ने बस्ती बसा ली है...जहां कभी बाघ स्वच्छंद विचरण करता था।
खबरें आ रही हैं कि भोपाल के आसपास सात बाघ आ गए हैं। कभी ये कलियासोत डैम के पास मार्निंग और इवनिंग वॉक करने वालों को देखते हैं। तो कभी सरकार और साहबबहादुरों की कृपा से जंगल की सुरम्य भूमि में गुरुकुल की तर्ज पर बन गए कॉलेज और स्कूल के रास्ते में स्टूडेंट्स की आती-जाती गाड़ियो को देख सड़क छोड़ देते हैं। सुनहरी खाल पर काली पट्टियों वाले इस शानदार जानवर को अपनी जमीन पर आने वाले घुसपैठियों से भय ही तो है...जो वह इंसानों के लिए अदब से रास्ता छोड़ देता है। घंटों झाड़ियों में दुबक कर भूखा-प्यासा बैठा रहता है। इंतजार करता है कि दो पैर वाला ये खतरनाक जानवर चला जाए फिर वो अपना ठौर तलाशे। जगह बदले। लेकिन जाए तो जाए कहां। अपने ही विचरण स्थल में बेगाना हो गया है। आखिर ये जगह टूरिस्ट स्पॉट जो बन गयी है और वो अपनी ही जमीन में अवांछित।
शेर के लिए शेर होना ही काफी नहीं है। उसके लिए तो आगे कुआं और पीछे खाई वाली स्थिति है। जंगल में जहां वो पैदा हुआ..पला बढ़ा, वहीं पर उससे बलशाली शेर का कब्जा है। उसने ही तो धकिया कर इंसानों की बस्ती के करीब विरल जंगल की ओर धकेला है। सरकारी रिकार्ड में कभी यह जंगल ही था। छोटे झाड़ का या फिर बड़े झाड़ का।लेकिन अब पता नहीं कैसे कंक्रीट का जंगल हो गया है।शायद... किसी "राजा" को केरवा का यह जंगल भा गया और उन्होंने अपनी कोठी तान दी। कोठी भी ऐसी जिसमें शेर का निवाला बनने वाले हिरण मनोरंजन के लिए पाले गए थे...याद है ना, कैद में बेजार हुए एक कृष्ण मृग ने यहां तैनात एक संतरी के पेट में अपने ऐेसे सींग घोंप दिए थे कि मौके पर ही उसके प्राण पखेरू उड़ गए। वो हिरण तो शाकाहारी था....पता नहीं इंसानों की सोहबत में हिंसक कैसे हुआ। हिंसक हुआ तो इतना हिंसक कैसे हुआ कि....? इस कोठी की देखादेखी और भी रसूखदारों ने अपने बंगले और कोठियां तान दीं...बिर्री-बिर्री...छिछली-छिछली...इतनी दूर-दूर...मानो ये जंगल उनकी टेरेटरी हो।बीच-बीच में कुकुरमुत्तों की तरह और भी घर उग गए। शहर के शोरशराबे से दूर शांति से रिटायर्ड लाइफ जीने के लिए कई वो नौकरशाह भी आ बसे, जिन पर कभी जंगल और जंगली जानवरों की सुरक्षा का दायित्व था। जो कानून और सरकारी जमीन बचाते थे। इन्हें देख एक सवाल उठता है। पर इस सवाल का जवाब आज तक नहीं मिला कि जंगल और पहाड़ तो सरकारी संपत्ति हैं फिर इन पर निजी मालिकाना हक कैसे हो जाता है ? क्यों हरे भरे पहाड़ धीरे-धीरे कॉलोनी में तब्दील हो जाते हैं और क्यों सरकारी जंगल पर निजी बंगले बन जाते हैं? आखिर पटवारी के बस्ते में ऐसा कौन सा जादू है ! 
चलें फिर शेरखान की ओर... कभी इसी मध्यप्रदेश की धरती पर रूडयार्ड किपलिंग ने कालजयी किताब 'जंगल बुक' की रचना की थी।उनका हीरो "मोगली" हर कहानी में शेरखान यानी जंगल के राजा बाघ पर भारी पड़ता था। शेर आज भी मोगली की प्रजाति के इंसानों से हार रहा है। इंसानों की बदौलत ही मध्यप्रदेश का टाइगर स्टेट का दर्जा छिन गया। 2003 तक 712 टाइगर थे, जो घट कर अब 300 के आंकड़े पर डांवाडोल हो रहे हैं। दुनिया भर में 'सेव द टाइगर' का कैंपेन चल रहा है और टाइगर अपने को सेव करने के लिए नई जगह जाए तो अतिक्रमणकारी....घुसपैठिया हो जाता है। पन्ना नेशनल पार्क तो याद होगा ही। एक जमाने में 35 बाघ थे वहां और इंसानों ने एक को भी नहीं छोड़ा था। फिर ! उन्हें शर्म आई और कान्हा, बांधवगढ़ जैसे जंगलों से यहां बाघ भेजे गए। बाघ को क्या चाहिए ? घना जंगल, खुली हवा और पानी। शिकार तो अपने आप आ जाते हैं, सो पन्ना में टाइगर रि-लोकेशन के नाम पर लोग पुरस्कृत हो रहे हैं। उनका सिर गर्व से तन रहा है...लेकिन जब वही टाइगर भोपाल के आसपास अपने पुरखों की जमीन पर अपनी टेरेटरी बनाता है तो उनकी भवें तन जाती हैं। इंसान की जात को भी कोई समझ पाया है, जो बाघ समझे ! व्यथा समझें...बाघ की। उस पर नहीं तो कम से कम राष्ट्रीय गौरव पर तो रहम खाएं...।

Sunday, September 6, 2015

हिंदी....मन की या बेमन की


दसवां विश्व हिंदी सम्मेलन अब इतने करीब आ गया है कि दिन गिनने के लिए उंगलियों की भी जरूरत नहीं है...करोड़ों रूपए खर्च कर हो रहे इस  महा आयोजन के जरिए महिमामंडित होने के सिवा इस सम्मेलन से और क्या हासिल होगा ? महिमामंडित कौन होंगे ? आयोजक....आयोजन कराने वाले...या फिर इसका श्रेय लेने वाले...!
जवाब तलाशना बेमानी है....चर्चा है कि मध्यप्रदेश के विदिशा संसदीय क्षेत्र से लोकसभा सदस्य विदेश मंत्री सुषमा स्वराज दक्षिण भाषी महानगर हैदराबाद में होने वाले इस आयोजन को भोपाल खींच लाईं। वजह ! उनके निर्वाचन क्षेत्र विदिशा का भोपाल से सटा होना है। यदि विदिशा में इतनी तादाद में आ रहे विदेशी और देशी मेहमानों के आवागमन और रात्रि विश्राम का बंदोबस्त होता तो यकीनन यह महासम्मेलन सम्राट अशोक की ससुराल भेलसा यानी विदिशा में ही हो रहा होता। मजबूरी या मुसीबत में पड़ोसी ही काम आता है सो भोपाल ने यह भार उठा लिया। मन से या बेमन से! आखिर मामला मध्यप्रदेश से ताल्लुक रख रहीं नेता की पसंद का था इसीलिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी तमाम संसाधन झोंक दिए दसवें विश्व हिंदी सम्मेलन को यादगार बनाने में।
यह सम्मेलन यादगार भी सिर्फ इसी मायने में है। क्योंकि मध्यप्रदेश की सरकारी और भारतीय जनता पार्टी की इवेंट मैनेजमेंट टीम (जी हां, यह शब्द भी प्रदेश की हिंदी में शामिल हो चुका है...आयोजनकर्ताओं के लिए)  को बड़े आयोजन सुरूचिपूर्ण ढंग से संपादित करने का तगड़ा अनुभव जो प्राप्त हो चुका है, बीते दस-बारह सालों में। खैर बात हिंदी की...इस आयोजन का उद्घाटन करने 10 सितंबर को भोपाल आ रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सम्मेलन से महज पांच दिन पहले बौद्ध गया में अंग्रेजी में गर्वीला भाषण दिया। ये वही मोदी हैं जिन्होंने विदेशी धरती पर जाकर संयुक्त राष्ट्र महासभा में हिंदी में भाषण देकर वाहवाही लूटी थी। आयोजन समिति की अध्यक्ष सुषमा स्वराज को भी हिंदी के अलावा अंग्रेजी में भाषण देने में आपत्ति नहीं होती। वित्त मंत्री अरूण जेटली को तो हिंदी की तुलना में अंग्रेजी ज्यादा अनुकूलता देती है। बात मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की...उन्हें हिंदी रास आती है...पर, उनके अफसर अंग्रेजी को ज्यादा महत्व देते हैं। यही वजह है कि हिंदी सम्मेलन से पहले भी ठीक उसी प्रकार के "हिंदी सेवा" के निर्देश जारी किये गये जैसे हर साल 'हिंदी पखवाड़ा' से पहले होते हैं। वेबसाइट को हिंदी में भी बनाएं। दुकान के बोर्ड और सड़क संकेतक को हिंदी में भी लिखें आदि इत्यादि....। पर क्या इतने से ही हिंदी सेवा हो जायेगी।
हिंदी को अपनाना है तो दिल से अपनाएं।सच्चे मन से। दिखावे के लिए नहीं। आज हिंदी सम्मेलन के लिए जो संकेतक अंग्रेजी और हिंगलिश से बदल कर हिंदी में लगाये गए हैं। सम्मलेन खत्म होने के बाद उनके बरकरार रहने की चिंता करें। वर्ना सितम्बर खत्म होते होते हिंदी प्रेम भी मानसून की तरह लुप्त हो जाएगा। सारे बोर्ड फिर इंग्लिश में नजर आएंगे। सरकारी फाइलों की तरह, जिनकी भाषा कोई नहीं बदल पाया। अंग्रेजों ने हिंदी बोलने वालों पर राज करने के लिए सिविल सर्वेन्ट्स की फौज खड़ी की थी जो आज भी गुलामी की भाषा को अपना गौरव समझती है। अफसर पुत्र कान्वेंट में शिक्षित होता है और नेता पुत्र भी। इनके लिए अमल की भाषा अलग और वोटबैंक को हांकने की भाषा अलग होती है। जब इतना भेदभाव...इतना परहेज...तो कल्पना कीजिए भला किसका होगा। चीन, जापान से लेकर रूस तक तो दकियानूसी देश हैं जहां के डॉक्टर, इंजीनियर और अफसर उनकी अपनी भाषा में बनते हैं। भारत में तो इम्पोर्टेड लेंग्वेज के बिना कोई डॉक्टर नहीं बन सकता। देशी भाषा पढ़ कर यहां वैद्य, ओझा, हकीम ही तैयार हो सकता है। कोई वैज्ञानिक और विशेषज्ञ नहीं...भले ही ये धरती धनवंतरि और आर्यभट्ट की हो।

सरकारी राष्ट्रभाषा विभाग में उन लोगों को जगह मिलती है जो अपनी बोली और भाषा के साथ हिंदी बोलना, लिखना और पढ़ना सीख गए। ये वही लोग हैं जिन्हें सालाना हिंदी पखवाड़े के दौरान नवाजा जाता है क्योंकि वो हिंदी जानते हैं। मतलब! हिंदी आत्मसात करने की नहीं बल्कि प्रदर्शन की चीज है...विषय वस्तु है। आत्मसात करने की सरकारी और उच्चवर्गीय भाषा तो इंग्लिश ही है। सुना है ठेठ हिंदी भाषी क्षेत्र से चुने जाने वाले देश के एक सर्वोच्च नेता के घर दिन भर इंग्लिश बोलने की अनुमति थी। बस रात्रि के भोजन के समय हिंदी में बात करना अनिवार्य था।खैर ये आयोजन मध्यप्रदेश के जिम्मे आया है तो शानदार आवभगत की जाए अतिथियों की। तीन दिन ही सही हिंदी में बोलने का अभ्यास तो कर ही लें। बाद में तो बनारसी पान भंडार और अंग्रेजी शराब दुकान ही हिंदी में रह जाएगा, क्योंकि इनके ज्यादातर ग्राहक हिंदीभाषी हैं, सम्मेलन में आने वाले गणमान्य विद्वानों की तरह हिंदी सेवी नहीं। जो आम बोलचाल में भी बरतानिया की गुलामी करते हैं। विदेशी भाषा ही उनका मान है। सम्मान है। देशी तो सिर्फ चमड़ी है उनकी। उनके लिए ही तात्या टोपे नगर टीटी नगर हो गया और महाराणा प्रताप नगर एमपी नगर। इन शहीदों को यदि भान होता कि जिनके लिए उन्होंने अपना जीवन न्यौछावर किया वे उनका नाम भी नहीं संभाल सके ...वो इंडियन, हिंदी और  हिंद को क्या संभालेंगे। देव भाषा संस्कृत की भांति विलुप्तता में ही देवनागरी लिपि वाली हिंदी का सम्मान है तो यही सही। चलो इसी बहाने ही गाहे बगाहे हिंदी बोली जाती रहेगी। इसी बहाने लोग कभी कभार कहते रहेंगे हिंदी है हम....!
        

Sunday, August 23, 2015

लालबत्ती : ताबीज वाली गुमटियां..!

लालबत्ती! मतलब...? सड़क पर लालबत्ती का मतलब थांबा...रुको। रेडलाइट एरिया में लालबत्ती का मतलब....! ऐसी जगह जहां शरीफ लोग नहीं जाते! राजनीति में लालबत्ती यानी तमाम भौतिक सुख सुविधाओं का पट्टा।ऐसा रुक्का जो कांच को हीरा बना दे। खाकपति को करोड़पति बना दे। राजनीति में लालबत्ती की इसी महिमा के कारण वह पूजनीय है...वंदनीय है...आदरणीय है और ऐसा वरदान है जिसे हर कोई प्राप्त करना चाहता है।
तो साहब प्रदेश में आजकल लालबत्ती की ही आराधना हो रही है। दसों दिशाओं में एक ही प्रार्थना का स्वर गूंज रहा है। अदनान सामी के युगप्रवर्तक गीत " मुझको भी तू लिफ्ट करा दे...." की तर्ज पर हर उस जीवित देवता को भक्त लोग प्रसन्न करने में जुटे हैं, जो जरा सी भी लिफ्ट करा सकता हो। क्या दोस्त और क्या दुश्मन सब एक ही मिशन पर हैं।क्या इंदौर...क्या मंडला...और क्या सीधी सतना।सब तरफ से चढ़ावा की मनौती के साथ भोपाल और दिल्ली की परिक्रमा लग रही है।
लेकिन, सवाल ये है कि भगवान प्रसन्न कब होंगे। हुए तो किस-किस पर कृपा बरसेगी। यहां के त्रिदेव मान भी गए तो दिल्ली के किसी देवता ने पच्चर फंसा दिया तब? खबर है, सृष्टि के पालनहर्ता से भेंट कर अपने लोक में लौटे सूबे के भगवान भक्तों की भक्ति परखने के लिए ध्यानमग्न हैं। इनके एकांतवास से भक्तों की बेचैनी बढ़ना स्वभाविक है। अबकी बार आस पूरी नहीं हुई तो बाकी के तीन साल भी चप्पलें घिसते घिसते निकल जाएंगे। सो सबकी उम्मीद परवान चढ़ रही हैं।
भगवान की कभी चुप्पी तो कभी आश्वासन का असर ये है कि लालबत्ती बांटने की कुछ नयी दुकानें भी खुल गयी हैं। ठीक किसी सिद्ध स्थल की तरह। भक्तों की मनोकामना पूरी करने के ताबीज और तंत्र मंत्र इन गुमटियों में बिक रहे हैं। कोई अपने प्रभावी संपर्क के दम पर लालबत्ती दिलाने का भरोसा दिला रहा है तो कोई ...सिर्फ मेरा नाम ही काफी है.. का घोष कर रहा है। कुल जमा एक नया उद्योग....एक नयी परंपरा...एक नयी जमावट...वो सब हो रहा है जो ऐसे भ्रम के काल में होना चाहिए।
बात लालबत्ती की। तो जो संविधान की शपथ लेकर लालबत्ती पर सवार हैं वो भी डरे सहमे हैं। उनका भयादोहन करने वाले सक्रिय। जो मंत्री, राज्यमंत्री बनने का खुद को दावेदार मान रहे है वो हों... या फिर मनोनयन के जरिये सरकार के लिए सफेद हाथी साबित होने वाले किसी सार्वजनिक उपक्रम का आर्थिक बोझ बढ़ाने के तलबगार।सभी का एक ही लक्ष्य है। सभी का एक ही रास्ता है कि चाहे जो भी रास्ता हो लालबत्ती हासिल हो। सो मंदिर पूजे जा रहे। पत्थर पुज रहे। चौक चौराहे और अंग्रेजी के T अक्षर वाले मकान भी पुज रहे। भगवान जल्दी प्रसन्न हों और सबकी मनोकामना पूरी करें। और देर की तो पता नहीं सत्ता के गलियारों के कितने और आसाराम तथा राधे मां पुजने लगेंगे। सरकार, भक्तों को पाखण्डियों से बचाना है तो प्रसाद वितरण में अब विलंब नहीं होना चाहिए। वर्ना...!

Saturday, April 25, 2015

भूकंप: झटके का बूमरैंग !




वैशाख, शुक्ल पक्ष, सप्तमी, संवत 2072...पूर्वान्ह 11.40 का समय। मध्यप्रदेश के ऐतिहासिक राज्य मंत्रालय वल्लभ भवन की पांचवी मंजिल पर स्थित वातानुकूलित कक्ष में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सिंचाई मंत्री जयंत मलैया और आला अधिकारियों के साथ जलसंसाधन विभाग की समीक्षा कर रहे थे....अचानक मेज पर रखी फाइलें और नाश्ते की प्लेट हिलने लगी। सीएम समेत बैठक में मौजूद सभी लोगों की भी कुर्सी हिलती नजर आई...शिवराज ने स्वीकार भी किया कि उनकी कुर्सी हिलने लगी थी। ये  हलचल कुछ सेकंड ही रही...लेकिन दहशत...! दहशत तो दोपहर बाद तक तारी रही। दहशत ऐसी कि मुख्यमंत्री समेत तमाम अधिकारी सीढ़ियों से लगभग दौड़ते हुए पांच मंजिल नीचे उतरे। प्रदेश का आपदा प्रबंध विभाग भले ही नाकारा हो, लेकिन उसने आला अधिकारियों को सालाना प्रशिक्षण में इतना तो सिखा दिया है कि वे दूसरों की जान भले न बचा सकें...अपनी जान बचाने के उपाय क्या हैं। सो, अफसरों ने सूबे के वजीरे आजम को भी लिफ्ट के बजाए आपदा की घड़ी में सीढ़ियों का प्रयोग करने को विवश कर दिया।
जान बची सो लाखों पाए....। मंत्रालय का नजारा कुछ ऐसा ही था। चारों तरफ भगदड़...सामान्य प्रशासन विभाग का एक बाबू बड़े गर्व से बता रहा था कि वो लिफ्ट से ऊपर जा रहा था और सीढ़ियों से उतरते मुख्यमंत्री ने उससे कहा कि ऊपर कहां जा रहे हो। हम बेवकूफ हैं क्या जो नीचे जा रहे हैं....भूकंप आया है। बेवकूफी वाली बात पर जोर देकर पूछने पर उसने स्पष्ट किया कि ये मुख्यमंत्री के शब्द नहीं थे...लेकिन इशारा कुछ ऐसा ही था। गृह विभाग के एक कर्मचारी की आपबीती सुनिए....मेरा कम्प्यूटर खुला था और अचानक स्क्रीन पर शब्द टाइप होने लगे! चौथी मंजिल पर बैठे एक अन्य कर्मचारी की टेबल हिल गई। जितने मुंह उतनी बातें। हर किसी का अपना अनुभव। आमतौर पर मंत्रालय आकर भी छुट्टी के मूड में रहने वाले कर्मचारियों को आज की आधे दिन की छुट्टी रास नहीं आई। वे सधे हुए अंदाज में मीडिया वालों को अपने-अपने अनुभव सुनाते रहे। अंदर का सच ये है कि यहां किसी को खरोंच तक नहीं आई। आती भी कैसे? एक तो भोपाल में झटके हल्के थे, दूसरे मंत्रालय की इमारत बूढ़ी भले होने लगी हो पर उसकी बुनियाद इतनी मजबूत है कि वहां बैठने वाले आसानी से नहीं हिलते।
भूकंप केवल मंत्रालय में ही नहीं आया था। उसका केंद्र तो नेपाल में था लेकिन झटके वल्लभ भवन और सतपुड़ा एवं विंध्याचल भवन में ही नहीं आए। झटके हर उस व्यक्ति या संस्था के पास आए जो थोड़ा भी पापुलर था। सभी अपना अनुभव बयां करना चाहते थे।
भूगर्भीय हलचल से आए इन झटकों के अलावा प्रदेश में एक और झटका आया हुआ है। आगामी 29 नवंबर को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर दस साल पूरे करने जा रहे शिवराज को व्यापमं मामले में आरोपों के झटके दे रहे दिग्विजय सिंह को भूकंपीय झटके से ठीक एक दिन पहले जोर का झटका लगा है। जिस पेन ड्राइव और एक्सलशीट की मिरर इमेज के दम पर वे शिवराज को हटाने की मुहिम में जुटे थे। उनके वे हथियार। वो पेन ड्राइव और एक्सलशीट फर्जी करार दी गई। उसी एसआईटी ने इसे नकली, भ्रामक माना है, जिसके सामने दिग्विजय ने शपथपत्र के साथ ये प्रमाण प्रस्तुत किए थे। हालांकि हाईकोर्ट का फैसला 'मिस्टर एक्स' के मामले में था, जो दिग्विजय सिंह का वही सूत्र है जिसने ये प्रमाण उन्हे मुहैया कराए थे। झटके का बूमरैंग होना क्या असर दिखाएगा ? किस-किस पर असर होगा ? कहानी में अब नया ट्विस्ट क्या आएगा ? ये तो मैं समय हूं....कहने वाला महाभारत सीरियल का पर्दे के पीछे का पात्र या वो संजय भी नहीं बता सकता, जिसने धृतराष्ट्र को महाभारत का आंखों देखा हाल सुनाया था....लेकिन दिग्विजय को लगे झटके का जश्न बीजेपी ने मनाना शुरू कर दिया है....मिठाई और बयानों के दौर चल रहे हैं....अपना-अपना भाग्य है किसी के हिस्से मिठास और किसी के कसक। मिठास और कसक का ये खेल कब तक चलेगा ...ये भी समय ही बताएगा। तभी तो बड़े बुजुर्ग कह गए हैं....समय होत बलवान।

Monday, April 20, 2015

काकी : एक अमृतधारा

क्वांर करेला, कातिक मही...चैते गुड़, बैसाखे तेल....। कल ही की तो बात है। मुनमुन रात में दही खा रही थी। पिताजी ने टोका बेगुन भोजन नहीं करते। इसके साथ ही "काकी" से अपने बचपन में कई बार सुना हुआ ये कवित्त उन्होंने सुनाया...

चैते गुड, वैसाखे तेल,
जेठे केंथ, अषाडै बेल;
साउन साग, भादौं दही,
क्वांर करेला, कातिक मही;
अगहन जीरा, पूसै धना,
माघै मिसरी, फागुन चना;
जो यह बारह देई बचाय,
ता घर वैद कभऊं नइं जाए!!
बच्चों के लिए ये कोई ओल्ड एज 'रैपर' था। यो यो हनी सिंह और मीका सिंह के फॉलोअर्स के लिए ये किसी और दुनिया का गीत था। आश्चर्य से आंखें फाड़ पिताजी को देख रही मुनमुन शायद यही बोलना चाहती थी।  
खैर बात काकी की....काकी यानी पिताजी की चाची मां। सिंगारदान कहें या मसालदानी की तरह गुणवान। अक्षर ज्ञान में जीरो, क्योंकि उनके जमाने में लड़कियों के स्कूल जाने का चलन नहीं था। पर ज्ञान में उन पर कोई इक्कीस तो क्या... बीस भी नहीं पड़ा। काकी हमारे लिए सदैव कौतूहल का विषय रहीं....नेत्रज्योति जाने के बाद भी जैसे दीवार पर टंगी घड़ी उनसे ही पूछ कर समय बताती थी। दिन हो या रात....काकी ने कहा इतने बजे होंगे तो उतने ही बजे की सुईयां दिखतीं....पांच- दस मिनट का हेरफेर हो जाए, लेकिन घंटे की सुई तो मानो उनकी गुलाम ही थी।बचपने में जब गांव जाते... गर्मियों की रात में आसमान के तारे देख टाइम बताना भी हमारे लिए अबूझ पहेली था, लेकिन काकी के लिए तो ये सब सहज ज्ञान... सामान्य सी रोज की दिनचर्या का हिस्सा।
दुबली पतली इकहरी काकी खाने में पथ्य अपथ्य को लेकर जो छंद और कवित्त सुनातीं उन पर अमल भी खूब करतीं थीं...क्या खाना है, कैसे खाना है और कब खाना है। ये उनको देख कर सीखा जा सकता था। रसोई गैस के चूल्हे की रोटी पेट के लिए अच्छी नहीं सो शहर मे चूल्हे की भरपाई कोयले की सिगड़ी पर मिट्टी का तवा लगा कर कराती थीं। टीकमगढ़ के किले में राजपरिवार की राजकुमारियों के साथ पली बढ़ी काकी का राजसी लहंगा आज भी उनके सुनहरे दिनों की आभा बयां करता है। लेकिन मिट्टी से उनका लगाव भी ऐसा था कि लोहिया तवे की जगह माटी का तवा....कढ़ी बनाने के लिए माटी की हांडी और सब्जी छौेकने माटी की कढ़ाई ....इससे पकी उनकी रसोई का स्वाद ही अलग था...यही वजह रही कि मंदिर मे भोग के लिए भोजन उनकी रसोई से ही जाता था। और हां, नेत्रज्योति जाने के बाद भी हमने उन्हें रोटी सेंकते देखा है...वो सब्जी काटना, भाजी को साफ करना ही नहीं...चावल से कंकड़ बीनने का काम भी अपने मन की आंखों से इतनी बखूबी कर लेती थीं कि कोई एक कंकड़ भी खोज कर नहीं निकाल सकता था..उनके हाथों साफ हुए चावल में से। ऐसी थी हमारी काकी....यादें इतनी हैं कि लिखना और कहना मुश्किल। हवा के चलने और उसकी गंध से पानी बरसने का दिन और समय भी भला बता सकता है कोई ! काकी के लिए यह भी सामान्य ज्ञान था। पानी किस दिशा से आएगा...आज आएगा या दो दिन बाद। कितने दिन तक गिरेगा।
 काकी की पाककला हो या किसी काम को करने का हुनर...बेजोड़ था।उनके पास एक ऐसी संदूकची भी थी जिसमें कई मर्ज की दवा कैद रहती थी। घर परिवार या गांव का कोई बीमार पड़े तो काकी की संदूकची से ही आराम पाता था। काकी तो नहीं रहीं पर उनकी यह संदूकची आज भी गांव के हमारे घर के किसी कोने में विराजमान है...शायद अलमारी में या ताक में। अमृतधारा पर तो जैसे काकी का पेटेंट ही था। काग लगी छोटी सी शीशी में बिसलरी की तरह साफ इस लिक्विड की डिमांड भी खूब रहती थी। अजवाइन का सत, पिपरमेंट और कपूर की समान मात्रा को बोतल में भर कर तैयार इस दवा के आगे झंडू बाम और अमृतांजन भी फेल थे। सिर दर्द, पेट दर्द, बिच्छू या किसी कीड़े के काटने पर, उल्टी दस्त से लेकर हैजा तक का प्राथमिक या पूर्ण उपचार थी ये अमृतधारा ( बाबा रामदेव के पतंजलि के प्रोडक्ट्स लिस्ट में भी ये शामिल है)। ये नुस्खा याद इसलिए है कि बिलासपुर आने के बाद एक बार उन्होंने अमृतधारा मुझसे ही बनवाई थी और अजवाइन का सत परचून के साथ जड़ी-बूटी बेचने वाली शहर की नामी अमरनाथ की दुकान पर पहली बार देखा था। सारा सामान जोड़ कर भी आश्चर्य होता था कि बिना पानी मिलाए ये लिक्विड कैसे बनेगा? पर, शीशी ने धूप की गर्मी देखी या काकी का जादू जो सब पिघल कर बन गया अमृतधारा...
 काकी की खूबियां क्या गिनाएं। सैकड़ों बीमारी के नुस्खे उन्हें मुंहजुबानी याद थे। पेट में मरोड़ हो तो भुनी अजवाईन चबा लो...तलवे में जलन तो नाखून पर चूना लगा लो...पता नहीं क्या सिस्टम था...पर असर तो होता था। नफासत से रहना। नफासत से भोजन ( खाना कहने पर प्रतिबंध था) पकाना वह भी मौसम के अनुसार। लेकिन काकी का जादू केवल घड़ी या चूल्हे पर ही नहीं चलता था। किस्से कहानियों से जीवन जीने के तरीके सिखाने वाली काकी पर पंचांग भी मेहरबान था। आज कौन सा दिन है....प्रदोष किस दिन आएगा.... होली या दीवाली कब की है...ऐसे सभी तीज-त्योहार कब आएंगे ये पहले वो बतातीं फिर पंचांग या कैलेंडर से दिखवा कर अपनी जानकारी को क्रासचेक करतीं। अधिमास आएगा या दिन छोटे अथवा बड़े होने लगे। सब काकी को ज्ञात था, वो भी स्कूल जाए बिना। यादों के किस्से सुनाते हुए उन्होंने हमें ये कभी नहीं बताया कि भैया यानि उनके इकलौते बेटे और हमारे पिताजी को पढ़ाने के लिए वे दिन भर स्कूल के बाहर भी बैठी हैं। रात में भैया के पढ़ने के दौरान उनके साथ सारी सारी रात लालटेन और चिमनी रोशन करती रही हैं...क्योंकि तब रौशनी के साधन यही थे।  राजघराने से लेकर गांव और गांव से शहर के सफर में काकी ने हम बच्चों को भी वैसे ही पढ़ाने की कोशिश की थी। बुढ़ापे में वो हमारे साथ अ, आ, इ, ई... लिखना सीखतीं और हम हंसते कि दादी आप पढ़ी लिखी नहीं हो...पर क्या पता था कि काकी ने जो पढ़ाई की थी वह चार-चार डिग्रियां हासिल करने के बावजूद आज तक हम नहीं कर पाए...किस्से कहानी में बताए गए जीवन के नुस्खे याद नहीं रख पाए...और तो और उनका सिखाया ये कवित्त भी याद नहीं रख सके कि...क्वांर करेला...कातिक मही...। अलमारी में भुला दी गई... सालों से बंद पड़ी काकी की संदूकची की तरह ही उनकी सीख और नुस्खों को भी हम भुला बैठे। आज महसूस हो रहा है कि काकी कितनी गुणी थीं और हम मुफ्त मिलते उनके गुणों की कदर नहीं कर पाए। काकी के जाने के साथ ही हमारे घर से दादी का वो खजाना भी चला गया....वो विरासत...वो अमृतधारा चली गई....जो उन्हें उनकी दादी से मिली थी।


Friday, April 17, 2015

काली ओ काली...

काली, जी हां! यही नाम था उसका। कभी वह अपने नाम के अनुरूप ही कोयले की तरह काली थी...लेकिन उसके ऊपर झलकती सफेदी चुगली करने लगी थी कि अब वह काली नहीं रही....अब वो बूढ़ी हो गई है...और अचानक एक दिन काली गायब! उसका कोई पता ठिकाना नहीं मिला...आज तक कोई सुराग नहीं दिया काली ने...

काली की आज याद आने का एक कारण उज्जैन में होने वाला सिंहस्थ भी है...2004 सिंहस्थ के पहले शाही स्नान के दिन 13 अप्रेल को ही तो वह चार माह बाद घर लौटी थी...काली से नाराज होकर हमारे घर के ही कुछ सदस्य उसे कार में बिठा कर ले गए और 35-40 किमी दूर एक गांव में छोड़ आए थे। इधर कुंभ में नम: शिवाय करते हुए डुबकी लगा कर निकले और उधर घर से फोन आया कि काली आ गई है....पिताजी का हुक्म हुआ आ गई तो स्वागत करो...खोल दो गेट। काली ने आमद की सूचना कॉलबेल बजा कर नहीं दी थी...वह कॉलबेल बजा भी नहीं सकती थी। उसने लोहे के बड़े गेट को झिंझोड़ कर वो कोहराम मचाया था कि घर पर जो लोग मौजूद थे उनका भी कलेजा मुंह को आ गया था। ये तो उसके आमद की सूचना देने का तरीका था। वर्ना हमारे घर का गेट उसे कभी रोक नहीं पाया। गेट की डिजाइनदार जाली में बने सूराख के अनुपात में अपने शरीर को सिकोड़ कर..नया आकार देकर वह बेखटेक प्रवेश किया करती थी...इस सूराख में बांधे गए लोहे के तार भी वह अपने दांतों से पता नहीं कैसे कतर डालती...ये रहस्य आज तक नहीं समझ पाया कि काली आखिर ऐसा कर कैसे लेती थी। जब वो मिली तो इतनी शिकायतें अपनी जुबान में कर डालीं कि ऐसा लगा यदि वो हमारी भाषा में बोल पाती तो सबके गुनाह गिनाकर सभी को सजा दिलवाती...पर वो आई...उसने सबसे लिपट कर खुशी जताई और कालापानी देने वालों को भी माफ कर दिया। ये और बात है कि हमारे बागीचे से फूल चोरी करने वालों को वो कभी माफ नहीं कर पाई।
काली आखिर 'काली' क्यों थी...? एक शाम घर के दरवाजे पर बैठे दादाजी अपने चलना सीख रहे पोते-पोतियों को खिला रहे थे कि एक नन्हीं सी काली को बच्चों के पास धकेल कर काली की ही तरह काली उसकी मां न जाने कहां से आई और न जाने कहां गायब हो गई। बच्चों को खिलौना मिल गया और काली को नाम के साथ ठौर। वो कब पालतू हो गई पता ही नहीं चला...बीच-बीच में उसकी मां आती उसे दुलारती सहलाती और गायब हो जाती। काली जब खुद मां बनने वाली थी तब उसकी मां लगातार हमारे बागीचे में दिखने लगी और जब काली के नन्हें नन्हें चार बच्चे हुए, उनके साथ काली की मां भी खेलती...लेकिन जैसे आती थी वैसे ही चली जाती...पूरा कुनबा पीछे छोड़ कर। दिन बीते साल बीते काली के बच्चे बंटते रहे..मरते रहे...काली जस की तस घर पर मौजूद रही। टेलीविजन पर चलते प्रोग्राम देखती...कोई न हो तो सोफे पर बैठती और जब सब सामने हों दुलार पाने के लिए पैरों के पास लोटती काली...आदत बन गई। ऐसी आदत कि घर में कभी सेंट्रल ल़ॉक भी लगवाना है इस बारे में सोचने की जहमत नहीं उठानी पड़ी। घर से बाहर जाना हो तो काली को गेट के भीतर करो और बेखटेक घंटों घूम आओ। न कभी ज्यादा भोजन की चाह और न कभी सामने रखी थाली में मुंह मारने की ललक। काली पता नहीं कैसे इतनी समझदार थी कि उसे श्वान कहने से पहले सोचना पड़ता था। एक और मौका ऐसा आया कि किसी घर के सदस्य ने उसे डंडा मार भगा दिया। बस वो दिन था कि काली आधा किमी दूर के एक और घर के सामने की वासी हो गई। उसे मना कर लाने की तमाम कोशिशें बेकार। वो मानी तब जब घर के मुखिया ने जाकर फटकार लगाई और वापस आने को कहा। सच में कुत्ते भी इतने स्वाभिमानी हो सकते हैं? जब इंसान का स्वाभिमान न बचा हो। खैर काली तो काली थी...सफेदी बढ़ने के साथ उसकी भूख भी बढ़ गई। अब वो अपने उन्हीं बच्चों के हिस्से की रोटी छीन कर खा जाती थी...कभी जिनके लिए अपनी रोटी बचा कर रखती थी...बीमार हो तो बिना नखरे इंजेक्शन लगवाने वाली काली बुढ़ापे में बाहर कम और घर के भीतर अधिक रहना चाहती थी...कूलर की हवा...बैठने के लिए आसन...नर्म रोटी...उसकी फरमाईशें बताई नहीं जाती थीं...जतलाई जातीं थीं। घर आने वाले मेहमानों के बीच चर्चा का विषय हो गई थी वह। एक देशी नस्ल के सड़क छाप कुत्ते पर घर के हर सदस्य के पास कहने के लिए हमेशा कुछ न कुछ नया रहता था। आज अगले साल होने वाले सिंहस्थ को लेकर कार्यक्मों का सिलसिला शुरू हो रहा है...और शाही स्नान के दिन घर वापसी करने वाली काली फिर याद आ गई....सिंहस्थ नहाने जाना है...काली नहीं है ना..इसलिए घर पर सेंट्रल लॉकिंग सिस्टम भी लगवाना है...ये खर्चा भी काली की देन है....उसके रहते जो चैन की नींद आती थी वह उसके जाने के बाद कई रातों तक नहीं आई....कोई खटका हो तो उसका भी दोष काली के सिर..."कहां मर गई"...वो रहती थी तो भरोसा रहता था। इतने भरोसे की काली...अपनी उम्र पूरी कर चुकी काली...एक दिन बिना कुछ संकेत दिए कहीं चली गई। खोज की गई...इंतजार किया गया...उसको नहीं आना था सो वह नहीं आई, कहीं दिखी भी नहीं....पिताजी ने कहा यही प्रकृति का नियम है। जानवरों को मौत का पूर्वाभास हो जाता है। मौत आने पर वे आबादी से दूर चले जाते हैं। वह भी दूर चली गई, इतनी दूर कि अब मेहमान उसके बारे में पूछते हैं तो काली को याद करना पड़ता है। सिंहस्थ की हलचल में वह याद आती है....काली..ओ..काली... अनुसुनी होते-होते, रात घिरते ही घर के बाहर गूंजने वाली ये आवाज भी अब बंद हो गई है।

अशोक, तुम्हारे हत्यारे हम हैं...

अशोक से खरीदा गया वो आखिरी पेन आज हाथ में है, लेकिन उससे कुछ लिखने का मन नहीं है। अशोक... जिसे कोई शोक न हो। यही सोच कर नामकरण किया होगा उसक...