Monday, November 26, 2018

तो क्या कर्जमाफी बनेगी गले की फांस?


खेती को लाभ का धंधा बनाएंगे....किसानों की आय को तीन साल में दोगुना करेंगे...किसानों को शून्य प्रतिशत ब्याज पर कर्ज...ब्याज समाधान योजना...संबल योजना में पांच एकड़ तक जमीन वाले किसान को शामिल करना...आदि, इत्यादि ढेरों किसान हितैषी योजनाओं और घोषणाओं पर क्या कांग्रेस की एक घोषणा कर्जमाफी भारी पड़ गई है? चुनाव प्रचार के अंतिम दो दिनों में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के भाषण इसकी चुगली कर रहे हैं कि कर्जमाफी का इतना अंडर करंट कहीं न कहीं तो है, जो भाजपा को अब डरा रहा है।
डर का कारण है छत्तीसगढ़ से आती हवा। कांग्रेस ने छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव के अपने घोषणापत्र में भी किसानों का कर्जा दस दिन के भीतर माफ करने और धान का समर्थन मूल्य बढ़ाने का वादा किया है। इस घोषणा का असर यह हुआ कि समर्थन मूल्य पर धान खरीदी केंद्र तो सजे हुए हैं, लेकिन किसान धान बेचने नहीं आ रहे। उन्हें इंतजार है 11 दिसंबर का, जब चुनाव परिणाम आएंगे। उम्मीद है कि कांग्रेस की सरकार बनी तो वे अपनी धान का ज्यादा दाम अर्जित करेंगे।

पड़ोस के चूल्हे की सुगंध अपने आंगन में महकने जैसा मामला बनता देख भाजपा चौकन्नी हो गई है। फिर यह तो सुगंधित चावल के लिए मशहूर धान के कटोरे से उठी बयार है तो सतर्क होना जरूरी भी है। इसीलिए शिवराज सिंह चौहान ने रविवार से अपने भाषण का टोन और ट्रैक बदल लिया है। अब कांग्रेस द्वारा कर्जमाफी की घोषणा को पंजाब और कर्नाटक के संदर्भ में मजाक बनाने से ज्यादा तवज्जो वे किसानों को भांति-भांति की योजनाओं से कर्जमुक्त करने का भरोसा दिलाने में कर रहे हैं। उन्हें बार-बार याद दिलाना पड़ रहा है कि वे खुद किसान के बेटे हैं और कर्ज का बोझ किसान को किसान को किस हद तक विचलित करता है उसे अच्छी तरह समझते हैं। किसानों को उनके पसीने की भरपूर कीमत दिलाएंगे, जिससे कर्ज का बोझ उन पर कभी नहीं रहेगा। जितना बोनस बड़े किसानों को दिया जा रहा, उतना ही बोनस छोटे किसानों को भी एवरेज के हिसाब से दिया जाएगा। प्रदेश के किसानों को कर्जदार नहीं रहने देंगे। डिफॉल्टर किसान के लिए समाधान योजना के अलावा ऐसे उपाय करेंगे, जिससे वे कर्जमुक्त हो सकें। शिवराज इसके साथ ही यह कहना भी नहीं चूकते कि कांग्रेस ने फूटी कौड़ी तक किसानों को नहीं दी, बोनस दूर की बात है। कांग्रेस अध्यक्ष 10 दिन में यह कर देंगे, वह कर देंगे बोलते हैं, उनसे बोलो चंदा मामा तोड़ कर ले आओ, शायद 10 दिन में दे देंगे। कर्नाटक, पंजाब में एक पैसा किसानों का कर्ज माफ नहीं किया।
 कांग्रेस पर चुनावी हमले अपनी जगह। किसानों के कर्ज को लेकर शिवराज की बदली भाषा बताती है कि मंदसौर में पुलिस गोलीकांड के बाद से राजनीति के केंद्र में आए किसानों पर कर्जमाफी का मुद्दा गले की फांस बनता जा रहा है। भाजपा इससे पहले 2008 के विधानसभा चुनाव में अपने घोषणापत्र में कर्जमाफी को शामिल कर मंदसौर के लोकसभा चुनाव में उसका खामियाजा भुगत चुकी है। उस घोषणा से पार पाने के लिए मुख्यमंत्री और सरकार को तब कर्जमाफी को ही अनुपयुक्त बताना पड़ा था। दूसरी ओर कांग्रेस है, जिसके अध्यक्ष राहुल गांधी के मंदसौर की धरती से ही कर्जमाफी का राग छेड़ा था और उसे मध्यप्रदेश के साथ छत्तीसगढ़ और राजस्थान तक ले गए। 

कर्जमाफी कांग्रेस के वचनपत्र का सबसे ज्यादा लुभावना नारा बन गया है। इसीलिए कमलनाथ भी शिवराज सिंह की बदली बोली पर तंज कसने से नहीं चूके। जनसभा से ज्यादा ट्वीटर पर बोलने वाले कमलनाथ ने ट्वीट किया है- जो पिछले 15 वर्ष से खेती को घाटे का धंधा बनाते चले गए... किसानों को कर्ज के दलदल में धकेलते चले गए...हक मांगने पर सीने में गोलियां व लाठियां दागते रहे...कर्ज माफी की मांग पर उनका मजाक उड़ाते रहे...वो चुनाव के दो दिन पूर्व फिर किसान भाइयों को अगले 5 साल के झूठे सपने दिखा रहे है। यह और बात है कि सरकार में होने के कारण शिवराज को किसानों के कर्ज माफ करने के बजाए अन्य उपाय ज्यादा फायदेमंद दिख रहे हैं, क्योंकि खजाने पर इसके असर का आकलन उनके पास है। सरकार बनी तो कांग्रेस को भी इसे लेकर चिंतित होना ही पड़ेगा।





Tuesday, November 20, 2018

राहुल को राफेल तो मोदी-शाह को कांग्रेस के आंतरिक लोकतंत्र की चिंता


एमपी की धरती पर सेट हो रहा है 2019 चुनाव का एजेंडा! 


मध्यप्रदेश सहित चार राज्यों में अभी विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं। इन चुनावों में प्रत्याशी, जिले के नेता, प्रदेश के नेता और राष्ट्रीय नेता तक प्रचार में अपनी आहुति दे रहे हैं। चुनाव में मुद्दा तो इन प्रदेशों का विकास होना चाहिए था, लेकिन दिल्ली से आने वाले नेताओं के एजेंडे पर प्रदेश की समस्याएं और वो मुद्दे नहीं हैं, जो जनता से सीधे जुड़े हैं। मध्यप्रदेश की धरती पर कोई राफेल की डील की कहानी लिख रहा है तो किसी को 133 साल पुरानी कांग्रेस पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र की चिंता सता रही है। नेताओं के यह बोल यूंही नहीं हैं। विधानसभा चुनाव के बहाने वे पांच माह बाद होने वाले आम चुनाव के एजेंडा सेट कर रहे हैं।
बैतूल हो या खातेगांव, वहां के आदिवासी एवं ग्रामीण जनता को कांग्रेस के प्राइवेट लिमिटेड कंपनी

बनने से क्या फर्क पड़ता है? वे तो उम्मीदवार में अपनी समस्याओं को दूर करने की काबिलियत तलाश रहे हैं। फिर भी, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह उन्हें कांग्रेस पार्टी के प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बनने का पाठ पढ़ा गए। शाह ने अपनी चुनावी सभाओं में कांग्रेस के आंतरिक लोकतंत्र की जितनी चिंता की है उतनी बार तो उन्होंने भाजपा प्रत्याशियों को जिताने की अपील भी नहीं की। वे यह स्थापित करने की कोशिश करते दिख रहे हैं कि 133 साल पुरानी गौरवशाली कांग्रेस का इतिहास जैसे कुछ हो ही नहीं। इस पार्टी पर नेहरू-गांधी परिवार का कब्जा होना भाजपा को पाक अधिकृत कश्मीर से भी ज्यादा नुकसानदायक दिख रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कमलनाथ के छिंदवाड़ा में राहुल गांधी पर तंज कसते हैं। वे कहते हैं कि कांग्रेस के नेता कंफ्यूज हो गए हैं और पूरी की पूरी पार्टी फ्यूज हो गई है।

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और उनके परिवार पर भाजपा के शीर्ष नेताओं के यह हमले अकारण नहीं हैं। मई में होने वाले लोकसभा के चुनाव के लिए मुद्दों का लिटमस टेस्ट हो रहा है। पांच साल तक पूर्ण बहुमत से देश चला रही भाजपा को चुनाव मैदान में विरोधी पार्टी के खिलाफ बोलने के लिए कुछ तो चाहिए। कांग्रेस केंद्र तो क्या देश के अधिकांश प्रदेशों में भी सत्ता से बाहर है, ऐसे में उसकी खामियां या गलत नीतियां कैसे गिनाई जा सकती हैं? यूपीए राज से अपने विकास की तुलना को तूल देंगे तो नोटबंदी और जीएसटी के साथ पेट्रोल-डीजल के दाम संकट खड़ा करते हैं। बस इसीलिए कुछ और की तलाश कांग्रेस के आंतरिक लोकतंत्र पर आकर ठहर गई है। आजादी के बाद बने कांग्रेस के कुल 17 अध्यक्षों में से चार राहुल गांधी के पूर्वज हों, यह मुद्दा कांग्रेस के लिए गौरव की बात हो सकती है, लेकिन भाजपा को इसमें ही राहुल की कांग्रेस को कठघरे में खड़ा करने का मटेरियल दिख रहा है। इसीलिए शाह के बयान पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से लेकर मंत्री नरोत्तम मिश्र तक सवाल उठा रहे हैं कि कांग्रेस पार्टी में आंतरिक प्रजातंत्र होना चाहिए या नहीं? क्या प्रधानमंत्री पद भी किसी घराने से चलेगा?
पाक-साफ होने के मोदी और उनकी सरकार के दावे ने ही कांग्रेस और राहुल गांधी को राफेल का सिरा पकड़ाया है। कभी बोफोर्स घोटाले की आंच में जल चुकी कांग्रेस वैसे ही मुद्दे राफेल के बहाने मोदी के झक सफेद कुर्ते की असलियत खोलने को बेताब हैं। राहुल हों या मोदी और शाह, उनके मुद्दे मध्यप्रदेश के मुद्दे नहीं हैं। ये नेता गावों के शत-प्रतिशत ओडीएफ होने के दावे की असलियत नहीं बताते। हर साल बनतीं-उखड़ती सड़कों और रोजगार एवं बेरोजगारी के दावों की सच्चाई पर नहीं जाते, क्योंकि इन मुद्दों पर किए गए दावे आगे चल हर खाते में 15 लाख रुपए का काला धन आने जैसा जुमला साबित हो सकते हैं। इसलिए लोगों के घर में चूल्हा जला या नहीं यह देखने के बजाए विरोधियों के घर में आंतरिक लोकतंत्र है या नहीं यह देखा जा रहा है। राजनीतिक विश्लेषक गिरिजाशंकर कहते हैं कि शुरू से ही भाजपा के लिए मध्यप्रदेश राजनीति की वह प्रयोगशाला रहा है। इसीलिए भाजपा प्रदेश के चुनाव में भी राममंदिर, तीन तलाक, कांग्रेस के आंतरिक लोकतंत्र समेत कई नए मुद्दों का टेस्ट कर रही है।



Monday, November 19, 2018

छिंदवाड़ा यदि विकास का पैमाना है तो गढ़ाकोटा के गोपालजी भी हैं दावेदार

जब से कमलनाथ कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष बने हैं, आदिवासी क्षेत्र छिंदवाड़ा राजनीति का केंद्रबिंदु बनने को बेताब हो गया है। कमलनाथ भी विकास के हर पैमाने पर छिंदवाड़ा को प्रदेश के किसी भी शहर, गांव या जिले से इक्कीस साबित करने का कोई मौका नहीं चूक रहे। यदि किसी एक क्षेत्र विशेष में तीस-चालीस सालों की साध ही समग्र विकास का पैमाना है तो कमलनाथ ही क्यों, गढ़ाकोटा के गोपालजी यानी भाजपा के गोपाल भार्गव भी मुख्यमंत्री पद की इस रेस में मुकाबला कर सकते हैं, और कर भी रहे हैं।
जैसे छिंदवाड़ा का समूचा विकास कमलनाथ की देन है, ठीक उसी प्रकार गढ़ाकोटा की 'सबै भूमि गोपालजी' की है। रहली विधानसभा क्षेत्र में तामीर हुई हर इमारत, पुल, पुलिया से लेकर खेल मैदान और बॉडी बिल्डर
कार्यकर्ता तैयार करने की फैक्ट्री (जिम) तक गोपालजी के नाम पर है। यहां तक कि इस क्षेत्र से कोई युवा पुलिस भर्ती में चुन लिया जाए तो वह भी गोपालजी के जिम की कृपा ही मानी जाती है। मुफ्त भोजनालय से लेकर क्षेत्रवासियों की हर दिक्कत का हल 'गणनायक' से निकलता है। गणनायक में ही अलसुबह तक गोपालजी का नियमित और अनवरत दरबार लगता है। पिछले विधानसभा चुनाव में एक दिन भी वोट मांगने के लिए न निकल कर गोपाल भार्गव ने अनूठा रिकॉर्ड बनाया था। वो पूरे समय घर या गणनायक में ही बैठे रहे और सातवीं बार विधानसभा में पहुंच गए थे। भार्गव के पास एक रिकॉर्ड और है कि वे अकेले ऐसे मंत्री हैं जो बीते 15 साल से लगातार कैबिनेट में शामिल हैं। भले ही इस दौर में तीन मुख्यमंत्री बदल गए हों। बस इसीलिए, उनके क्षेत्र में पोस्टर दिख रहे हैं- 'मंत्री नहीं संतरी है आगामी मुख्यमंत्री है'। भार्गव की यह तमन्ना और वरिष्ठतम मंत्री, अनुभवी, उच्चशिक्षित राजनेता वाले समर्थकों के तर्क चुनावी दांव-पेंच से ज्यादा तब तक कुछ नहीं, जब तक कि उनकी पार्टी बहुमत न हासिल कर ले और विधायक दल अथवा हाईकमान मुख्यमंत्री पद के लिए उनका चयन न कर ले।
बात करें कमलनाथ की तो। सपने वहां भी मुख्यमंत्री पद के ही हैं और मुख्यमंत्री बनने के बाद प्रदेश का कैसा विकास करेंगे इसकी बानगी वे छिंदवाड़ा के विकास से दिखा रहे हैं। छिंदवाड़ा में यस बैंक एवं स्टैण्डर्ड चार्टर्ड बैंक खुल गया है या हनुमान जी की 101 फीट की अलौकिक प्रतिमा बन गई है। गिनती की ट्रेन और मुसाफिरों वाला छिंदवाड़ा रेलवे स्टेशन मॉडल स्टेशन है। यह कमलनाथ और छिंदवाड़ा के साथ प्रदेश के लिए गौरव की बात है, लेकिन इस बात की गारंटी नहीं है कि कमलनाथ मुख्यमंत्री बने तब हर शहर में 101 फीट के हनुमानजी स्थापित हो जाएंगे। हर स्टेशन मॉडल बन जाएगा। यस बैंक और स्टैण्डर्ड चार्टर्ड बैंक की शाखाएं गांव-मोहल्लों तक खुल जाएंगी। छिंदवाड़ा में चल रहे उद्योग और काम-धंधों के लिए इनकी जरूरत हो सकती है इसलिए वहां ये हैं। जरूरी नहीं कि छिंदवाड़ा के सभी गांवों में यस बैंक हो और सरकार बनी तो प्रदेश भर के निपट किसानों वाले गांव में भी विदेशी बैंक की शाखा खुले, जहां किसान का सारा काम सोसायटी या ग्रामीण बैंक से ही चल जाता है। कमलनाथ के संसदीय क्षेत्र के हर गांव या कस्बे में विदेशी बैंक हों यह भी आवश्यक नहीं है। उनका यह कथन तो शो-केस में सजे डिस्प्ले के सामान जैसा है।
 छिंदवाड़ा से चालीस साल के अपने जुड़ाव में कमलनाथ ने विकास की कई उल्लेखनीय सौगातें दी हैं, यह अच्छी बात है। विकास के मामले में छिंदवाड़ा की बुदनी से उनकी तुलना जायज तो है, किंतु ये दोनों स्थान पूरा मध्यप्रदेश नहीं हैं। बस इसीलिए पूरे प्रदेश को छिंदवाड़ा बनाने का उनका सपना और छिंदवाड़ा चैलेंज अतिश्योक्तिपूर्ण लगता है। छिंदवाड़ा में चुनाव प्रचार करने आए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को वहां का विकास मॉडल देखने का न्यौता देना सकारात्मक पहल है, किंतु इसी विकास में मदान्ध होना कतई उचित नहीं है। ठीक ऐसा दावा गढ़ाकोटा को लेकर गोपाल भार्गव कर सकते हैं। खुरई की अपने पांच साल की विधायकी में भूपेंद्र सिंह और दस साल में दतिया के विकास की दुहाई नरोत्तम मिश्र भी कुछ इसी तर्ज पर दे सकते हैं। लंबे समय तक केद्रीय मंत्री रहे कमलनाथ और प्रदेश के मंत्री गोपाल भार्गव भी जानते होंगे कि किसी क्षेत्र की किस्मत न तो सीधे केंद्र सरकार बदल सकती है और न ही अपने दम पर राज्य सरकार। जिन कार्यों को ये नेता गिना रहे हैं उसमें केंद्र और राज्य का पैसा और संसाधन लगा है, तब कहीं जाकर उनके नाम का शिलालेख लग पाया है। पूरे प्रदेश के चुनाव में एक क्षेत्र विशेष की इस ब्रांडिंग से सवाल उठता है कि क्या 50 साल के अपने शासनकाल में कांग्रेस ने प्रदेश के विकास का कोई ऐसा काम नहीं किया, जिसका जिक्र कर सके। क्या दस साल की दिग्विजय सरकार की भी कोई उल्लेखनीय उपलब्धि नहीं है, जिसका बखान कर पूरे प्रदेश को 15 साल के भाजपा-राज को आईना दिखाया जा सके? 



Sunday, November 18, 2018

साले संजय सिंह को हराने वोट मांगेंगे शिवराज



 सूबे की चुनावी जंग का सबसे रोचक मुकाबला 21 नवंबर को वारासिवनी में

 योगी आदित्यनाथ और उमा भारती के साथ अमित शाह भी ठोकेंगे ताल


विधानसभा चुनाव में प्रचार का सबसे रोचक मुकाबला 21 नवंबर को होने जा रहा है, जब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पहली बार अपने साले संजय सिंह मसानी के खिलाफ जनता के बीच जाकर बोलेंगे। इस दौरे में शिवराज के साथ उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी होंगे। अभी तक संजय के मामले में खामोश रहे चौहान अपनी इस सभा में उनको हराने और भाजपा प्रत्याशी को जिताने की अपील करेंगे।
चुनाव प्रचार के दौरान हेलीकॉप्टर में घर से आया भोजन करते शिवराज
मुख्यमंत्री के करीबी रहे उनके साले संजय सिंह मसानी बालाघाट जिले की वारासिवनी सीट के भाजपा का टिकट चाहते थे, पार्टी ने उन्हें प्रत्याशी नहीं बनाया तो वे कांग्रेस में शामिल हो गए और प्रदेश को शिवराज नहीं कमलनाथ जैसे मुख्यमंत्री की जरूरत है कह कर राजनीतिक सनसनी मचा दी थी। कांग्रेस ने भी उनके इस त्याग को ध्यान में रख कर अपने दमदार प्रत्याशी और पूर्व विधायक एवं पूर्व जिलाध्यक्ष प्रदीप जायसवाल को अनदेखा कर संजय को उम्मीदवार बनाया। अब वारासिवनी में संजय अपनी जीत के साथ राजनीतिक जमीन तलाश रहे हैं। इस क्षेत्र में लंबे समय से सक्रिय रहे संजय के कांग्रेस से चुनाव लडऩे के कारण भाजपा प्रत्याशी डा. योगेंद्र निर्मल भी मुश्किल में फंस गए हैं।

मुख्यमंत्री हाल ही में 15 नवंबर को बालाघाट जिले की तीन विधानसभा सीट परसवाड़ा, कटंगी और लांजी में चुनावी सभाएं ले चुके हैं। लोगों को उम्मीद थी कि उनकी जिले की पहली चुनावी सभा वारासिवनी में भाजपा और शिवराज को निशाने पर रख रहे संजय के खिलाफ होगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जिले के वारासिवनी मे सीएम की डिमांड आने के बाद अब 21 नवंबर को मुख्यमंत्री अपने साले के खिलाफ चुनाव प्रचार के लिए पहुंच रहे हैं। इस क्षेत्र में पार्टी उनके साथ यूपी सीएम योगी आदित्यनाथ को भी उतार रही है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह भी 23 तारीख को बालाघाट में सभा लेकर जिले की सभी छह सीटों पर पार्टी प्रत्याशियों को जिताने की अपील करेंगे। इतना ही नहीं केंद्रीय मंत्री उमा भारती को लोधी मतदाताओं के प्रभाव वाले इस क्षेत्र में उतारा जाएगा।
चतुष्कोणीय मुकाबले में वारासिवनी
दस उम्मीदवार वाली वारासिवनी सीट पर मुकाबला चतुष्कोणीय हो गया है। भाजपा विधायक और प्रत्याशी योगेंद्र निर्मल के खिलाफ पार्टी के बागी युवा नेता गौरव पारधी हैं तो कांग्रेस प्रत्याशी संजय सिंह की मुश्किल पूर्व विधायक और जिलाध्यक्ष प्रदीप जायसवाल मैदान में निर्दलीय उतर कर बढ़ा रहे हैं।  


Saturday, November 17, 2018

एमपी की तरक्की का अपना-अपना चश्मा


               मोदी को दिखी मैक्सिमम प्रोग्रेस तो नाथ को मिनिमम विकास

विधानसभा चुनाव अभियान पर मध्यप्रदेश आए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक और जुमला पटक दिया है। अंग्रेजी और हिंदी शब्दों की बाजीगरी की अपनी कला का उम्दा प्रदर्शन करते हुए उन्होंने मध्यप्रदेश का नया अर्थ लोगों को बताया है- मैक्सिमम प्रोग्रेस। मैक्सिमम प्रोग्रेस यानी अधिकतम उन्नति। मध्यप्रदेश के इस नए शब्द संस्कार के साथ नरेंद्र मोदी ने चुनाव प्रचार को एक बार फिर विकास के उस मुद्दे की तरफ मोडऩे की कोशिश की है, जिसके सहारे वे 2019 आमचुनाव की वैतरणी पार करना चाहते हैं।
 अभी तक भाजपा के प्रचार के केंद्र में 'महाराजथे तो कांग्रेस के मुद्दे 'झूठे वादेऔर 'गुस्साआधारित रहे। मोदी के मैक्सिमम के जवाब में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ ने मध्यप्रदेश का नया अर्थ बताया है- भाजपा राज में मिनिमम (न्यूनतम) प्रोग्रेस। मोदी कांग्रेस पार्टी को चुनौती देते हुए कहते हैं- 55 साल में कांग्रेस ने मध्य प्रदेश को जितना दिया, हमने 15 साल में उससे कई गुना ज्यादा दिया है। मोदी को 2003 के चुनाव के दौरान सड़क को लेकर भाजपा के लगभग हर बड़े नेता द्वारा सुनाया गया जुमला फिर याद आया कि सड़क देख कर ही पता चल जाता था, मध्यप्रदेश आ गया है। 
 कमलनाथ के तरकश में घोषणाओं, झूठे वादों, अपराध, दुष्कर्म, किसानों की आत्महत्या, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और अवैध उत्खनन में हुई मध्यप्रदेश की मैक्सिमम तरक्की है। कमलनाथ का दावा है कि प्रदेश में विकास की प्रोग्रेस मिनिमम से भी मिनिमम है। 

अधिकतम और न्यूनतम विकास की इस नई बहस में अब एक बार फिर दिग्विजय सिंह सरकार के दौरान की बिजली, सड़क और पानी की स्थिति का खाका सामने आए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। विकास के सपने दिखाती भाजपा के पास गिनाने के लिए भले ही बहुत कुछ हो, कांग्रेस के पास भी कमियां बताने के लिए कम मुद्दे नहीं हैं। सवा सात करोड़ की आबादी और तीन लाख वर्ग किमी से अधिक क्षेत्रफल वाले प्रदेश में महज डेढ़ दशक में कायापलट करने का दावा हजम होने वाला नहीं है। फिर मोदी सरकार के ही नीति आयोग से लेकर विभिन्न एजेंसियों ने कुपोषण, महिला अपराध, विकास के मामले में पिछड़ेपन आदि को लेकर अपनी रिपोर्ट में मध्यप्रदेश की जो स्थिति रेखांकित कर रखी है वह मैक्सिमम प्रोग्रेस के मोदी के दावे से कतई मेल नहीं खाती। मिनिमम प्रोग्रेस का कमलनाथ का तंज भी मुफीद नहीं बैठता है। विकास तो हुआ है। किसी विकासशील राज्य में विकास तो होता ही है, लेकिन उसकी रफ्तार सरकार की मंशा और उपलब्ध संसाधनों पर निर्भर करती है। 
चुनावी दावे और जुमलेबाजी अपनी जगह। मध्यप्रदेश में डेरा जमाए बैठे भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता संबित पात्रा के पास भी विज्ञापन में दिखाई जा रही उस चमचमाती सड़क को लेकर पूछे जाने वाले सवालों के जवाब नहीं हैं, जिसको लेकर कांग्रेस ने आपत्ति दर्ज करा रखी है। यह सड़क किस जिले में है या मध्यप्रदेश से गुजरने वाला कौन सा राष्ट्रीय या राजमार्ग है? सवाल सुनते ही मैक्सिमम बोलने वाले प्रवक्ताजी भी मिनिमम वाइस के साथ इधर-उधर हो जाते हैं।  


Friday, November 16, 2018

कमलनाथ की पाती और संस्कारी कांग्रेस!



विधानसभा चुनाव की तकरार चरम पर आने के साथ प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ की अपने प्रत्याशियों और पार्टीजनों को लिखी गई एक पाती सार्वजनिक हुई है। पाती क्या है, चुनाव प्रचार की कमलनाथ द्वारा तैयार आचार संहिता है। यह आचार संहिता उस दौर में सामने आई जब खुद कमलनाथ जाति और धर्म विशेष को लेकर बंद कमरे में हुई अपनी बातचीत के वायरल होने से मुश्किल में आ गए हैं। वे कांग्रेसियों से उस सनातनी महाभारतकालीन तरीकों से चुनाव लड़ने का आग्रह कर रहे हैं, जिनका प्रयोग कई चुनाव पहले ही बंद हो चुका है।
 कमलनाथ ने अपनी चिट्ठी के जरिए उस स्वच्छ और पवित्र राजनीति को आत्मसात करने की अपील की है, जो आज के दौर में विलुप्त हो चुकी है। नाथ ने कहा है कि कांग्रेस में घृणा फैलाने और दूसरों को अपमानित करने की जगह नहीं है। उन्होंने पार्टीजनों से चुनाव के दौरान छह बिंदुओं पर सतर्कता बरतने को कहा है। ये बिंदु हैं-
  •         कोई भी कांग्रेस नेता धर्म और जाति से संबंधित किसी तरह की बातचीत,भाषण या मीडिया से चर्चा नहीं करेगा। विशेषकर जो धार्मिक, राष्ट्रीय सुरक्षा और संवेदनशील विषय सर्वोच्च
    न्यायालय में लंबित हैं, उन पर किसी तरह की कोई टिप्पणी नहीं की जानी चाहिए।
  •      ज्यों-ज्यों चुनाव की तारीख नजदीक आती जा रही है  कांग्रेस का प्रमुख प्रतिद्वंदी दल भाजपा अपनी हार  सुनिश्चित जानकर तरह-तरह के हथकंडे अपना रहा है, उनसे  सावधान रहें।
  •            किसी भी प्रतिद्वंदी पार्टी के नेताओं पर अनर्गल और असंसदीय या अपमानजनक भाषा में  टिप्पणी नहीं करें।
  •         बिना प्रमाण के कोई भी नेता किसी प्रतिद्वंदी  पार्टी पर आरोप नहीं लगाए।
  •         भाजपा चुनाव में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के  हथकंडे अपना सकती है। कांग्रेस के सभी नेता और कार्यकर्ता जनता के बीच रह कर समाज   को बांटने वाली ताकतों द्वारा फैलाए जाने वाले भ्रम और अफवाहों से मुकाबला करने के लिए तैयार रहें।
  •        यदि किसी तरह के संविधान विरोधी हथकंडे,  दूसरे दलों  द्वारा चुनाव में उपयोग करते देखें   तो तत्काल जिले और प्रदेश के चुनाव अधिकारियों के संज्ञान में लाएं। कांग्रेसजन ऐसी कोई भी गतिविधि न करें जिससे आम जनता या लोगों को असुविधा हो।
कमलनाथ द्वारा दीपावली के मौके पर भेजी गई यह चिट्ठी आज उजागर हुई है। यह खत तब सामने आया है जब एक धर्म विशेष के लोगों के साथ कमराबंद बैठक में कमलनाथ द्वारा कही गई बातों का वीडियो चुनाव आयोग के दरवाजे पर शिकायत के साथ पहुंच चुका है। हालांकि नाथ कैंप का दावा है कि उन्होंने कोई अनर्गल बात नहीं कही थी, वो तो सिर्फ समझाइश दे रहे थे। दूध का जला छाछ भी फूंक कर पीता है वाली स्टाइल में कमलनाथ की कांग्रेसियों से संस्कारी चुनाव लड़ने की यह अपील आरएसएस को लेकर उसके वचनपत्र में कही गई घोषणा को भाजपा द्वारा मनचाहा रुप देकर विवादित करने का भी नतीजा हो सकता है। बहरहाल जब चुनाव में दोनों दलों के बड़े नेता मंच पर बाहें चढ़ा कर एक दूसरे पर कीचड़ उछालने का कोई मौका नहीं चूकते तब कमलनाथ की कांग्रेस संस्कारवान बन कर 2018 की जंग जीतने उतरेगी!
कमलनाथ की इस पाती के बाद तो उनके चालीस सवाल भी बेमानी साबित हो सकते हैं, जिनमें से कुछ तो पुख्ता प्रमाण और जांच रिपोर्ट के बिना ही हुए हैं। शिवराज को घेरने वाली कांग्रेस की व्यापमं से लेकर ई-टेंडरिंग जैसे घोटालों को जनता के बीच उछालने की तैयारी भी बिना प्रमाण प्रतिद्वंदी पर आरोप नहीं लगाने की लक्ष्मणरेखा से बंध जाएगी। जब चुनाव में गाय, गंगाजल और राम मंदिर जैसे मुद्दे उछल रहे हों तब किसी धार्मिक मामले पर नहीं बोलने का प्रतिबंध कायम रख पाना क्या कमलनाथ और कांग्रेस के लिए संभव होगा। भाजपा और शिवराज तो कांग्रेस की हर गलती या बयान का भरपूर चुनावी फायदा लेने के लिए उतारू बैठे ही हैं। शिवराज के निशाने पर रोज कांग्रेस के बयान ही होते हैं। फिर चाहे वो कमलनाथ का महिलाओं को सजावट के फूल बताने वाला बयान हो या धर्म विशेष के लोगों द्वारा कांग्रेस को वोट देने की बात।
कमलनाथ ने उम्मीद जताई है कि उनके नेता और कार्यकर्ता पार्टी के इन निर्देशों का पूरी तरह पालन करेंगे। यानी संस्कारी ढ़ंग से चुनाव लड़ेंगे। कमलनाथ को ध्यान रखना चाहिए कि भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष रहने के दौरान प्रभात झा भी कुछ इसीतरह संस्कारी हुए थे। उन्होंने 40 बिंदुओं का शुचिता फार्मूला दिया था, बाद में आरोप लगे कि खुद अध्यक्ष ने ही शुचिता संस्कार नहीं माने।


Thursday, November 15, 2018

भाजपा: दिग्गजों के पट्ठे और पद-प्रतिष्ठा वाले ही बागी


आम कार्यकर्ता माने, खास बने खटाई का सबब



भाजपा से नाराज जबलपुर उत्तर के निर्दलीय उम्मीदवार धीरज पटैरिया की बगावत समझ में आती है। भाजपा की युवा इकाई के प्रदेश अध्यक्ष रह चुके धीरज पार्टी के घनघोर समर्पित कार्यकर्ता रहे हैं। वे दो चुनाव से टिकट की उम्मीद लगाए चुपचाप बैठे थे, इस बार भी उपेक्षा हुई तो पोखरण होना ही था और हुआ भी। लेकिन, 76 साल की पकी उम्र वाले रामकृष्ण कुसमरिया को क्या कहें? जो 46 साल से जनसंघ और भाजपा के विभिन्न पदों पर सुशोभित रहे। मार्गदर्शक मंडल वाली उमर में बगावत कर कांग्रेस उम्मीदवार बने सरताज सिंह हों, समीक्षा गुप्ता या फिर नरेंद्र सिंह कुशवाह। बागियों की फेहरिस्त में शामिल ज्यादातर नेता वो हैं, जिन्हें पार्टी ने जमकर उपकृत किया है। कुछ तो उन नेताओं के खासमखास हैं, जिन पर महत्वपूर्ण चुनावी जिम्मेदारी है। ऐसे में भाजपाइयों को पूर्व प्रदेश संगठन महामंत्री अरविंद मेनन याद आ रहे हैं, जो पद-प्रतिष्ठा के लाभ एवं हानि का झुनझुना दिखा कर पिछले चुनाव में बागियों को बैठाते थे। मेनन से जो माना वो मीर, जो न माना वो फकीर तक के किस्से उस दौर में चलते थे।
दमोह से बागी रामकृष्ण कुसमरिया बाबाजी को मनाने लगातार दो दिन तक हेलीकॉप्टर से दमोह के चक्कर काटने वाले पोखरण फ्रेम राष्ट्रीय उपाध्यक्ष प्रभात झा ग्वालियर की अपनी समर्थक समीक्षा गुप्ता को क्यों नहीं बैठा पाए? प्रभात का ओज न तो बाबाजी को प्रभावित कर पाया और न ही समीक्षा ही इसकी समीक्षा कर पार्टीहित में निर्णय ले सकीं। भिंड के बागी विधायक नरेंद्र सिंह कुशवाह केंद्रीय मंत्री और प्रदेश चुनाव प्रबंधन समिति के प्रमुख नरेंद्र सिंह तोमर के दरबारी कहे जाते हैं। विधायक राजकुमार मेव हों या पूर्व मंत्री के.एल. अग्रवाल अथवा कोई और बागी। सभी किसी न किसी नेता से सीधे जुड़े हुए हैं। बड़े नेताओं की सरपरस्ती में ही इन्हें पार्टी मे पद और सत्ता का रसूख हासिल हुआ था।
कुसमरिया का पार्टी के लिए योगदान और पार्टी की कुसमरिया को देन देखें। बाबाजी दमोह से लेकर खजुराहो तक से सांसद रहे और क्षेत्र बदल कर चार बार विधायक बने। मंत्री पद पर भी आसीन हुए। पिछला विधानसभा चुनाव बुरी तरह हारे। टिकट बांटने वाली कमेटी के कई बार सदस्य रहे। खुद दूसरे क्षेत्र के टिकट के दावेदार बने और पार्टी के सर्वे में फेल हुए तो दमोह और पथरिया दो-दो विधानसभा क्षेत्रों से निर्दलीय पर्चा भर कर खम ठोक दिया। बागी हुए कुसमरिया भाजपा के उन चुनिंदा 40 स्टार प्रचारकों की सूची में विराजमान हैं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के साथ इस लिस्ट में जगह पाना किसी भी नेता के लिए गौरव की बात होती है।
होशंगाबाद में कांग्रेस के उम्मीदवार बने सरताज सिंह का इतिहास खंगालें, जिनका समूचा राजनीतिक जीवन ही कांग्रेस से लड़ते हुए बीता। साल 1970 में जनसंघ के जिलाध्यक्ष से लेकर नगर पालिका अध्यक्ष, पांच बार सांसद, दो बार विधायक, केंद्रीय मंत्री और प्रदेश सरकार में मंत्री जैसे पद सरताज के ताज में सजते रहे। पंजाबी होने के बावजूद भाजपा और संघ की जमीनी जमावट में उन्हें हर बार नर्मदांचल में जीत हासिल होती रही। भाजपा में ऐसे कई बागी हैं, जिनका वजूद ही पार्टी या बड़े नेताओं से है। जिन्हें दूसरे नेताओं द्वारा खाली की गई जमीन या किसी नेता को खिसका कर वो ओहदा मिला था, जिसके दम पर वे आज पार्टी को आंख दिखा रहे हैं। क्या इस बगावत की जिम्मेदारी अकेले बागियों पर है या फिर उन्हें अब तक प्रश्रय देने वाले भी इसके भागीदार हैं? तात्कालिक नाराजगी में निर्दलीय पर्चा भरने वाले ललित पोरवाल जैसे कुछ नेता तो नाम वापसी के आखिरी दिन तक उम्मीद लगाए बैठे थे कि उन्हें भी मन्नू डागा, गणेशीलाल नायक और रवींद्र अवस्थी की तरह मुख्यमंत्री या किसी बड़े नेता का फोन आ जाए और वो वापसी कर लें। कुछ फोन से माने, कुछ अपने आप बैठ गए और जो खड़े रह गए, वो सब दिग्गजों की आंखों के तारे हैं।
बागी कांग्रेस में भी कम नहीं हैं। भाजपा जैसी समस्या वहां भी है, लेकिन कांग्रेस और भाजपा के चरित्र में खासा अंतर है। भाजपा खुद को अनुशासित कार्यकर्ताओं की फौज बताती है तो कांग्रेस क्षत्रपों और पार्टी से ज्यादा अपने दम पर नेतागिरी करने वालों का दल है, फिर भी वहां भाजपा से तेज कार्रवाई हो रही बागियों पर। 






Wednesday, November 14, 2018

माफ करो महाराज.... गुस्सा आता है

रेडियो के कान उमेठिये या फिर रिमोट पर अंगुली फिराइये...आवाज सुनाई देगी- 'माफ करो महाराज’... 'गुस्सा आता है। यह गुस्सा इस तरह बीते 5 साल में कभी नहीं आया! पिछले 10 साल में भी नहीं। और तो और 15 साल बाद अब जाकर फूटा है, चुनाव की रणभेरी बजने के बाद। आगामी 28 नवंबर को मतदान होते ही रेडियो, समाचार चैनल्स के साथ ही गली-मोहल्लों में चिल्ल-पौं मचाता यह गुस्सा वैसे ही गायब हो जाएगा, जैसे सभी 'सियासी महाराजमहलों में समा जाएंगे।

सवाल यह है कि ये गुस्सा चुनाव में ही क्यों आता है? महाराज से माफी का तीखा स्वर भी अभी ही क्यों गूंज रहा है?  वो भी आगे-पीछे। क्या आज भी मतदाता इतने अशिक्षित हैं, अनभिज्ञ हैं कि उन्हें बताने पर ही पता चलता है कि उनके लिए कोई काम हुआ है या नहीं! क्यों विकसित के बाद प्रचार में समृद्ध होते मध्यप्रदेश के मंदसौर बस अड्डे पर चमचमाती बस के सामने खड़ा आदमी पूछ रहा है कि उसे वॉशिंगटन से अच्छी सड़क वाले मध्यप्रदेश में जाना है? क्यों महाराज कभी एक परिवार की सेवा में व्यस्त थे! चांदी के बर्तन में भोजन कर रहे थे तब केंद्र सरकार से पैसा लाने शिवराज दिल्ली जा रहे थे? विज्ञापन को देख सवाल कौंधता है- इस घटनाक्रम के समय की यूपीए सरकार तो कांग्रेस की ही थी, फिर क्यों पैसा दे रही थी शिवराज को?  चंद सेकंड के चुनावी जिंगल और विज्ञापन ऐसे अनगिनत सवाल वैसे ही छोड़ रहे हैं, जैसे कोई ईवीएम वोटों का हिसाब खोलती है, तब लोग आश्चर्यमिश्रित गुस्सा करते हैं कि इतने वोट जीतने वाले को कैसे मिल गए! लोग इस बात पर भी विस्मित नहीं हैं कि विज्ञापन वाली सरकार के खिलाफ उपजा यह गुस्सा विज्ञापन में ही क्यों झलक रहा है।  

 गुस्सा खराब सड़क पर आया है तो अभी ही क्यों आया?  सड़कें तो कई साल से खस्ताहाल हैं। राजधानी का बदहाल आदर्श मार्ग जेके रोड हो अथवा नालियों की तरह सुबह-शाम जाम होतीं कोलार की सड़कें। इनको लेकर नेताओं को इससे पहले गुस्सा नहीं आया। क्यों किसी खराब सड़क पर नेताओं ने धूनी नहीं रमाई? भोपाल के नाले में बह कर हर साल जान गंवाते बच्चों और युवाओं को लेकर नाराजगी नहीं भड़की! गुस्सा बेरोजगारी पर आया है तो रोजगार की गारंटी 15 क्या 25 साल से किसी ने नहीं दी। छोटी बच्चियों पर पाशविक अत्याचार हो या नारी असुरक्षा, गुस्सा फिर भी सही वक्त पर नहीं आया। इसी गुस्से की देन है कांग्रेस की पंच लाइन- 'वक्त है बदलाव का। गुस्से को रोकने का जतन है- 'सरकार सरकार में फर्क होता है
 कलाकारों की कलाकारी का यह गुस्सा उस गुस्से जैसा नहीं है, जो प्रचार के लिए उतरे उम्मीदवारों और उनके साथियों को झेलना पड़ रहा है। तेरह साल के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की धर्मपत्नी साधना सिंह को उनके ही निर्वाचन क्षेत्र में महिलाओं के सवालों के जवाब नहीं सूझ रहे हैं। मंत्री दीपक जोशी के पास भी मतदाताओं के प्रश्नों के उत्तर नहीं हैं। पंद्रह साल की सरकार और कई बार के विधायकों पर जनता खुद से जुड़े हर उस मुद्दे पर खफा है, जिसकी उम्मीद में उसने वोट दिए थे। आम आदमी का यह गुस्सा एकांगी नहीं है। जनप्रतिनिधि किसी भी दल का हो, उसे गुस्से का सामना करना पड़ रहा है। लोगों का गुस्सा उस विज्ञापन जैसा भी नहीं, जिसमें एक खास पार्टी को वोट देने पर पिता अपने बेटे की पिटाई कर देता है। जनता जानती है कि 'विकास की नई पारी है अब समृद्धि की बारी है.... 'भविष्य का संदेश समृद्ध मध्यप्रदेश’... 'विजन 2023’ जैसे जुमले और टीवी स्क्रीन पर घर बैठी महिला का तमतमाया चेहरा सिर्फ 28 नवंबर तक ही दिखेगा। इसके बाद लोगों को अपना गुस्सा जज्ब करना ही पड़ेगा। इसकी उन्हें आदत भी है। उसे तो इंतजार है वक्त बदलने का और उसके जीवन को एक्सप्रेसवे की तरह बाधामुक्त एवं आसान बनाने वाली सरकार का। 


Tuesday, November 13, 2018

रावत में शेषन का अक्स और भयाक्रांत ब्यूरोक्रेसी !

मुख्य चुनाव आयुक्त ओमप्रकाश रावत 1990-96 के दौर के टी. एन. शेषन तो नहीं ही हैं, लेकिन वो उसी कुर्सी पर आसीन हैं जिस पर बैठ कर कभी शेषन ने चुनाव आयोग का ऐसा चाबुक चलाया था कि आज भी उसकी याद कर राजनीतिक दल सिहर जाते हैं। रावत में शेषन का अक्स देखने की
वजह है मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनाव को लेकर सरकार और सत्ताधारी दल में व्याप्त भय का वातावरण। यह भय नहीं तो और क्या है कि कुछ पॉवरफुल आला अफसर चुनाव के बीच छुट्टी लेकर घर बैठ गए तो नेताओं से दूर-दराज की रिश्तेदारी वालों का भी तबादला कर दिया गया। आयोग से डर इतना है कि विपक्षी पार्टियों की शिकायतों के जवाब में सत्ताधारी दल ने बाकायदा शिकवा-शिकायत सेल खोल रखा है।
इस बार के चुनाव आम विधानसभा के चुनाव नहीं हुए, बल्कि शिकायती उत्सव जैसे हो गए हैं। आयोग ने चुनाव को पाक-साफ बनाने के जितने जतन किए, शिकायतों की भीड़ उतनी ही बढ़ती जा रही है। चुनाव आयोग की फुल बैंच जब पिछली बार मध्यप्रदेश आई थी उस समय भी शिकवा-शिकायतें थीं और अब जब आई है तब भी ये कम नहीं हैं। वोटर लिस्ट की गड़बड़ी से शुरू हुआ मध्यप्रदेश का चुनावी महाभारत अब एक-दूसरे को फंसाने के चक्रव्यूह में तब्दील होता जा रहा है। राजनीतिक दल मतदाताओं के बीच जितना चुनाव लड़ रहे हैं उससे कुछ कम लड़ाई आयोग के दरवाजे पर भी नहीं है। चुनाव गरमाने के बाद कांग्रेस के जे.पी. धनोपिया ही अकेले तीन दर्जन से ज्यादा शिकायतें दे चुके हैं। भाजपा के लीगल सेल ने भी भोपाल से लेकर सभी जिलों में कोई कसर नहीं छोड़ी।
आधा दर्जन से अधिक बड़े अफसर केवल शिकायतों के दम पर ही खिसकाए गए हैं। कोई अफसर किसी दूसरे जिले में चुनाव लड़ रहे प्रत्याशी का रिश्तेदार था तो किसी पर सत्ताधारी दल का काम करने के आरोप लगे। चुनावी पवित्रता के आयोग के इस यज्ञ में जनसंपर्क विभाग के अफसर भी अछूते नहीं रहे। चुनाव तक के लिए इस विभाग के भी कुछ अफसरों का ठौर बदलना पड़ा है। कांग्रेस के निशाने पर अब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के गृह जिले के कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक हैं। इनकी भी शिकायत की गई है।
चुनाव आयोग भी हर शिकायत का स्वागत कर रहा है। लोग बिना बाधा अपनी बात पहुंचा सकें इसलिए नए साधन और तरीके भी मुहैया कराए गए हैं। सूचना-प्रौद्य़ोगिकी के इस युग में आयोग का सी-विजिल एप है, जिससे कोई भी कभी भी कहीं से भी शिकायत भेज सकता है। हाल ही में लांच किए गए इस एप पर अब तक 1428 शिकायतें हो चुकी हैं। कॉल सेंटर और परंपरागत आवेदन के माध्यम से अब तक 8074 शिकायत हुई हैं। आयोग ने भी इनका जल्दी निराकरण करने के साथ उसकी जानकारी देने के लिए माड्यूल बनाया है।
चुनाव और शिकायत का जो नाता है उसके महत्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने अपने पिछले भोपाल दौरे में पार्टी नेताओं को इसका गुरुमंत्र दिया था। तत्काल शिकायत करो, शिकायत और निराकरण की प्रतियां अन्य जिलों के कलेक्टर एवं जिला निर्वाचन अधिकारी को भेजो और अगली शिकायत की तैयारी करो। राजनीतिक दल अपनी जगह, आयोग से ब्यूरोक्रेसी के भयाक्रांत होने की एक वजह मुख्य चुनाव आयुक्त का मध्यप्रदेश कैडर से होना भी है। वे कई नौकरशाहों को जानते-पहचानते हैं तो यहां के सियासी और प्रशासनिक समीकरणों से भी बखूबी वाकिफ हैं।


Monday, November 12, 2018

एमपी की चौथी जंग का नतीजा तो देख जाते ''अनंत गारू''



अनंत कुमार नहीं रहे। मध्यप्रदेश भाजपा के कई बड़े  नेताओं पर यह खबर किसी स्काईलैब केजैसी गिरी। कर्नाटक के अनंत कुमार का मध्यप्रदेश से बड़ा ही गहरा नाता रहा है। कई मिथक तोडऩे वाले भाजपा के लगातार दो विधानसभा चुनाव अभियान के वे अहम किरदार रहे हैं। प्रदेश से जुड़ी कई यादें उनके पास थीं तो 'अनंत-काल ' के कई संस्मरण प्रदेश के नेता और पत्रकारों के पास भी हैं। 
एक हंसता, मुस्कुराता और दमकता चेहरा। कन्नड़ शैली की हिंदी में बतियाते अनंत कुमार मुश्किल पलों में भी वैसे ही बिंदास रहते थे, जैसे वे दिखते थे। दो माह पहले ही भोपाल के दीनदयाल परिसर में प्रेस कान्फ्रेंस के बाद वीआईपी कक्ष के दरवाजे पर खड़े होकर वे अनौपचारिक चर्चा कर रहे थे। कुछ कमजोर दिख रहे हैं, सवाल पर हंसते हुए बोलेे- कर्नाटक चुनाव में ज्यादा घूम लिया ना, इसलिए दुबला हो गया हूं। कुछ देर पहले ही प्रेस वार्ता में प्रदेश में किसानों की आत्महत्या को लेकर पूछे गए तीखे सवालों से घायल अनंत का प्रश्न पूछने वाले पत्रकारों से शिकायती अंदाज था- 'इतने सालों बाद भी आपके सवाल नहीं बदले, दोस्त हो हमारे'। 
अनंत वो नुस्खा थे, जिसका प्रयोग कर पार्टी ने रतलाम की प्रदेश कार्यकारिणी बैठक के दौरान पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी के भांजे और कद्दावर मंत्री अनूप मिश्रा का इस्तीफा लिया था। मिश्रा के पुत्र पर एक हत्या के मामले में आरोप लगे थे और उनका कोई कसूर न होने के बावजूद एक समाज के वोटबैंक की नाराजगी दूर करने के लिए पार्टी उन्हें मंत्री पद से हटाना चाहती थी। अनंत कुमार की हिंदी ने उन्हें प्रदेश में कई बार मुश्किलों में भी डाला है। एक बैठक में उन्होंने कुछ मंत्रियों के लिए 'अय्याश' शब्द का प्रयोग कर दिया था। बवाल मचा तो अपने हिंदी के कमजोर ज्ञान का हवाला देते हुए उन्होंने सफाई देने से भी संकोच नहीं किया था।  
अनंत कुमार का मध्यप्रदेश से नाता शिवराज सिंह चौहान के मुख्यमंत्री बनने के साथ जुड़ा था। साल 2008 और 2013 के लगातार दो चुनाव उनके प्रदेश प्रभारी रहते भाजपा ने लड़े और जीते। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह, प्रदेशाध्यक्ष नरेंद्र सिंह तोमर और प्रभारी अनंत कुमार की तिकड़ी तब मध्यप्रदेश भाजपा के चुनाव अभियान की धुरी होती थी। अनंत कुमार 2008 के चुनाव में 'मिस्टर बंटाढार' का विलोम शब्द हासिल करने के लिए कई दिन तक खुद शब्दकोश खंगालते रहते थे तो दूसरों से भी पूछते रहते थे। उनकी खोज 'कर्णधार' शब्द पर जाकर रुकी थी और अपने हर भाषण में वे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के लिए कर्णधार उपमा का प्रयोग करना पसंद करते थे।
 भाजपा नेताओं को उम्मीद थी कि शिवराज और तोमर की जोड़ी को इस बार भी अनंत कुमार का साथ मिलेगा, लेकिन उनका खराब स्वास्थ्य ही संभवत: वो वजह था जिसके कारण भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने अनंत को प्रदेश की चुनावी जद्दोजहद से दूर रखा। किसे पता था कि अनंत अपने दोस्तों के प्रदेश में 'चौथी बार- फिर शिवराज' की जंग के परिणाम को देखने के लिए नहीं आ पाएंगे। ठीक उन अनिल माधव दवे की तरह जिनके साथ चुनावी दौर में वे देर रात तक भाजपा कार्यालय के वॉर रूम में डटे रहते थे। आज सुबह से उनका अपनी भाषा का वो आदरसूचक शब्द बार-बार दिमाग पर चढ़ रहा है, जिसका प्रयोग वो मिलने पर हमेशा संबोधन के लिए करते थे.....गारू.... यानी मालिक, स्वामी, बड़ा भाई।
                                                               ।।अनंत श्रद्धांजलि।।


Saturday, November 10, 2018

...तो क्या कांग्रेस के लिए भी व्यापमं अब जिताऊ मुद्दा नहीं !



करीब पांच साल तक प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की रातों की नींद उड़ाने वाला व्यापमं घोटाला क्या इस चुनाव में कांग्रेस के लिए भी मुद्दा नहीं है? सवाल इसलिए क्योंकि इस घोटाले को उजागर करने वाले व्हिसल ब्लोअर विधानसभा तक पहुंचने के लिए अपना बोरिया-बिस्तर बांध कर तैयार बैठे रहे और कांग्रेस तो क्या किसी और दल ने भी उन्हें अपना शुभंकर बनाना उचित नहीं समझा। सवाल इसलिए भी है क्योंकि भारतीय जनता पार्टी हो या कांग्रेस किसी ने भी टिकट वितरण में व्यापमं को  पवित्रता का पैमाना नहीं बनाया।
टिकट बंटवारे से पहले तक कांग्रेस नेताओं की जुबान पर व्यापमं इस कदर चढ़ा रहता था कि शिवराज सिंह चौहान की जगत मामा वाली छवि को वह कंस मामा बताने तक से परहेज नहीं कर रही थी। कांग्रेस को मसाला मिल रहा था पीएमटी सहित प्रदेश में हुई भर्ती परीक्षाओं की गड़बड़ियों को आरटीआई के जरिए खुलासा करने वाले एक्टिविस्ट से। व्यापमं घोटाले को प्रदेश और देश की सीमाओं से पार तक पहुंचाने और इसे बोफोर्स से भी बड़ा घोटाला निरूपित करने वाले लड़ाकों में पूर्व निर्दलीय विधायक पारस सकलेचा और इंदौर के डॉ. आनंद राय प्रमुख रहे हैं। दोनों ही कांग्रेस के बड़े नेताओं के इतने करीब आए कि उन्हें भी विधानसभा पहुंचने की ललक लगी और इस ललक को कांग्रेसियों ने परवान भी खूब चढ़ाया।  
कल तक जिन व्हिसल ब्लोअर्स के सहारे कांग्रेस ठगी के शिकार हुए प्रदेश के हजारों युवाओं की बात करती थी, आज वही व्यापमं के योद्धा खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। पारस दादा के नाम से मशहूर सकलेचा साल 2015 में ही कांग्रेस में शामिल हो गए थे। कई अदालती मामलों में वे कांग्रेस नेताओं के साथ वादी-परिवादी बने। उन्हें रतलाम सिटी से टिकट का भरोसा भी दिलाया गया, लेकिन अंतिम सूची तक प्रतीक्षा के बाद उनके हाथ टिकट नहीं लगा। इसी तरह डॉ. आनंद राय ने भी कांग्रेस के बड़े नेताओं की गलबहियां में अपनी सरकारी नौकरी छोड़ कर इंदौर-5 से चुनावी रण में कूदने की पूरी तैयारी कर ली थी। नामांकन दाखिले की अंतिम तारीख भी उन्हें वही अहसास करा गई, जो अहसास साल भर कड़ी मेहनत करने के बाद व्यापमं की मेरिट लिस्ट में किसी थर्ड डिवीजन से पास होने वाले को देख कर पढ़ाकू युवाओं को हुई थी। उनके ही इस शक से व्यापमं घोटाले की ओर शक की सुई घूमी थी। आज इस प्रमुख राजनीतिक दल की मंशा पर वैसा ही संदेह इन योद्धाओं को हो रहा है।
पारस दादा भी कांग्रेस के इस दांव से चारों खाने चित हैं। उन्हें किसी ने भी नहीं बताया कि जो आदमी निर्दलीय विधायक बन सकता है, वह व्यापमं जैसा भंवरजाल तोड़ने के बाद भी कांग्रेस से उम्मीदवार क्यों नहीं बन पाया। डॉ. आनंद राय की पीढ़ा तो और भी तीखी रही। उन्होंने कहा है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के आश्वासन के बाद भी उन्हें टिकट नहीं मिला। सोशल मीडिया पर सक्रिय राय ने इसे लेकर कुछ वो खबरें भी री-ट्वीट की हैं, जो कांग्रेस में टिकट बेचने के आरोप-प्रत्यारोप से जुड़ी हैं। इनसे अलग एक और युवा अर्जुन आर्य हैं, जो लंबे समय में बुदनी में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के खिलाफ लोगों को एकजुट कर रहे थे और कांग्रेस में शामिल होने के लिए समाजवादी पार्टी का टिकट वापस लौटा दिया। आर्य ने वर्तमान स्थिति से समझौता कर कांग्रेस प्रत्याशी अरुण यादव के लिए काम करने का ऐलान किया है।
व्यापमं के दागियों को बेनकाब करने वाले ये लड़ाके कांग्रेस का चेहरा नहीं बन सके तो क्या हुआ। कांग्रेस पर भी आरोप लग रहे हैं कि उसने व्यापमं दागी रहे फुंदेलाल मार्को को फिर से विधानसभा का टिकट थमा दिया है। कभी व्यापमं का नाम लेने वाले से भी दूर भागने वाली भाजपा ने भी इस मामले में जेल जा चुके पूर्व मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा के भाई उमाकांत को टिकट दिया है। शिवराज और लक्ष्मीकांत के सिरोंज मिलाप की फोटो, पहले ही फोटो ऑफ द मंथ का खिताब पाने लायक आंकी गई है। भाजपा से कांग्रेस इस मायने में अपनी साख बचाती दिख रही है कि उसने अपने वचन-पत्र में व्यापमं और शिवराज सरकार के घोटालों की जांच के लिए जनआयोग बनाने की घोषणा की है। लेकिन सवाल अभी भी बाकी है कि व्यापमं यदि जिताऊ मुद्दा है तो कांग्रेस को व्यापमं से व्हिसल ब्लोअर्स को टिकट से परहेज क्यों है?  
   


Friday, November 9, 2018

शाहगीरी...आईना बोलता है...


काम न आया दिल्ली दरबार का दम,  एक तराजू में तौले सारे बम
संस्कारवान, पंचनिष्ठा में निष्ठ, अनुशासित और पार्टीलाइन को मानने वाले कार्यकर्ताओं के दल भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेताओं से अच्छे तो वो करोड़ों कार्यकर्ता हैं, जिन्होंने एसएमएस से सदस्यता ली थी। निष्ठावानों की निष्ठा देखकर उन्हें भी शर्म आ गई होगी। भाजपा के जन्म के पहले से उसके साथ जुड़े पूर्व मंत्री और पूर्व सांसद सरताज सिंह अकेले निष्ठाभंग का उदाहरण नहीं हैं। अस्सी पार के बाबूलाल गौर भी जनसंघ और संघ के पुराने कार्यकर्ता और स्वयंसेवक हैं, दस बार के विधायक, पूर्व मुख्यमंत्री और चार सरकार में मंत्री रहे गौर भी एक टिकट के लिए पार्टी से बगावत को उतावले हुए तो नए नवेले भाजपाई विरोध का बिगुल क्यों नहीं फूंकते। पार्टी ने किसी की ऊंची आवाज सुनी तो किसी की दबा दी। टिकटों के इस खेल में कई बड़े चेहरे बेनकाब हुए हैं तो कुछ को जमीन भी दिखी है।
भारतीय लोकतंत्र से भी ज्यादा खुद को लोकतांत्रिक कहने का दम भरने वाली मध्यप्रदेश भाजपा में टिकट वितरण के बाद आज कुछ बचा है तो उसका श्रेय डिक्टेटर की भूमिका निभाने वाले राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को जाता है। शाह की शाहगीरी के सामने उनके खासमखास माने जाने वाले राष्ट्रीय महामंत्री कैलाश विजयवर्गीय पानी भरते नजर आए तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की गुडबुक में रहने वाले केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर को भी अपना असली वजन पता चला। लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन हों या फिर चौथी बार सरकार बनाने के लिए टिकट और रिश्तों की कशीदाकारी कर रहे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सभी को शाह ने एक तराजू से तौला।
टिकट क्लेश के बाद साफ हो गया है कि कैलाश पुत्र आकाश विजयवर्गीय का सियासी आगाज उनकी मनपसंद सीट इंदौर-2 से नहीं होने वाला, भले ही दो बार के विधायक और कैलाश के खास साथी रमेश मेंदोला कुर्बानी देने के लिए तैयार बैठे रहे। आकाश के लिए भाजपा स्टार प्रचारक विजयवर्गीय को अब कांटे की टक्कर वाली सीट इंदौर-3 में समय देना होगा। एक परिवार से एक टिकट की सुल्तानी लकीर के आगे प्रदेश के भावी मुख्यमंत्रियों में गिने जाने वाले कैलाश विजयवर्गीय को अपनी महू सीट के साथ ही समर्थकों के टिकट भी गंवाने पड़े, सो अलग। बेटे के लिए पिता का यह बलिदान पांच माह बाद लोकसभा चुनाव में कमल की तरह खिलेगा या नहीं, फिलहाल कहना मुश्किल है। 'भाई’  कैलाश की ही तरह सुमित्रा 'ताईभी अपने बेटे के लिए मनपसंद सीट नहीं जुगाड़ पाईं तो इस बार भी मंदार महाजन विधानसभा की चौखट लांघने की तमन्ना दिल में ही रख कर रह गए।
मालवा से दूर ग्वालियर-चंबल अंचल में अपने पुत्र देवेंद्रप्रताप सिंह 'रामू के लिए दिमनी की जमीन तैयार करना केंद्रीय पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर को भारी पड़ गया। अंदरखाने की फुसफुसाहटों को सही मानें तो चुनाव समिति की बैठक में ही शाह ने कह दिया कि तोमर अपने मंत्री पद या बेटे की विधानसभा टिकट में से एक चुन लें। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की बैसाखी भी रामू का सहारा नहीं बन सकी। बस क्या था, दिमनी देवेंद्र की न हो सकी, लेकिन रही पुराने पारिवारिक रखवाले के ही पास। कांग्रेसी से भाजपाई बने चौधरी राकेश सिंह की राजनीतिक महत्वाकांक्षा की बलि उनके भाई मुकेश चतुर्वेदी को अपनी सीट गंवा कर देनी पड़ी। पूर्व प्रधानमंत्री अटलजी के भांजे अनूप मिश्रा को भी सांसदी छोड़ कर फिर विधायकी का टिकट हासिल करने के लिए दिल्ली दरबार के बजाए मंदिरों में हाजिरी लगानी पड़ी, तब कहीं जाकर उनकी लाटरी खुली।
भोपाल में गौर पर गौर हुआ क्योंकि बाबूलाल ने एक तो गोविंदपुरा के साथ हुजूर सीट पर भी भाजपा का गणित बिगाडऩे की चेतावनी दे डाली। दूसरे, कार्यकर्ता महाकुंभ के मंच पर माइक से दूर नरेंद्र मोदी द्वारा मुलाकात में सहज कहे गए जुमले 'गौर एक बार और’  को सार्वजनिक कर उन्होंने अपने टिकट को प्रधानमंत्री की प्रतिष्ठा से जोड़ दिया। मोदी की प्रतिष्ठा को अमित शाह चाह कर भी ठेस नहीं पहुंचा सकते। पचास साल की अपनी जमीनी जमावट और भाजपाई सियासती अनुभव के दम पर गौर ने बहू कृष्णा का टिकट तय कराया और खुद के लिए मार्गदर्शक मंडल का रास्ता चुना। दिग्गज हों या जवां खून वाले दावेदार शाहगीरी की तलवार ने सभी को आईना दिखाने में संकोच नहीं किया। सिंधिया घराने की मामी माया सिंह और लोधी नेता कुसुम महदेले मंत्री रहते हुए टिकट नहीं बचा पाईं तो मंत्री गौरीशंकर शेजवार और हर्ष सिंह ने अपने बेटों के लिए राजनीतिक वानप्रस्थ स्वीकार किया। मंत्री गोपाल भार्गव का रहली से बेटे को टिकट दिलाने का देवरी विजय का पांसा बेकार गया तो दमोह से जयंत मलैया भी शाह की परख में बेटे सिद्धार्थ से ज्यादा जिताऊ निकले। एक परिवार एक टिकट नीति के अपवाद हैं तो केवल शाह बंधु- विजय और संजय शाह। दोनों पिछली बार भी भाजपा से विधायक थे इस बार भी उम्मीदवार हैं।     



Sunday, November 4, 2018

सियासी धोखेबाजी:एक ने बहन और जीजा का छोड़ा साथ, दूसरे ने आदिवासी संगठन को !


पैडमैन फिल्म में संजय सिंह मसानी 

चुनाव के वक्त दल-बदल कोई नई बात नहीं है। बिना किसी पद के जनता की सेवा का दम भरने वाले नेता अपने राजनीतिक दल से टिकट न मिलने पर विरोधी विचारधारा वाली पार्टी में पैराशूट लैंडिंग भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था के जन्मकाल से ही करते रहे हैं। सियासी धोखेबाजी के इस खेल में जो दांव मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के साले संजय सिंह मसानी और जयस के संस्थापक एवं राष्ट्रीय संरक्षक डॉ. हीरा अलावा ने चला है, वह तो इस मैदान में मील का पत्थर साबित हो रहा है।
संजय सिंह मसानी की राजनीतिक सामाजिक हैसियत और पहचान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से ही जुड़ी हुई है। पड़ोसी राज्य महाराष्ट्र के छोटे से शहर गोंदिया के निवासी संजय को शिवराज के मुख्यमंत्री बनने से पहले मध्यप्रदेश में उंगलियों पर गिनने लायक लोग ही पहचानते रहे होंगे। तेरह साल के शिव-राज में ही वे बड़े उद्योगपति, सिने कलाकार और पत्रकार जैसी विविध कलाओं में पारंगत हुए और नाम कमाया। महाराष्ट्र छोड़कर मध्यप्रदेश की स्काउट एवं गाइड जैसी संस्था में भी वे किला लड़ाते दिखे। भोपाल के मुख्यमंत्री निवास से लेकर शिवराज के सालाना गणेश प्रतिमा विसर्जन समारोह तक में परिवार के अहम सदस्य की भूमिका निभाते हुए वे लाइम लाइट में रहने का कोई मौका नहीं छोड़ते थे। शिवराज के वहीं संजय, साधना सिंह के वही रसूखदार भाई संजय... अचानक कांग्रेस के मंच पर नजर आए तो उन्हें शिवराज में खामियां ही खामियां दिखाई देने लगीं। बहन की राखी की लाज रखने की कसमें खाने वाले वही संजय आज शिवराज के रिश्तेदार हो गए, जो कल तक उनके सगे भाइयों से ज्यादा परिवार का हिस्सा होते थे। नाते-रिश्तेदारों के राजनीतिक पलटी मारने का यह कोई पहला मामला नहीं है। कभी सिंधिया घराने के मां-बेटे ने अलग-अलग दलों की सवारी की परिपाटी शुरू की थी। श्यामला हिल्स के जिस मुख्यमंत्री निवास से अब संजय ने रूखसती ली है, उसी सीएम हाउस में दस साल तक बड़े राजा और छोटे राजा के तौर पर पूजे जाते रहे दिग्विजय सिंह और लक्ष्मण सिंह की जोड़ी भी दिग्विजयी सरकार गिरते ही टूट गई थी। छोटे राजा यानी लक्ष्मण ने भाई की विरोधी पार्टी भाजपा में कदम रखा और उससे सांसद भी बने। जब तक लक्ष्मण भाजपाई रहे, दिग्विजय के खिलाफ एक भी मामला अदालत या थाने की चौखट नहीं चढ़ा। भले ही उन्हें मुख्यमंत्री निवास से बेदखल करने वाली उमा भारती और भाजपा ने कभी न छोडऩे का ऐलान कर रखा था। अब चुनावी बेला में मध्यप्रदेश के वारा सिवनी से विधायक बनने की तमन्ना रखने वाले संजय ने अपने बहनोई से रुष्ट होकर कांग्रेस का दामन थामा है। हालांकि उन्हें करीब से जानने वाले कहते हैं कि संजय किसी योजना का हिस्सा नहीं बने हैं, उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा ने ही शिवराज से कमलनाथ को बेहतर बताने को मजबूर किया है। हो सकता है यह उनकी अंतरआत्मा की आवाज हो।
राहुल गांधी के साथ आरटीआई एक्टीविस्ट डॉ आनंद राय, हीरा अलावा और दीपक बावरिया
दूसरी घटना सूदूर आदिवासी क्षेत्र की है। यहां एम्स दिल्ली की नौकरी छोड़कर आए डॉ. हीरालाल अलावा ने 'अबकी बार आदिवासी सरकार' का नारा देकर युवाओं की ऐसी फौज बनाई कि कांग्रेस और भाजपा के पसीने छूट गए। अलावा ने कांग्रेस से सीटों के बंटवारे का खेल खूब खेला। कुक्षी को केंद्र में रखकर मांग 80 सीट से शुरू होकर 15 तक पहुंची, लेकिन बात नहीं बनी। कल यानी कांग्रेस की लिस्ट जारी होने से चंद घंटे पहले तक अलावा अपने दम पर आदिवासी सरकार बनाने की हुंकार भर रहे थे और रात में वो अचानक बड़े ही गुपचुप ढ़ंग से मनावर से कांग्रेस उम्मीदवार हो गए। सूची आते ही कल तक पूजे जाने वाले डॉ. अलावा जयस के लिए धोखेबाज अलावा हो गए। जयस चुनाव प्रभारी समिति के अध्यक्ष और संरक्षक राजेंद्र पंवार अब अपने दम पर 22 सीटों पर प्रत्याशी खड़े करने का दावा कर रहे हैं। यह और बात है कि वे अलावा के खिलाफ उम्मीदवार नहीं देंगे तो उनका समर्थन भी नहीं करेंगे। लेकिन जयस में आज जो गूंज रहा है वह अलावा के खिलाफ उठ रही
आवाजें हैं। इस आवाज और भोपाल से उठती ध्वनि में साम्य है। श्यामला हिल्स के  खास बंगले के भीतर से उठती दबी आवाज हो या कुक्षी, मनावर में सड़क पर चीत्कार करता स्वर....एक ही शब्द मुखर है.....धोखेबाज।

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